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तुलसीजी लक्ष्मीजी के समान भगवान नारायण की प्रिया और नित्य सहचरी हैं; इसलिए परम पवित्र और सम्पूर्ण जगत के लिए पूजनीया हैं । वे विष्णुप्रिया, विष्णुवल्लभा, विष्णुकान्ता तथा केशवप्रिया आदि नामों से जानी जाती हैं । भगवान श्रीहरि की भक्ति और मुक्ति प्रदान करना इनका स्वभाव है । 

देवी तुलसी के प्रादुर्भाव की कथाएं

देवी तुलसी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में अनेक कथाएं हैं और कल्पभेद से उनमें कई स्थानों पर कुछ भिन्नता भी प्राप्त होती है–

एक कथा के अनुसार क्षीरसागर का मन्थन करने पर ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी, कौस्तुभमणि, दिव्य औषधियां व अमृत कलश आदि निकले । सभी देवताओं ने लक्ष्मी एवं अमृत कलश भगवान विष्णु को अर्पित कर दिए । भगवान विष्णु अमृत कलश को अपने हाथ में लेकर अति प्रसन्न हुए और उनके आनन्दाश्रु उस अमृत में गिर पड़े, जिनसे तुलसी की उत्पत्ति हुई । इसीलिए तुलसी भगवान विष्णु को बहुत प्रिय हो गयीं और तब से देवता भी तुलसी को पूजने लगे ।

कुछ पुराणों के अनुसार भगवती तुलसी मूलप्रकृति की ही प्रधान अंश हैं । वे गोलोक में तुलसी नाम की गोपी थीं और भगवान के चरणों में उनका अतिशय प्रेम था । रासलीला में श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्ति देखकर राधाजी ने इन्हें मानवयोनि में जन्म लेने का शाप दे दिया । इससे वे भारतवर्ष में राजा धर्मध्वज की पुत्री हुईं ।

गोलोक में सुदामा नाम का एक गोप श्रीकृष्ण का मुख्य पार्षद था; उसे भी राधाजी ने क्रुद्ध होकर दानव योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया जो अगले जन्म में शंखचूड़ दानव बना । ब्रह्माजी की प्रेरणा से भगवती तुलसी का शंखचूड़ दानव से गांधर्व विवाह हुआ । ब्रह्माजी का वरदान प्राप्त कर दानवराज शंखचूड़ ने अपने पराक्रम से देवताओं को स्वर्ग से निकालकर उस पर अपना अधिकार कर लिया । देवतागण त्रस्त होकर भगवान विष्णु की शरण में गए ।

भगवान विष्णु ने देवताओं को शंखचूड़ के जन्म एवं वरदान की बात बताकर उसकी मृत्यु का उपाय बताते हुए उसे मारने के लिए भगवान शंकर को एक त्रिशूल दिया और कहा कि तुलसी का सतीत्व नष्ट होने पर ही शंखचूड़ की मृत्यु संभव हो सकेगी । भगवान विष्णु ने देवताओं को दिए गए वचन के अनुसार छलपूर्वक तुलसी का सतीत्व नष्ट किया । उधर भगवान शंकर ने त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर डाला । 

तुलसी और शालग्राम

भगवान विष्णु ने जो अनुग्रह कर तुलसी को अपनी पत्नी बनाने के लिए छल का अभिनय किया, उससे रुष्ट होकर इन्होंने उन्हें पाषाण शिला बनने का शाप दिया और स्वयं तुलसी के शरीर से गण्डकी नदी उत्पन्न हुई और भगवान श्रीहरि उसी के तट पर मनुष्यों के लिए पुण्यप्रद शालग्राम बन गये । 

तुलसी की कारुणिक अवस्था देखकर भगवान ने तुलसी के सामने प्रकट होकर उन्हें समझाते हुए कहा–’तुम मेरे लिए बदरीवन में रहकर बहुत तपस्या कर चुकी हो, साथ ही इस शंखचूड़ ने भी उस समय तुम्हारे लिए दीर्घ समय तक तपस्या की थी । तुम्हें पत्नी रूप में प्राप्त करने के बाद अंत में वह गोलोक चला गया । अब मैं तुम्हें तुम्हारी तपस्या का फल प्रदान करना चाहता हूँ । अब तुम इस शरीर का त्याग कर दिव्य देह धारण कर मेरे साथ आनन्द करो । लक्ष्मी के समान तुम्हें सदा मेरे साथ रहना चाहिए । तुम्हारा यह शरीर गण्डकी नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा, जो मनुष्यों को उत्तम पुण्य देने वाली बनेगी । मैं भी तुम्हारे शाप से पाषाण बन कर भारतवर्ष में गण्डकी नदी के तट के समीप निवास करुंगा । वहां रहने वाले करोड़ों कीड़े अपने तीखे दांत रूपी आयुधों से काट-काट कर उस पाषाण में मेरे चक्र का चिह्न करेंगे । चारों वेदों के पढ़ने तथा तपस्या करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य शालग्राम शिला के पूजन से निश्चित रूप से सुलभ हो जाएगा ।

तुम्हारे केशकलाप पवित्र वृक्ष होंगे जो तुलसी नाम से प्रसिद्ध होंगे । तीनों लोकों में देवताओं की पूजा के काम में आने वाले जितने भी पत्र और पुष्प हैं, उन सबमें तुलसी प्रधान मानी जाएगी । स्वर्गलोक, मर्त्यलोक, पाताल तथा वैकुण्ठलोक में सर्वत्र तुम मेरे पास रहोगी । वहां तुम लक्ष्मी के समान सम्मानित होओगी । तुलसी-वृक्ष के नीचे के स्थान परम पवित्र होंगे । तुलसी के गिरे पत्ते प्राप्त करने के लिए समस्त देवताओं के साथ मैं भी रहूंगा ।’

उस समय तुलसी के शरीर से गण्डकी नदी उत्पन्न हुई और भगवान श्रीहरि उसी के तट पर मनुष्यों के लिए पुण्यप्रद शालग्राम बन गए । तुलसी अपना वह शरीर त्याग कर और दिव्य रूप धारण करके श्रीहरि के वक्ष:स्थल पर लक्ष्मी की भांति सुशोभित होने लगीं । भगवान श्रीहरि उन्हें साथ लेकर वैकुण्ठ पधार गए ।

शालग्रामजी पर से केवल शयन कराते समय ही तुलसी हटाकर बगल में रख दी जाती है, इसके अलावा वे कभी तुलसी से अलग नहीं होते हैं । जो शालग्रामजी पर से तुलसी पत्र को हटा देता है, वह दूसरे जन्म में पत्नी विहीन होता है । साथ ही शंख से तुलसी पत्र का विच्छेद करने वाला व्यक्ति भार्याहीन तथा सात जन्मों तक रोगी होता है । शालग्राम, तुलसी और शंख को जो व्यक्ति एक साथ रखता है; उससे भगवान श्रीहरि बहुत प्रसन्न रहते हैं ।

कलियुग में जो मनुष्य भगवान श्रीहरि और केशव की पूजा के लिए पृथ्वी पर तुलसी का वृक्ष लगाते हैं, उनका यमराज भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते । 

तुलसी ! तुम अमृत से उत्पन्न हो और केशव को सदा ही प्रिय हो । मैं भगवान की पूजा के लिए तुम्हारे पत्तों को चुनता हूँ । तुम मेरे लिए वरदायिनी हो ।

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