lakshmi ji and vishnu ji sitting on on lotus flower

एक दिन श्रीहरिप्रिया लक्ष्मी जी ने अपने पति वैकुण्ठपति भगवान विष्णु से व्यंग्य करते हुए कहा—‘नाथ ! 

संसार में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो लक्ष्मी की कामना न करता हो । राजा, रंक, छोटे, बड़े सभी चाहते हैं कि लक्ष्मी जी सदा उनके घर में निवास करें; इसलिए यह संसार जितना मुझे चाहता है, उतना आपको नहीं चाहता है । इस संसार के लोग जितने मेरे भक्त हैं, उतने आपके नहीं हैं । यह बात आप भी जानते हैं । क्या आपको इससे जरा भी दु:ख नहीं होता है ?’

यह सुन कर भगवान श्रीहरि ने मुस्कराते हुए कहा—‘तुम इस चराचर जगत के स्वामी वैकुण्ठाधिपति की अर्धांगनी हो, ऐसा प्रश्न क्यों करती हो ? यह समस्त जगत मेरे को ही चाहता है, हमारे सिवाय तुमको कोई और नहीं चाहता है ।’

लक्ष्मी जी ने कहा—‘यह संसार के लोग हर समय लक्ष्मी की प्राप्ति में ही लगे रहते हैं, भगवान की प्राप्ति में नहीं और आप कहते हो कि हमारे सिवाय तुमको और कोई नहीं चाहता है ।’

भगवान बोले—‘चलो हमारे साथ मृत्युलोक (पृथ्वी) में चलो, हम तुमको प्रत्यक्ष दिखा देते हैं ।’

लक्ष्मी जी भगवान के साथ मृत्युलोक में आ गईं । मार्ग में उन्होंने एक शवयात्रा देखी जिसमें बहुत लोग ‘राम नाम सत्य है’ कहते हुए जा रहे थे ।

भगवान श्रीहरि ने कहा—‘प्रिये ! अपना कुछ चमत्कार दिखाओ ।’

लक्ष्मी जी ने उसी समय शवयात्रा में स्वर्ण-वर्षा कर दी । लोगों पर ऊपर से स्वर्ण की मोहरें बरसने लगीं । जहां अभी तक गमगीन माहौल था; वहां लोग आश्चर्यचकित होकर हंसने लगे और मोहरें उठाने के लिए लालायित होने लगे । पहले तो लोग सकुचाते हुए एक-दूसरे को देखने लगे; परंतु ज्यादा देर तक अपने लालच को दबा न सके । उनका धैर्य टूट गया और गुड़ पर मक्खी की तरह वे मोहरों को बीनने लगे ।

शुरु में तो वे पैरों से ही मोहरें खिसका-खिसका कर अपने पास लाने और उठाने लगे । फिर जब एक व्यक्ति ने हाथों से मोहरें उठाना शुरु किया तो बाकी लोग भी दौड़-दौड़ कर मोहरें उठाने लगे ।

अब केवल वे चार लोग ही रह गए जिन्होंने अर्थी को उठा रखा था; लेकिन अब उनके लालच ने भी जोर पकड़ा और वे सोचने लगे कि सब लोगों ने इतनी मोहरें बटोर ली हैं; हम ही खाली हाथ रह गए । इसलिए वे भी अर्थी को एक तरफ रख कर मोहरें बीनने लगे ।

यह नजारा देख कर लक्ष्मी जी ने खुश होकर भगवान से कहा—‘देखा प्रभो ! हमने आपको प्रत्यक्ष दिखला दिया कि संसारी लोग हमें कितना चाहते हैं ?’

भगवान ने कहा—‘लक्ष्मी जी ! यह जो मुर्दा नीचे पड़ा है, वह तुमको क्यों नहीं उठाता है ?’

लक्ष्मी जी ने खीज कर कहा—‘प्रभो ! आप ये कैसी बात कर रहे हैं ? यह तो मुर्दा है, यह मुझे कैसे उठायेगा ? इसमें तो प्राण ही नहीं हैं ।’

भगवान ने कहा—‘इसके हृदय से मैं निकल गया हूँ; इसलिए ये तुम्हें नहीं उठा रहा । बाकी लोगों के अंत:करण में मैं आत्मा रूप से विद्यमान हूँ; इसलिए इनके रूप में मैं ही लक्ष्मी को उठा रहा था । इसलिए प्रिये ! मैंने सही कहा था कि मेरे अलावा संसार में तुम्हें कोई नहीं चाहता ।’

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात कई श्लोकों में कही है कि भी सभी प्राणियों के हृदय में मेरी विशेष स्थिति है । जैसे—

गीता (१०।२०) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:’ अर्थात्—‘हे अर्जुन ! मैं वासुदेव सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ ।’

गीता (१५।१५)—‘मैं समस्त प्राणियों के हृदय में अंतर्यामी रूप से स्थित हूँ ।’

सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा वास्तव में परमात्मा का ही अंश है । ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ अर्थात् जीव मेरा अंश है; प्राणों के रूप में जो ‘ब्रह्म’ उसके हृदयकमल में विराजमान है, वह मैं ही हूँ । 

पुष्प मध्य ज्यों वास बसत है,
मुकुट माहि जस छाई ।
तैंसे ही हरि बसें निरंतर,
घट ही खोजो भाई ।। (गुरुनानकदेव जी)

परमात्मा की सृष्टि में जो क्रियात्मिका (करने की शक्ति) व गत्यात्मिका (चलने या हिलने की) शक्ति है, उसे ही प्राणशक्ति कहते हैं अर्थात् शरीर की चेतना ही ‘प्राण’ हैं । मनुष्य के शरीर में जब तक प्राण (ब्रह्म) है, तभी तक वह ‘जीवित’ कहलाता है, प्राण निकलते ही उसे ‘शव’ कहा जाता है । क्योंकि प्राणों के रूप में जो ‘ब्रह्म’ उसके हृदयकमल में विराजमान था वह निकल चुका होता है । 

मनुष्य सबसे ज्यादा अपने-आप से प्यार क्यों करता है; क्योंकि वह अपनी आत्मा यानी भगवान से ही सबसे ज्यादा प्यार करता है; किंतु आंखों पर माया का चश्मा चढ़ा होने के कारण इस बात को वह समझता नहीं है ।