अयोध्या का राजसिंहासन और रावण

अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट रघु ने ही ‘रघुकुल’ या ‘रघुवंश’ की नींव रखी थी । रघुकुल अपने सत्य, तप, मर्यादा, वचन पालन, चरित्र व शौर्य के लिए जाना जाता है । इसी वंश में भागीरथ, अंबरीष, दिलीप, रघु, दशरथ और श्रीराम जैसे राजा हुए । रावण प्रकाण्ड विद्वान और त्रिकालदर्शी था । उसे पता था कि उसकी मृत्यु अयोध्यापति श्रीराम के हाथों होगी । अत: अयोध्या का विनाश करना उसका चिरकाल से संकल्प था ।

सती और पार्वती जी के अज्ञानता के अभिनय से हुआ श्रीरामचरितमानस...

सती और पार्वती जी ने अपने अज्ञान का अभिनय कर भगवान शंकर के हृदय में छिपी अनमोल वस्तु ‘श्रीरामचरितमानस’ मानव के कल्याण के लिए संसार को दिला दी ।

गुरु कृपा रूपी रक्षा कवच

एक दिन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सरयू नदी में स्नान कर जब बाहर निकले तो हनुमान जी ने देखा कि प्रभु की कमर पर पांच अंगुलियों का एक नीला निशान स्पष्ट दिखाई दे रहा है । आश्चर्यचकित होकर हनुमान जी सोचने लगे कि मेरे प्रभु की कमर पर इतनी गहरी चोट का निशान कहां से आया ? मेरे रहते हुए किसने प्रभु को चोट पहुंचाई है ।

भगवान श्रीराम ने लंका का सेतु क्यों भंग किया ?

लंका विजय के बहुत दिनों बाद एक बार भगवान श्रीराम को विभीषण की याद आई । उन्होंने सोचा—‘मैं विभीषण को लंका का राज्य दे आया हूँ, वह धर्मपूर्वक शासन कर भी रहा है या नहीं । राज्य के मद में कहीं वह कोई अधर्म का आचरण तो नहीं कर रहा है । मैं स्वयं लंका जाकर उसे देखूंगा और उपदेश करुंगा, जिससे उसका राज्य अनन्तकाल तक स्थायी रहे ।’

प्रभु श्रीराम का राजा दशरथ को ज्ञानोपदेश

प्रभु श्रीराम के ज्ञानपूर्ण वचन सुन कर वहां बैठे वसिष्ठ जी, विश्वामित्र जी और सभी ब्रह्मज्ञानियों को अत्यंत आश्चर्य हुआ कि ऐसा बृहस्पति जी भी नहीं बोल सकते, ऐसे अपूर्व वचन ये कुमार बोल रहा है । कितना ज्ञान है इस किशोर में ? विश्वामित्र जी ने राम जी से कहा—‘राम ! जो जानने योग्य है, वह सब कुछ तुम जान ही चुके हो । अब कुछ विशेष जानना बाकी नहीं है ।’

जिन्ह कें रही भावना जैसी प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी

जिसके पास जैसा भाव है, उसके लिए भगवान भी वैसे ही हैं । वे अन्तर्यामी मनुष्य के हृदय के भावों को जानते हैं। जो मनुष्य सहज रूप में अपना तन, मन, धन और बुद्धि अर्थात् सर्वस्व प्रभु पर न्योछावर कर देता है, भगवान भी उसे उसी रूप में दर्शन देकर भावविभोर कर देते हैं ।

रावण के मानस रोगों की हनुमान जी द्वारा चिकित्सा

अनेक बार बाहर से सुखी और समृद्ध लगने वाले लोग अंदर से अशान्ति की आग में जल रहे होते हैं । रावण के पास अकूत धन-वैभव और अपरिमित शक्ति थी; किंतु उसमें तमोगुण की अधिकता के कारण काम, क्रोध और अहंकार कूट-कूट कर भरा था। इस कारण उसके जीवन में सच्चे सुख का अभाव था ।

संकट मोचन और चतुर-शिरोमणि हनुमान जी

श्रीरामचरितमानस में जितना भी कठिन कार्य है, वह सब हनुमान जी द्वारा पूर्ण होता है । मां सीता की खोज, लक्ष्मण जी के प्राण बचाना, लंका में संत्रास पैदा करना, अहिरावण-वध, श्रीराम-लक्ष्मण की रक्षा--जैसे अनेक कार्य हनुमान जी ने अपने अद्भुत बुद्धि-चातुर्य से किए । आज भी कितने भी संकट में कोई क्यों न हो, हनुमान जी को जो करुणहृदय से पुकारता है, हनुमान जी उसकी रक्षा अवश्य करते हैं ।

जानकी जी की रुदन लीला

भगवान शंकर और श्रीरामजी में अनन्य प्रेम है । जब-जब भगवान पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, तब-तब भोले-भण्डारी भी अपने आराध्य की मनमोहिनी लीला के दर्शन के लिए पृथ्वी पर उपस्थित हो जाते हैं । भगवान शंकर एक अंश से अपने आराध्य की लीला में सहयोग करते हैं और दूसरे रूप में उनकी लीलाओं को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न होते हैं ।

गिलहरी पर भगवान राम की कृपा

गिलहरी के निष्काम सेवा-भाव से प्रभु श्रीराम प्रसन्न हो गए । उन्होंने गिलहरी को बांये हस्त पर बैठा रखा था । एक छोटे-से प्राणी को उन्होंने वह आसन दे रखा था जिसकी कल्पना त्रिभुवन में कोई कर भी नहीं सकता । श्रीराम जी ने अपने दाहिने हाथ की तीन अंगुलियों से गिलहरी की पीठ थपथपा दी ।