bhagwan hanuman ji shri ram

श्रीराम कथा के मर्मज्ञ विद्वान पूज्य श्रीरामकिंकर जी उपाध्याय ने अपने एक लेख में रावण के मानस रोगों और सद्गुरु वैद्य हनुमान जी के द्वारा उनका उपचार बताने का बहुत सुंदर उल्लेख किया है । यहां इस ब्लॉग में उसी रोचक प्रसंग का विस्तार से वर्णन किया गया है ।

अनेक बार बाहर से सुखी और समृद्ध लगने वाले लोग अंदर से अशान्ति की आग में जल रहे होते हैं । रावण के पास अकूत धन-वैभव और अपरिमित शक्ति थी; किंतु उसमें तमोगुण की अधिकता के कारण काम, क्रोध और अहंकार कूट-कूट कर भरा था । इस कारण उसके जीवन में सच्चे सुख का अभाव था ।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में मानस रोगों की चर्चा करते हुए कहा है कि संसार काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि अनेक मानस रोगों से ग्रस्त है । यद्यपि गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस रोगों की लम्बी सूची बतायी है; परन्तु उनमें काम, क्रोध और अहंकार—ये तीन ही प्रधान बताए हैं ।

रावण के मानस रोग और हनुमान जी द्वारा उनकी चिकित्सा

रावण अनियंत्रित काम, अनियंत्रित क्रोध, अनियंत्रित लोभ और साथ में अहंकार जैसे मानस रोगों से पीड़ित था । यही उसके विनाश के कारण बने । जब एक व्याधि ही मनुष्य के जीवन का अंत कर सकती है; तो भला, इतनी सारी मानसिक व्याधियां व्यक्ति को कितनी घोर यातनाएं देती होंगी ? 

भगवान श्रीराम ने माता सीता का पता लगाने के लिए हनुमान जी को लंका भेजा; किंतु इसका गूढ़ कारण रावण के मानस रोगों की चिकित्सा करना था । रावण अपने मानस रोगों से स्वयं तो दु:खी था ही; उससे वह मानव जाति को भी दु:खी कर रहा था । प्रभु श्रीराम चाहते थे कि यदि सद्गुरु वैद्य हनुमान जी के समझाने से रावण मानसिक रूप से स्वस्थ हो जाएगा तो समाज भी स्वस्थ हो जाएगा और प्रजा के दु:ख भी समाप्त हो जाएंगे और रावण का वध भी नहीं करना पड़ेगा । साथ ही युद्ध के कारण प्रजा की जो हानि होगी वह भी बच जाएगी ।

भगवान शंकर सबका कल्याण करने वाले हैं । उन्होंने संसार की भलाई के लिए कालकूट विष का पान किया । अत: भगवान श्रीराम ने रावण के मानस रोगों को दूर कर प्रजा को सुखी करने का जिम्मा भगवान शंकर के अंशावतार हनुमान जी को दिया । जानते हैं, हनुमान जी ने रावण के मनोरोगों का उपचार कैसे किया ?

 ▪️रावण ने अपने अनियंत्रित काम के कारण जगज्जननी सीता का अपहरण किया । हनुमान जी काम रूपी मानस रोग को मारने के लिए रावण को श्रीराम के चरणकमलों को हृदय में बसा लेने की मंत्र-औषधि देते हैं—

राम चरन पंकज उर धरहू ।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू ।। (राचमा ५।१)

क्योंकि जहां राम होंगे, वहां काम नहीं होगा और जहां काम है वहां राम नहीं होंगे । ठीक उसी तरह जिस तरह सूर्य और रात्रि एक स्थान पर नहीं रह सकते हैं—

जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम ।
तुलसी कबहुँ कि रहि सकत, रबि रजनी एक ठाम ।।

परंतु अहंकारी रावण ने इस मंत्र-औषधि का तिरस्कार कर दिया । यही मंत्रौषधि विभीषण ने ग्रहण कर ली और उन्हें लंका का राज्य प्राप्त हुआ—

तुम्हरो मंत्र विभीषण माना ।
लंकेस्वर भए सब जग जाना ।। (हनुमान चालीसा)

▪️मानस रोगों में क्रोध को पित्त कहा गया है । क्रोध से मनुष्य का ओज, बुद्धि और बल क्षीण होने लगता है । हनुमान जी रावण को समझाते हुए कहते हैं कि—

‘जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उन श्रीराम से कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकी जी को उन्हें दे दो’ क्योंकि ‘तुम जैसे राम के द्रोही को हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी नहीं बचा सकेंगे ।’

जाकें डर अति काल डेराई ।
जो सुर असुर चराचर खाई ।।
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै ।
मोरे कहें जानकी दीजै ।। (राचमा ५।९-१०)

लेकिन रावण ने हनुमान जी की मंत्रौषधि ग्रहण न करके क्रोधवश उन्हें दण्ड देने के लिए उनकी पूंछ में आग लगवा दी । हनुमान जी ने सारी लंका जला दी पर विभीषण का घर नहीं जला । यह देख कर रावण का क्रोध और भी उग्र हो गया । 

तब विभीषण रावण को समझाते हैं—

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ।। (राचमा ५।३८)

अर्थात्—काम, क्रोध, मद और लोभ—ये सब नरक के रास्ते हैं । इन सबको छोड़ कर श्रीरामचंद्र जी को भजिए, जिन्हें संत भजते हैं । 

रावण अपने अनियंत्रित क्रोध के कारण भाई विभीषण को लंका से लात मार कर निकाल देता है । अगर रावण क्रोध में आकर विभीषण को अपने राज्य से निकाल न देता तो लंका का रहस्य और रावण की नाभि में अमृत है—यह रहस्य श्रीराम को ज्ञात न हो पाता । तब रावण पर विजय पाना श्रीराम के लिए बहुत कठिन हो जाता ।

▪️रावण का तीसरा सबसे बड़ा मानस रोग अहंकार था । अभिमान मनुष्य के दुर्गुणों का राजा है । यह सभी दोषों व रोगों को आकर्षित करने वाला चुम्बक है । अहंकारी व्यक्ति दूसरों की भावनाओं और कष्टों की परवाह न करके अपना अहं पूरा करते हैं; जिससे परिवार तो टूटता ही है, युद्ध तक हो जाते हैं । 

हनुमान जी सद्गुरु वैद्य के रूप में रावण को तमोगुणी अभिमान छोड़ने को कहते है—‘मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान ।’ (५।२३)

परंतु अभिमानी रावण हंस कर कहता है—‘अच्छा ! तो अब मुझे तुम जैसा ज्ञानी बंदर गुरु मिला है, जो मेरी चिकित्सा कर मुझे स्वस्थ बनाने आया है ।’

बोला बिहसि महा अभिमानी ।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ।। (५।२३।२)

तुलसीदास जी ने अहंकार को अत्यन्त दु:ख देने वाला डमरुआ (गलगण्ड, घेंघा) रोग के समान माना है । जिस प्रकार घेंघा रोग हो जाने पर व्यक्ति गला ऊंचा करके चलता है; उसी प्रकार अहंकारी व्यक्ति अपने झूठे अहं में सिर ऊंचा करके अकड़ कर चलता है । रावण का अंहकार का रोग इतना अधिक बढ़ गया था कि हनुमान जी की हितकारी सीख (दवा) भी उसे अच्छी नहीं लगती है ।

हनुमान जी समझ गए कि रावण जैसा व्यक्ति स्वस्थ होने की स्थिति में नहीं है । इसे कुपथ्य ही भा रहा है; इसलिए अब इसकी मृत्यु निश्चित है ।

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