shiv parvati vivah

राजाधिराज कुबेर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की धन-सम्पदा के स्वामी होने के साथ देवताओं के भी धनाध्यक्ष (भण्डारी, treasurer) हैं । संसार के गुप्त या प्रकट जितने भी वैभव हैं, उन सबके अधिष्ठाता देव कुबेर हैं । कुबेर नव- निधियों के भी स्वामी हैं । एक निधि भी अनन्त वैभव प्रदान करने वाली होती है; किन्तु कुबेर नव-निधियों के स्वामी हैं । 

पादकल्प में कुबेर विश्रवा मुनि व इडविडा के पुत्र हुए । इनकी दीर्घकालीन तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें लोकपाल का पद, अक्षय निधियों का स्वामी, पुष्पक विमान व देवता का पद प्रदान किया । कुबेर ने अपने पिता विश्रवामुनि से कहा कि ब्रह्मा जी ने मुझे सब कुछ प्रदान कर दिया; परन्तु मेरे निवास के लिए कोई स्थान नहीं दिया है । इस पर इनके पिता ने दक्षिण समुद्र तट पर त्रिकूट पर्वत पर स्थित लंका नगरी कुबेर को प्रदान की

कुबेर ने कई जन्मों तक भगवान शंकर की पूजा-आराधना की । पादकल्प में जब ये विश्रवा मुनि के पुत्र हुए तब इन्होंने भगवान शंकर की विशेष आराधना की । भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर इन्हें उत्तर दिशा का आधिपत्य, अलकापुरी का राज्य, चैत्ररथ नामक दिव्य वन और एक दिव्य सभा प्रदान की । माता पार्वती की इन पर विशेष कृपा थी। भगवान शंकर ने कुबेर से कहा—‘तुमने अपने तप से मुझे जीत लिया है, अत: मेरा मित्र बनकर यहीं अलकापुरी में रहो ।’ इस प्रकार कुबेर भगवान शिव के भी घनिष्ठ मित्र हैं । 

एक बार कुबेर ने भगवान शंकर के पास जाकर कहा—‘मैं आपकी कोई सेवा करना चाहता हूं, मुझे कोई सेवा बताएं ।’

भगवान शंकर ने कहा—‘मेरे हृदय में तो श्रीराम बसते हैं, वही मेरा धन हैं । मुझे किसी वस्तु या सेवा की आवश्यकता नहीं है ।’

भगवान शंकर के मना करने पर कुबेर भण्डारी प्रतिदिन माता पार्वती से विनती करते—‘मां ! मेरी आप दोनों की सेवा करने की बहुत इच्छा है, कोई सेवा बताओ ।’

एक बार भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी भगवान शंकर और माता पार्वती से मिलने कैलाश पर्वत पर आए । ठंड के कारण लक्ष्मी जी ठिठुरने लगीं । सर्दी से बचने के लिए उन्हें पूरे कैलास पर्वत पर कोई स्थान नहीं मिला । तब लक्ष्मी जी ने माता पार्वती से पूछा—‘आप इस पर्वत पर कैसे जीवन व्यतीत करती हैं ?’ इसके बाद माता पार्वती ने वैकुण्ठ धाम की यात्रा की, वहां के वैभव को देखकर पार्वती जी ने ठान लिया कि वे भी अपने और शंकर जी के लिए ऐसा ही महल निर्मित कराएंगी । अपनी इच्छा को उन्होने भगवान शिव के सम्मुख रखा; परंतु भगवान शंकर तो विरागी ठहरे, वे कुछ नहीं बोले ।

एक दिन माता पार्वती ने कुबेर से कहा—‘तुम्हारे पास बहुत संपत्ति है तो सोने का राजमहल (लंका)  बनवा दो । मैं शंकर जी को मना कर उसमें ले आऊंगी ।’

कुबेर को बहुत प्रसन्नता हुई कि मेरी संपत्ति का उपयोग शिव-सेवा में होगा, मेरे द्वारा बनवाए गए राजमहल में भगवान शंकर माता पार्वती सहित विराजेगे । कुबेर ने अपनी सारी संपत्ति लगा कर देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा से सोने का राजमहल बनवा दिया । जिसे देख कर सभी देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ । 

भगवान शंकर ब्रह्म हैं तो माता पार्वती ब्रह्मविद्या हैं । ब्रह्म ब्रह्मविद्या के अधीन रहता है । भगवान शंकर को पार्वती जी अति प्रिय हैं । पार्वती जी जो कहती हैं, वही शंकर जी करते हैं । 

माता पार्वती ने शंकर जी से कहा—‘कुबेर ने बहुत परिश्रम और प्रेम से सोने का राजमहल बनवाया है, थोड़े दिन यदि हम वहां रहें तो इसमें क्या हर्ज है ? आप तो स्वयं आनंदस्वरूप हैं, आपको श्मशान में भी आनंद है, पेड़ की छाया में भी आनंद है, तो क्या राजमहल में आपको आनंद नहीं होगा ?’

भगवान शंकर ने कहा—‘कुबेर ने राजमहल तो अच्छा बनवाया है; किंतु उसने अभी वास्तु-पूजा नहीं की है । वास्तु-पूजा किए बिना वहां हम कैसे रहेंगे ?’

शंकर जी और पार्वती जी अभी ये सब बात कर ही रहे थे; उसी समय वहां रावण भगवान शंकर के पूजन के लिए आया । शंकर जी जानते थे कि रावण प्रकाण्ड विद्वान है; फिर भी उन्होंने रावण से पूछा—‘वास्तु-पूजन कराना है, तुम्हें वैदिक मंत्रों का ज्ञान है ?’

रावण के ‘हां’ कहने पर भगवान शंकर यजमान बने और रावण पुरोहित बन गया और सोने के राजमहल का वास्तु-पूजन सानंद सम्पन्न हुआ । रावण बड़ा लोभी था । सोने का राजमहल देख कर उसकी नीयत बिगड़ गई और वह मन में सोचने लगा कि किसी तरह यह राजमहल मुझे मिल जाए ।

पूजन के बाद भगवान शंकर ने रावण से कहा—‘पुरोहित जी ! आपको जो उचित लगे, वह दक्षिणा मांग लो ।’

रावण ने कहा—‘मैं जो मांगू वो आप मुझे देंगे ?’

भगवान शंकर ने कहा—मेरा नियम है कि मैं किसी से ‘ना’ नहीं कहता हूँ ।’

रावण ने कहा—‘महाराज ! यह जो सोने का राजमहल है, जिसका वास्तु-पूजन मैंने करवाया है, उसे आप दक्षिणा में मुझे दे दें ।’

यह सुन कर भगवान शंकर ने पार्वती जी से कहा—‘ब्राह्मण है, मांग रहा है । मांगना मरने के समान होता है । हम लोग सोने के राजमहल में रहें या कहीं और, क्या फर्क पड़ता है ? कोई गरीब राजमहल में रह कर सुखी होता है तो हम उसको देख कर ही सुखी हो जाएंगे ।’ 

भगवान शिव याचक (मांगने वाले) के लिए कल्पवृक्ष हैं । जैसे कल्पवृक्ष अपनी छाया में आए हुए व्यक्ति को अभीष्ट वस्तु प्रदान करता है, वैसे ही शिव के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं लौटता, वे उपासकों के समस्त अभाव दूर कर देते हैं और देते-देते अघाते भी नहीं हैं । औघड़दानी शिव के दान को देखकर लक्ष्मी जी ईर्ष्या करती है कि जो वस्तुएं वैकुण्ठ में भी दुर्लभ हैं, वे शंकर जी इन कंगालों को बांट रहे हैं ।

शंकर जी ने रावण से कहा—‘चलो तुम्हें राजमहल दिया ।’ 

पार्वती जी को यह बात ठीक नहीं लगी । उन्होंने रावण को शाप देते हुए कहा—‘जिस सोने की लंका को तुमने दान में मांग लिया है, वह एक दिन जलकर भस्म हो जाएगी ।’ और सच में हनुमान जी ने सोने की लंका को जला कर भस्म कर दिया ।

सोने का राजमहल मिलने के बाद रावण की नीयत और बिगड़ गई । वह मन-ही-मन कहने लगा—‘ये तो बड़े भोले हैं, जो मांगों सो दे देते हैं ।’

रावण ने शंकर जी से कहा—‘महाराज ! दूसरा जो कुछ मांगूं, सो आप देंगे ?’

शंकर जी के ‘हां’ कहने पर रावण ने कहा—‘ये पार्वती बहुत सुंदर हैं, इन्हें आप मुझे दे दो ।’

शंकर जी ने मुसकराते हुए कहा—‘मुझे तो विवाह करने की इच्छा ही नहीं थी, मैंने तो कामदेव को ही भस्म कर दिया था । भगवान नारायण की इच्छावश मैंने लग्न कर लिया था । तुझे पार्वती बहुत अच्छी लगती हैं तो तू ले जा ।’

भगवान शंकर के समान ऐसा उदार दानी कहां मिलेगा ? ऐसा दानी जो वरदान देकर स्वयं संकट में पड़ जाए । शिवजी ने प्रकृति के सारे नियम ही पलट दिए । 

पार्वती जी को भी आश्चर्य हुआ कि मेरे पति भी कितने सरल हैं, जो उन्होंने मेरा ही दान कर दिया । ब्रह्मविद्या पार्वती को लेकर जब रावण चलने लगा तो वे सहायता के लिए भगवान श्रीहरि का ध्यान करने लगीं । रावण जैसे कपटी से निपटने के लिए श्रीहरि (श्रीकृष्ण) ही उपयुक्त हैं; क्योंकि वो भी बड़े छलिया हैं । कपटियों से कैसे निपटा जाता है, वे अच्छी तरह से जानते हैं ?

रावण को मार्ग में एक ग्वाला मिला । ग्वाले ने रावण को वंदन करके पूछा—‘आप तो बड़े वीर पुरुष हैं, किसी से हारे ही नहीं हैं; फिर ये किसको ले जा रहे हैं ?’

अहंकारी रावण अपनी प्रशंसा से फूल गया और कहने लगा—‘शंकर जी ने मुझे सोने की लंका और ये ब्रह्मविद्या पार्वती दी है । इस पार्वती को पाकर मैं अमर हो जाऊंगा ।’

ग्वाले ने हंसते हुए कहा—‘यह पार्वती नहीं है, यह उनकी दासी होगी । शंकर जी तुम्हें अपनी पार्वती कैसे दे देंगे ? पार्वती जी की दासी देकर तुम्हें बहला दिया है । ब्रह्मविद्या माता पार्वती के श्रीअंग से तो कमल की गंध निकलती है; क्योंकि उनके अंग में मल-मूत्र, रुधिर-मांस नहीं है । तुम परीक्षा करो, यदि कमल की गंध न आए तो समझ लेना कि ये पार्वती जी की दासी हैं ।’

पार्वती जी ने अपने श्रीअंग से तीव्र दुर्गंध प्रकट कर दी । रावण की बुद्धि भ्रमित हो गई । उसने कहा—‘इनमें से कमल की सुगंध तो नहीं आ रही है, दुर्गंध आ रही है ।’

ग्वाले के वेश में श्रीहरि ने कहा—‘तब तो यह पार्वती की दासी है । वे पार्वती तुम्हें कैसे दे देंगे ? मैंने सुना है कि पार्वती जी को शंकर जी ने पाताल में रख दिया है । तुम इन्हें छोड़ दो ।’

रावण ग्वाले की बातों में आ गया और पार्वती जी को छोड़ करके चला गया । तब भगवान श्रीहरि ने वहां पार्वती जी की पूजा और स्थापना की ।

दक्षिण भारत में गोकर्ण महाबलेश्वर नामक स्थान है, जहां पर द्वैपायनी जगदम्बा पार्वती जी का मंदिर है ।

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