bhagwan krishna kanhaiya kunti

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था । धर्मराज युधिष्ठिर सिंहासन पर आरुढ़ हो चुके थे । अश्वत्थामा ने पाण्डवों का वंश नष्ट करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया; किंतु श्रीकृष्ण ने पाण्डवों की और उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की भी उससे रक्षा कर दी । अब श्रीकृष्ण द्वारका जाना चाहते थे । 

कुन्ती जी ने जब यह सुना कि श्रीकृष्ण द्वारका जा रहे हैं, तो उन्हें भगवान का वियोग सहन न हुआ । वे चाहती थीं कि श्रीकृष्ण मेरी आंखों से दूर न जाएं, मैं सदैव उनका दर्शन करती रहूँ ।

भक्ति का बीज तब फलता है जब भगवान के वियोग में दु:ख होता है

भगवान श्रीकृष्ण का रथ जिस मार्ग से जाना था, कुन्ती जी उस मार्ग पर हाथ जोड़ कर खड़ी हो गईं । वृद्धावस्था है, श्रीकृष्ण-वियोग की आशंका से आंखों से झर-झर आंसू बह रहे हैं । भगवान श्रीकृष्ण का रथ उस मार्ग से गुजरता है । कुन्ती जी को देख कर श्रीकृष्ण रथ से उतर कर उनके पास आते हैं ।

इस समय कुन्ती जी का हृदय पिघला हुआ है । वे श्रीकृष्ण के पास आकर वंदन करने लगी—

नमस्ते पुरुषं त्वाऽऽद्यमीश्वरं प्रकृते: परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम् ।। (श्रीमद्भागवत १।८।१८)

अर्थात्—हे प्रकृति से परे आदिपुरुष परमेश्वर आप दिखते नहीं पर सभी भूतों (प्राणियों) के बाहर और भीतर आप ही हैं ।

नम: पंकजनाभाय नम: पंकजमालिने ।
नम पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजांघ्रये ।। (श्रीमद्भागवत १।८।२२)

अर्थात्—जिसकी नाभि से कमल पैदा हुआ, जो कमल की माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमल के समान हैं जिनके चरणों में कमल का चिह्न है, ऐसे आपको बारम्बार नमस्कार है ।

वैष्णव ‘वंदन’ से ही भगवान को बंधन में डालते हैं और उन्हें वश में करते हैं

कुन्ती जी के वंदन करने पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘यह क्या करती हो बुआ ? मैं तो आपके भाई वसुदेव जी का पुत्र हूँ ।’ 

श्रीकृष्ण के दादा शूरसेन जी ने अपनी पुत्री पृथा को अपनी बुआ के नि:संतान पुत्र कुन्तिभोज को दत्तक रूप में दिया था, जहां उनका नाम कुन्ती हुआ; इसलिए महारानी कुन्ती भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं । 

कुन्ती जी बोलीं—‘आज तक मैं ऐसा ही मानती थी कि आप मेरे भाई के पुत्र हैं; परंतु आज मुझे ज्ञान हुआ कि आप किसी के पुत्र नहीं हैं, वरन् सभी के पिता है । दु:शासन द्वारा साड़ी खींचने पर मेरी द्रौपदी की लाज आपने रखी । पांडवों को लाक्षागृह में जलने से आपने बचाया । दुर्वासा के कोप से पांडवों की रक्षा आपने की । उत्तरा के गर्भस्थ शिशु को जीवनदान आपने दिया । प्रभो हमारे जीवन में बार बार विपत्ति आती रहीं; परन्तु आपने हमें हर विपत्ति से उबार लिया । आपके एक-एक उपकार मुझे याद हैं । अब हमें राज्य मिल गया है, सुख के दिन आ गए हैं; पर आप जाना चाहते हैं । हे देवकीनंदन !  आपकी कृपा से ही पांडव सुखी हुए हैं । आपसे ही हमारे घर की शोभा है ।’

कुन्ती जी ने श्रीकृष्ण से बड़ी अद्भुत प्रार्थना की । अपनी प्रार्थना में उन्होंने श्रीकृष्ण से ऐसी चीज मांगी, जो संसार में कोई विरला ही मांगने का साहस कर सकता है । उन्होंने श्रीकृष्ण से मांगा—

कुन्ती जी की स्तुति

विपद: सन्तु न: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्याद पुनर्भवदर्शनम् ।।
जन्मैश्वर्य श्रुतश्रीभिरेधमानमद: पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिंचनगोचरम् ।।
नमोऽकिंचनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नम: ।। (श्रीमद्भागवत १।८।२५-२७)

अर्थात्—

‘जगद्गुरो श्रीकृष्ण ! हम लोगों के जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियां आती रहें; क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन होने पर फिर पुनर्जन्म का चक्र मिट जाता है । ऊंचे कुल में जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्ति के कारण जिसका मद बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगों को दर्शन देते हैं, जो अकिंचन (वे निर्धन जिनके पास कुछ भी अपना नहीं है) हैं । आप अकिंचनों के परम धन हैं । आप माया के प्रपंच से सर्वथा निवृत्त हैं, नित्य आत्माराम और परम शान्तस्वरूप हैं । आप ही कैवल्य मोक्ष के अधिपति हैं । मैं आपको बारम्बार नमस्कार करती हूँ ।’

यह कुन्ती जी का अपना अनुभव था; क्योंकि उनका जीवन विपत्तियो में ही बीता । अब उनके पुत्रों को निष्कण्टक राज्य मिल चुका था; इसलिए उन्हें लगा कि विपत्ति रूपी निधि अब उनके हाथ से चली गई है । यही कारण था कि वे श्रीकृष्ण से विपत्तियों का वरदान मांग रही थीं । इस विपत्ति में भी उन्हें सुख था । 

उनका मानना था–’भगवान का विस्मरण होना ही विपत्ति है और उनका स्मरण बना रहे, यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है ।’  उन्हें भगवान श्रीकृष्ण का कभी विस्मरण हुआ ही नहीं, अत: वे सदा सुख में ही रहीं ।

विपत्तियां भगवान का वरदान हैं; क्योंकि दु:खी व्यक्ति के चित्त और मुख में ही भगवान निरन्तर निवास करते हैं; इस बात को वे भली-भांति अनुभव कर चुकी थीं । 

सुख के माथे सिल परो, जो नाम हृदय से जाय ।
बलिहारी वा दु:ख की जो पल पल नाम रटाय ।। (कबीर)

दु:खी मनुष्य के जीवन का प्रत्येक क्षण धन्य होता है जिसमें भगवान का नाम मुख व चित्त में समाया रहता है ।

ईश्वर जिसको तारना चाहते हैं उसको विशेष कष्ट की अग्नि में तपा कर शुद्ध और निर्मल बना देते हैं; इसलिए भक्त विपत्ति से डरते नहीं, बल्कि उसका स्वागता करते हैं । भक्ति सौदे की वस्तु नहीं बल्कि स्वेच्छा से होने वाले आत्मसमर्पण का चिह्न है । भक्त की केवल यही इच्छा रहती है कि उनका मन सदैव भगवान में लीन रहे ।

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