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भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को ‘कलंक चतुर्थी’ भी कहते है; इस दिन चन्द्रदर्शन निषेध है । इस दिन चन्द्रमा के दर्शन से झूठा कलंक, चोरी और व्यभिचार का पाप लगता है । 

एक बार श्रीकृष्ण ने नारद जी से कहा–’हे देवर्षि ! मुझे अकारणवश बार-बार दोष लग रहा है । मुझे चिन्तामुक्त कीजिए ।’

नारद जी ने कहा–’हे देव ! आप पर जो स्यमन्तक मणि चुराने का कलंक लगा है, उसका कारण मैं जानता हूँ । आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रमा के दर्शन किए हैं; इसीलिए आपको बार-बार कलंकित होना पड़ रहा है । स्वयं गणेश जी ने सबसे सुन्दर रूप पर घमण्ड करने वाले चन्द्रमा को शाप दिया है कि आज के दिन जो लोग तुम्हारा दर्शन करेंगे, उन्हें व्यर्थ ही समाज में निन्दा सहन करनी पड़ेगी ।’ 

इसीलिए यह कहावत मशहूर हो गई—‘तजऊ चौथ के चंद्र की नाई’ अर्थात् जिस प्रकार भाद्रपद शुक्ल का चंद्रमा कोई नहीं देखता; वैसे ही कुसंग को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग देना चाहिए ।

जब भगवान श्रीकृष्ण को पाने के लिए चंद्रावली सखी ने किए चौथ के चंद्रमा के दर्शन

ब्रज-सखी चंद्रावली भाद्रपद शुक्ल की चौथ को हाथ में पूजा का थाल लेकर चंद्रमा के पूजन-दर्शन के लिए छत पर गई और चंद्रमा को अर्घ्य देते हुए बोली—‘हे चंद्रदेवता ! हमारे ऊपर कृपा करो ।’

नारद जी ने जब चंद्रावली सखी को चौथ की रात्रि में चंद्रदर्शन करते हुए देखा तो उससे कहा—‘अरी बाबरी ! ये क्या कर रही है । तुझे व्यर्थ में ही कलंक लग जाएगा ।’

चंद्रावली सखी ने मुसकराते हुए कहा—‘देवर्षि ! मैं तो यही चाहती हूँ कि मुझ पर भी कलंक लगे । ब्रज में सब सखियों का आदर होता है कि श्रीकृष्ण उन पर मुग्ध हैं, लट्टू हो गए हैं । वे उनके पीछे-पीछे घूमते हैं । किसी पर कंकड़ी फेंकते हैं और किसी को कदम्ब के नीचे आने को कहते हैं—‘कदम्ब तरे आ जइयो, कंटीरे काजर वारी । श्रीकृष्णप्रेम की अधिकारिणी बनने के कारण वे सब सखियां अद्वितीया बन गईं हैं; इसीलिए लोगों के द्वारा कुलमर्यादाहीन कहे जाने पर वे ललकार कर कहती हैं–

कोऊ कहै कुलटा कुलीन-अकुलीन कोऊ,
रीति-नीति जग से बनाये सब न्यारी हों ।
गौर वर्ण अपनो ही तनिको न नीको लगै,
अंग-अंग रोम-रोम श्याम रंग धारी हों ।।
नेति-नेति वेद नित जिसका गायन करें,
उसके ही चरणों में तन-मन वारी हों ।
हौं तो हम निपट लबारी और गंवारी किन्तु,
केसव की लीलाओं पर सर्बस हारी हों ।।

चाहे संसार हमें कुलटा कहे, कुलीन या अकुलीन कहे, हमारी रीति-नीति जग से न्यारी है । अब हमें अपना गौर वर्ण ही नहीं सुहाता; क्योंकि हमारे रोम-रोम में तो श्याम-रंग बस गया है । वेद जिसका ‘नेति-नेति’ अर्थात् ‘प्राप्त नहीं किया जा सकता’ कह कर गायन करते हैं; उन्हीं श्रीकृष्ण के चरणों में हमारा तन-मन न्यौछावर हो गया है । हम तो निपट गंवार हैं; लेकिन श्रीकृष्ण की लीलाओं पर अपना सर्वस्व हार बैठी हैं ।

चंद्रावली सखी दु:खी मन से नारद जी से कहती है—‘ब्रज में सब सखियों में मेरी बदनामी इसलिए हो रही है कि श्रीकृष्ण मेरी ओर तिरछी नजर से भी नहीं देखते हैं । ऐसे में यदि मेरे पर उनके साथ का झूठा कलंक लग जाएगा तो मुझे भी अभिमान होगा और मैं गांव में छाती ठोक कर कहती फिरुंगी कि देखो, मैं भी कुछ हूँ । श्रीकृष्ण मुझसे भी प्रेम करते हैं ।’

चंद्रावली सखी में जितनी कोमलता थी, उससे भी अधिक तितिक्षा (त्याग) था । भगवान की ये सखी-शक्तियां (गोपियां) इसलिए अवतीर्ण हुईं थीं कि संसार में भूले हुए जीव यह बात सीखें कि भगवान के साथ प्रेम कैसे किया जाता है ?

इस तरह का गोपी-प्रेम श्रीकृष्ण की लीलाभूमि ब्रज के सिवा और कहीं नहीं देखने को मिलता है । ऐसा प्रेम केवल गोपियां ही कर सकती हैं और मनमोहन श्रीकृष्ण के प्रति ही किया जा सकता है । यह गोपी-प्रेम बड़ा ही पवित्र है, इसमें अपना सर्वस्व अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में न्यौछावर कर देना पड़ता है । कलंक या नरक के भय का इस प्रेम में कोई स्थान नहीं है ।

एक बार एक जिज्ञासु ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा—’क्या वृन्दावन के बिना, क्या व्रजांगनाओं के बिना रह सकते हो ?’ 

श्रीकृष्ण भावविह्वल हो गए और बोले–’नहीं ! यह मैं सुन भी नहीं सकता । रहने की तो बात अलग है । जो मेरे गोपीजन हैं, वे तो केवल मुझे चाहते हैं । उनका मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है । उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ । मेरे लिए उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियों को छोड़ दिया है । उन्होंने बुद्धि से भी मुझको ही अपना प्यारा, अपना प्रियतम–नहीं, नहीं अपना आत्मा मान रखा है ।’

स्वयं भगवान जिनकी बड़ाई करते हों, उनकी महिमा का वर्णन कोई क्या करेगा ?

मोहन बसि गयो मेरे मन में।
लोकलाज कुलकानि छूटि गयी, याकी नेह लगनमें ।।
जित देखो तित वह ही दीखै, घर बाहर आँगनमें ।
अंग-अंग प्रति रोम-रोम में, छाइ रह्यो तन-मनमें ।।
कुण्डल झलक कपोलन सोहै, बाजूबन्द भुजनमें ।।
कंकन कलित ललित बनमाला, नूपुर-धुनि चरननमें ।।
चपल नैन भ्रकुटि वर बाँकी, ठाढ़ो सघन लतनमें ।
‘नारायन’ बिन मोल बिकी हौं, याकी नेक हसनमें ।।