bhagwan shri krishna with bansuri

लीला-पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक लीला संसार को किसी-न-किसी ज्ञान से अवगत कराती है । ऐसी एक लीला है जिसमें भगवान ने अपनी प्राप्ति के दो साधनों से संसार को अवगत कराया है—१. भगवान के विरह में बहाए गए आंसू और २. शरणागति ।

महारानी सत्यभामा द्वारा भगवान श्रीकृष्ण का तुलादान

एक बार द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण के पावन जन्मदिवस पर उनकी पटरानी सत्यभामा जी ने तुलादान करने का संकल्प किया । सत्यभामा जी की इच्छा थी कि वे अपने स्वर्ण-आभूषणों से अपने प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण का तोलन करें । सत्यभामा जी सत्राजित् की पुत्री थीं । सत्राजित् को भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर ‘स्यमन्तक मणि’ प्रदान की थी, जो नित्य बहुत सारा सोना प्रदान करती थी; इसलिए सत्यभामा जी के पास स्वर्ण, मणियों व रत्नों का अपार भंडार था ।

इस उत्सव को देखने के लिए द्वारका के राजमहल में चारों ओर उत्साह और उमंगें हिलोरें ले रहीं थीं । शुभ-मुहुर्त में सत्यभामा जी ने भगवान श्रीकृष्ण के नीलमणि के समान कमनीय शरीर पर स्वयं केसर-कपूर मिश्रित अंगराग का लेपन किया और पवित्र जल से उन्हें स्नान करा कर सुंदर वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित किया । 

राजमहल के प्रागंण में चांदी की तुला मंगाई गई । श्रीकृष्ण तुला के एक पलड़े पर इस प्रकार शोभायमान हो रहे थे मानो साक्षात् तप का ही मूर्तिमान रूप तुला के पलड़े पर विराजमान हो । दूसरे पलड़े पर सत्यभामा जी ने अपने स्वर्ण-आभूषणों को रख दिया; लेकिन तुला का वह पलड़ा हल्का ही रहा । 

धीरे-धीरे सत्यभामा जी ने अपना समस्त स्वर्ण-भंडार तुला के पलड़े पर रखा; किंतु पलड़ा जरा भी नीचे नहीं आया । अंत में सत्यभामा जी के रत्न, मणियों और स्वर्ण के समस्त भंडार समाप्त हो गए । सारी पेटियां खाली होकर उन पर मानो हंस रहीं थीं; लेकिन श्रीकृष्ण का पलड़ा भारी ही रहा, जरा भी टस-से-मस न हुआ । 

सत्यभामा जी बहुत घबरा गईं, मानो जीवन के इस संग्राम में उनकी भयानक पराजय हुई हो; क्योंकि महल की सब रानियां व दासियां ये सब तमाशा देख रहीं थीं ।

लेकिन श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्करा रहे थे । श्रीकृष्ण की मुसकान में सत्यभामा जी को व्यंग्य का रंग नजर आया । निराश होकर सत्यभामा जी ने रुक्मिणी जी की ओर सहयता की नजरों से देखते हुए कहा—‘जीजी ! अब क्या होगा ? मेरा तो सारा गर्व चूर हो गया, मेरे पास तो अब कुछ भी नहीं रह गया । तुम्हीं कोई युक्ति निकालो ।’

रुक्मिणी जी ने सहानुभूतिपूर्वक कहा—‘तुम मेरे आभूषण ले लो; परंतु मुझे विश्वास नहीं होता कि हमारे प्राणधन श्रीकृष्ण स्वर्ण-आभूषणों और मणि-रत्नों में तुल जाएंगें । मैं एक उपाय करती हूँ ।’

रुक्मिणी जी अंदर गईं और कुछ देर बाद हाथ में एक पात्र और एक छोटा सा रेशमी रुमाल लेकर लौट आईं । उन्होंने दोनों चीजों को तुला के दूसरे पलड़े पर रख दिया ।

आश्चर्य ! श्रीकृष्ण वाला पलड़ा ऊपर उठ गया । वहां उपस्थित सभी लोग देखते ही रह गए । श्रीकृष्ण तुल गए । सत्यभामा जी का संकल्प पूरा हुआ । दोनों पटरानियों की खुशी का ठिकाना न रहा । 

अहंकार दूर हुआ और विनय जीत गई

सत्यभामा जी ने रुक्मिणी जी को छाती से लगाते हुए पूछा—‘जीजी ! आपने यह कौन-सा त्रोटक कर दिया ? इस पात्र और कपड़े में क्या कोई जादू था, या कोई विशेष मंत्र लिखा था ?’

श्रीकृष्ण ने रुमाल खोल कर देखा । उसमें बस इतना ही लिखा था—‘मैं तुम्हारी हूँ, बस तुम्हारी हूँ ।’

श्रीकृष्ण मंद-मंद मुसकराते हुए पुन: पूछते है—‘प्रिये ! इस पात्र में तुमने क्या भर रखा है, जिसके भार के सामने मुझे हल्का होना पड़ा ।’

रुक्मिणी जी सकुचाते हुए बोली—‘इसमें मेरे आंसू भरे हैं ।’

‘आंसू’ ! आश्चर्य से सत्यभामा जी के नेत्र विस्फारित हो गए ।

रुक्मिणी जी ने लजाते हुए कहा—‘हां सखी ! जब कभी प्रियतम श्रीकृष्ण की याद में मेरे आंसू झर पड़ते थे तो मैं उन्हें उनका उपहार मान कर संजो कर रख लेती थी ।’

‘तुम धन्य हो जीजी ।’ बस इतना कह कर सत्यभामा जी ने अपना मस्तक श्रीकृष्ण के चरणों में रख दिया ।

भगवान के लिए बहाए गए आसुंओं का महत्व

भगवान को पाने के लिए जिनकी आंखों से अश्रुपात होता है, उन आंसुओं की एक-एक बूंद की किसी चीज से तुलना नहीं की जा सकती है । अपने आराध्य के प्रति प्रेम की मात्रा जब हृदय में बढ़ जाती है, तब वह संभाले नहीं संभलती है । जिस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु श्रीकृष्ण के विरह में उन्मत्त होकर दोनों भुजाएं उठाकर रोने और चीखने लगते थे कि—

‘कांहां जाऊं कांहां पाऊं मोर प्राणधन, कांहां वृजेन्द्रनन्दन’ (अर्थात् कहां जाऊं, अपने प्राणधन कृष्ण को कहां पाऊँ, कहां है मेरा व्रजेन्द्रनंदन); उस समय पत्थर का हृदय भी पिघल जाता था । उनकी आंखों से ऐसा अश्रुप्रवाह चलता था, मानो पिचकारी छूट रही हो । १८ वर्षों तक महाप्रभु जी ने नेत्रों से इतनी जलधारा बहाई कि जगन्नाथ मन्दिर में गरुड़-स्तम्भ के पास का कुण्ड, जहां खड़े होकर वे दर्शन करते थे, अश्रुजल से भर जाता था । अंत में प्रेम से कृष्ण-नाम लेते हुए वे तदाकार हो गए ।

भक्ति में आंसुओं का बड़ा महत्व है । भगवान का सच्चा भक्त उनको पाकर उतना संतुष्ट नहीं होता, जितना उनके वियोग में आंसू बहा कर होता है—

जिस पर तुम हो रीझते, क्या देते यदुबीर ।
रोना-धोना सिसकना, आहों की जागीर ।।

ऐसे भक्तों के लिए भगवान भी भला कैसे निष्ठुर हो सकते हैं? वे तो अपने प्रेमियों की आंखों के आंसु देखने के लिए उसके पास में ही छिपे-छिपे रहते हैं; परंतु अपने होने का अहसास वे उसे होने नहीं देते हैं ।

दूसरी बात भगवान को ‘शरणागत भाव’ ही प्यारा है । मनुष्य यदि समर्पित हृदय से उन करुणासागर भगवान से केवल एक बार कह दे कि ‘हे नाथ ! मैं तुम्हारा हूँ’—वह भगवान को बहुत प्यारा लगता है । जो मनुष्य संसार से विमुख होकर भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं चाहता है, उसके उद्धार की सम्पूर्ण जिम्मेदारी भगवान पर ही आ जाती है । भगवान स्वयं उसके योगक्षेम का वहन करते हैं । केवट बन कर उसकी नैया को भीषण संसार-सागर से पार करा कर सुरक्षित अपने धाम में पहुंचा देते हैं । उसे किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । 

इस बात का आश्वासन भगवान ने गीता में दिया है—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। (९।२२)