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नन्दीश्वर जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में  ‘नन्दी’ भी कहा जाता है, भगवान शंकर के गणों में मुख्य हैं । सभी शिव-मंदिरों में शिवलिंग के सामने इनकी प्रतिमा स्थापित होती है ।

नन्दी के दो रूप देखने को मिलते हैं—

पहला, गण के रूप में ये मनुष्य के रूप में रहते हैं; किंतु इनका मुख बंदर की आकृति लिए हुए होता है ।

दूसरा, जब ये भगवान शंकर के वाहन के रूप में होते हैं, तब इनका रूप बैल (वृषभ) का हो जाता है । इन्हें धर्म का अवतार माना जाता है । भगवान शंकर को ये इतने प्रिय हैं कि उनकी ध्वजा में इनकी आकृति होती है । इन्हीं के नाम पर भगवान शंकर ‘वृषभध्वज’ और ‘वृषकेतु’ नाम से जाने जाते हैं ।

नन्दीश्वर कैसे बने भगवान शंकर के अति प्रिय गण ?

शिलाद मुनि ने एक अयोनिज व मृत्युहीन पुत्र की प्राप्ति के लिए कठोर तप किया । देवराज इंद्र ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा । जब मुनि ने एक अयोनिज व मृत्युहीन पुत्र देने का वर मांगा तो इंद्र ने ऐसा वर देने में अपनी असमर्थता बताते हुए कहा—‘यदि आप अयोनिज  व मृत्युहीन पुत्र चाहते हो तो आपकी इच्छा केवल भगवान शंकर पूरा कर सकते हैं ।’

देवराज इंद्र की बात मान कर शिलाद मुनि भगवान शंकर की घोर तपस्या करने लगे । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें वर देते हुए कहा—‘मैं ही तुम्हारे यहां नन्दीश्वर नाम से अयोनिज रूप में प्रकट होऊंगा ।‘

कुछ दिन बाद शिलाद मुनि अपनी कुटिया के बाहर यज्ञ कुण्ड के लिए भूमि खोद रहे थे । उसी समय उस भूमि से एक ज्योतिर्मय, चतुर्भुज, जटामुकुट व त्रिशूलधारी पुरुष प्रकट हुआ । उसके दूसरे हाथों में गदा और घंटा थे । शिलाद मुनि ने उनका नाम ‘नन्दी’ रखा । कृटिया में प्रवेश करते ही नन्दीश्वर ने मानव रूप धारण कर लिया । पांच वर्ष की आयु में नन्दी ने वेद-वेदांग का अध्ययन कर लिया ।

एक दिन शिलाद मुनि के आश्रम में उनके मित्र वरुण और मित्र मुनि आए । बालक नन्दी को देख कर उन्होंने कहा—‘तुम्हारा पुत्र अद्भुत है; किंतु इसकी आयु केवल एक वर्ष शेष है ।’

यह सुन कर शिलाद मुनि विलाप करने लगे । पिता को रोता देखकर नन्दी ने कहा—‘मेरी मृत्यु नहीं हो सकती । मनुष्य, देव, यक्ष, काल, असुर मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते । आप शोक न करें ।’

शिलाद मुनि ने पूछा—‘तुम किसके बल पर मृत्यु को टालोगे ?’

बालक नन्दी ने उत्तर दिया—‘भगवान शिव मृत्युंजय हैं । मैं उनके चरणों का आश्रय लेकर मृत्यु पर विजय प्राप्त करुंगा । आप मुझे इसके लिए प्रयास करने की आज्ञा दें ।’

पिता की आज्ञा लेकर नन्दी वन में चले गए और दिन-रात भगवान शंकर के ‘मृत्युंजय मंत्र’ का जाप करने लगे । उनका चित्त अखण्ड रूप से भगवान शंकर में लगा हुआ था । उनके घोर तप से प्रसन्न होकर भगवान शंकर-पार्वती प्रकट हो गए । 

भगवान शंकर ने नन्दी से कहा—‘वत्स ! तुम्हें मृत्यु-भय कहां है ? तुम तो मेरे ही रूप हो । तुम मेरे प्रिय रहोगे । तुम सदैव अजर-अमर, दु:खरहित और मेरे समान बलशाली रहोगे ।’

भगवान शंकर ने कमल की बनी हुई अपनी शिरोमाला नन्दी के गले में डाल दी । माला के गले में पड़ते ही नन्दी शिव के समान त्रिनेत्र और दशभुज हो गए । 

भगवान शंकर ने अपनी जटा के जल से नन्दी का अभिषेक किया और पार्वती जी की ओर देख कर कहा—‘आज से यह नन्दीश्वर मेरे समस्त गणों का प्रमुख हुआ । गणों के प्रमुख पद पर मैंने इसका अभिषेक किया है ।’

पार्वती जी ने भगवान शंकर से कहा—‘यह गणेश्वर मुझे प्रदान करें । आज से यह मेरा प्रिय पुत्र होगा ।’

भगवान शंकर ने एवमस्तु’ कह दिया ।

भगवान शंकर ने नन्दी को नित्य अपने समीप रहने का वर देते हुए कहा—‘नन्दीश्वर ! तुम अपने पिता और पितामह के साथ सदा मेरे प्रिय, विशिष्ट, परम ऐश्वर्य से युक्त, महाधनुर्धर, अजेय व सदा पूज्य होओगे । जहां मैं रहूंगा, वहां तुम रहोगे और जहां तुम रहोगे, वहां मैं भी रहूंगा ।’

साथ ही उनके पिता शिलाद मुनि को भी भगवान शंकर ने अपना गणाध्यक्ष नियुक्त कर दिया  ।

यही कारण है कि सभी शिव मंदिरों में शिवलिंग के सामने नन्दी की प्रतिमा विराजमान होती है ।

जब नन्दीश्वर ने दिया रावण को शाप

एक बार राक्षसराज रावण कुबेर से छीने हुए पुष्पक विमान में बैठकर कैलास पर्वत पर गया । वहां पर नन्दीश्वर पहरे पर थे । रावण अपने पराक्रम की डींगें मारने लगा । 

नन्दी ने कहा–’तुम और मैं दोनों शिव के उपासक हैं; इसलिए तुम्हारा डींगें मारना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है । पराक्रम तो हमारे आराध्य का प्रसाद है ।’

रावण बोला–’तुम मेरे समान शिव के आराधक नहीं हो; क्योंकि तुम्हारा मुख मेरे समान न होकर वानर समान है ।’

नन्दी ने कहा–’भगवान शंकर तो मुझे अपने जैसा रूप प्रदान कर रहे थे; परन्तु मैंने यह सोच कर कि सेवक का स्वामी के समकक्ष होना उचित नहीं है, वानर का मुख मांग लिया । इससे अपने में अभिमान नहीं आता है । अभिमानी, दम्भी, परिग्रही व्यक्ति भगवान शंकर की कृपा प्राप्त नहीं कर सकता ।’

रावण बोला–’तुम्हें वानर मुख क्या मिला, तुम्हारी बुद्धि भी वानर बुद्धि हो गई है । मैं बुद्धिमान हूँ, मैंने भगवान शिव से दस मुख मांगे हैं । अधिक मुखों से शिवजी की अद्भुत स्तुति की जा सकती हैं । तुम्हारे इस वानर के समान मुख से क्या होगा ?’

रावण की उपहासपूर्ण बातें सुनकर नन्दी ने उसे शाप देते हुए कहा–’सारे संसार को रुलाने वाले रावण ! मैं तुझे श्राप देता हूँ कि जब कोई तपस्वी श्रेष्ठ मानव वानरों के साथ मुझे आगे करके तुम पर आक्रमण करेगा, तब तुम्हारी मृत्यु निश्चित है । तुम्हारे ये सब सिर भूमि पर कट-कट कर धूल धूसरित हो जाएंगे ।’ 

नन्दी की बात सुनकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए ।