kedarnath bhagwan shiv dhaam mandir

प्राय: सभी शिव-मन्दिरों में हमें नन्दी, कछुआ, गणेश, हनुमान, जलधारा आदि विभिन्न प्रतीकों के दर्शन होते हैं । शिवालय के इन प्रतीकों में बड़ा ही सूक्ष्म-भाव छिपा है ।

नन्दी

सभी शिव-मन्दिरों में प्रवेश करते ही सबसे पहले नन्दी के दर्शन होते हैं । यह सामान्य बैल नहीं है, भगवान धर्म ही नन्दी वृषभ के रूप में शिव के वाहन बन गए हैं । यह ब्रह्मचर्य का प्रतीक है । जैसे नन्दी  शिव का वाहन है; वैसे ही हमारी आत्मा का वाहन शरीर है । अत: शिव को आत्मा का एवं नन्दी को शरीर का प्रतीक माना जा सकता है । 

नन्दी की दृष्टि सदा शिव की ओर ही क्यों होती है ?

शिव का अर्थ है कल्याण । नन्दी की तरह हमारी दृष्टि भी शिवमय होनी चाहिए अर्थात् सभी के कल्याण की भावना मन में धारण कर शिव-भाव से ओत-प्रोत रहें—यही सच्ची शिव पूजा है । शरीर के शिवमय होने से मनुष्य का आचार-विचार शुद्ध और पवित्र होगा; तभी उसके मन में दैवीय भावनाएं धर्म, दया, करुणा व परोपकार उत्पन्न होंगे । नन्दी के माध्यम से यही शिक्षा दी गई है।

कछुआ

शिवालय में जाने पर नन्दी के बाद हमें कछुए के दर्शन होते हैं । कछुआ मन को दर्शाता है अर्थात् हमारा मन कछुए जैसा कवचधारी सुदृढ़ बनना चाहिए । जैसे कछुआ सदैव शिव की ओर ही गतिशील है, नन्दी की तरफ नहीं और स्वयं को अपने-आप में समेट लेता है; वैसे ही हमारा मन भी आत्माभिमुख (अपनी आत्मा में मग्न रहना) और शिवमय बनें; ‘चिदानन्दरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्’ अर्थात् शरीर से संसार के कर्म करते रहें पर मन में यही अनुभव करें—‘मैं शिव के समान अमर हूँ, ज्ञानवान और आनन्दस्वरूप हूँ ।’

गणेश 

जब मनुष्य के कर्म व मानसिक चिन्तन दोनों शिव की ओर बढ़ रहे हैं, तब उनमें शिवरूपी आत्मा को प्राप्त करने (शिवोऽहम्) की योग्यता आई है या नहीं, इसकी परख के लिए द्वार पर दो द्वारपाल खड़े हैं–गणेश और हनुमान । 

गणेशजी बताते हैं बुद्धि एवं समृद्धि का सदुपयोग करना । गणेशजी के हाथों में अंकुश आत्मनियन्त्रण व संयम का प्रतीक है । कमल निर्लेपता व पवित्रता का, पुस्तक उच्च विचारधारा की व मोदक मधुर स्वभाव का प्रतीक है । वे मूषक जैसे तुच्छ जीव को भी अपनाते हैं ।  मनुष्य में ऐसे गुण आने पर ही उसे शिव के दर्शन की योग्यता प्राप्त होती है ।

हनुमान

हनुमानजी संयमी एवं विश्वहित के लिए सदैव सेवापरायण रहे हैं । ब्रह्मचर्य ही इनका जीवन है । यही कारण है कि वे श्रीराम के प्रिय सेवक के रूप में सदैव उनके साथ हैं । महाभारत के युद्ध में वे अर्जुन के रथ पर विराजित रहे हैं । ऐसे गुणों को अपनाने से ही व्यक्ति शिव की कृपा का पात्र बनता है । गणेश और हनुमान की परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर ही साधक को शिव के समान विश्व का कल्याण करमे वाली आत्मा की प्राप्ति हो सकती है ।

प्रवेशद्वार कुछ छोटा

इतनी कठिन परीक्षा में विजय मिलने पर साधक को अहंकार आ जाता है । इसीलिए शिव-मन्दिर में प्रवेशद्वार की सीढ़ी भूमि से कुछ ऊंची व प्रवेशद्वार भी कुछ छोटा होता है । ताकि साधक अत्यन्त विनम्रता व सावधानी से सिर झुकाकर अन्तिम प्रवेशद्वार को पार करके गर्भगृह में कदम रखे; अर्थात् अहंकार का तिमिर (अंधेरा)  नष्ट होने पर ही उसे शिवलिंग के दर्शन होते हैं । 

शिवलिंग

शिव-मन्दिर में जो शिवलिंग है, उसे आत्मलिंग या ब्रह्मलिंग कहते हैं । वह विश्व के कल्याण में निमग्न आत्मा है जो हिमालय के समान शान्त है ।  शिवलिंग यदि आत्मा है तो उनके साथ छाया की तरह स्थित पार्वती उनकी शक्ति हैं ।

भगवान शिव के विभिन्न प्रतीकों का गूढ़ अर्थ

भगवान शिव के विभिन्न प्रतीकों—त्रिनेत्र, त्रिशूल, मुण्डमाला, कपाल, भस्म, जलधारा, नाग आदि का भी गूढ़ रहस्य है—

शिव के त्रिनेत्र, तीनों कालों—भूत, भविष्य और वर्तमान ज्ञान के बोधक हैं । तीनों नेत्र सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि-स्वरूप होने से शिव ‘त्र्यम्बकेश्वर’ कहलाते हैं । 

शिव के त्रिपुण्ड, त्रिशूल और तीन दल वाला बिल्वपत्र, सत्-रज और तम इन तीनों गुणों को सम करने के लिए हैं ।

भगवान शिव द्वारा धारण किए जाने वाले कपाल व कमण्डलु संतोषी, तपस्वी व अपरिग्रही जीवन के प्रतीक हैं । 

भगवान शिव समन्वय के प्रतीक हैं। उनके लिए अच्छा-बुरा सब समान है । कोई भी वस्तु उनके लिए अप्रिय नहीं है। श्मशान और राजमहलों का निवास उनके लिए समान है । चंदन और चिताभस्म दोनों को ही वे सहज रूप में स्वीकार करते हैं । भस्म या चिताभस्मलेप शिव के ज्ञान-वैराग्य और विनाशशील विश्व में अविनाशी (भस्म) के वरण का संकेत देता है । 

सर्वलोकाधिपति होकर भी भगवान शंकर ने विभूति और व्याघ्रचर्म को ही अपना भूषन-बसन बनाकर संसार में वैराग्य को ही श्रेष्ठ बतलाया है ।

शिव का मुण्डमाल प्राणी को सदैव मृत्यु का स्मरण कराता है; जिससे वह दुष्कर्मों से दूर रहे । 

शिव के मस्तक पर चन्द्रकला धारण करने का कारण है कि उनके ललाट की ऊष्मा, जो त्रिलोकी को भस्म करने में सक्षम हैं, उन्हें पीड़ित न करे, इसीलिए उन्होंने अपने सिर पर गंगा और चन्द्र दोनों को धारण कर रखा है । भगवान शिव श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं, इसलिए श्रीहरि के चरणों से निकली गंगा (विष्णुपदी) को उन्होंने अपने जटाजूट में बांध लिया और ‘गंगाधर’ कहलाए ।

डमरू-निनाद आत्मानन्द की आनन्दानुभूति का प्रतीक है । यह योगसाधना में भीतरी अनाहत नाद का संकेत है जिसे ‘नाद ब्रह्म’ कहते हैं । 

काला नाग चिर समाधि-भाव का प्रतीक है । 

शिवलिंग पर जल चढ़ाने का अभिप्राय है परमतत्त्व में अपने प्राण मिला देना क्योंकि शिव का अर्थ जल भी होता है और जल का अर्थ प्राण भी होता है ।

विश्व के कल्याण के लिए हलाहल को पी लेना एवं संसार के कोलाहल से दूर रहकर मृदंग, शृंग, घण्टा, डमरू के निनाद में मग्न रहना यानि अपनी आत्मा, ब्रह्म में स्थित रहना ही शंकर की समाधि है । कितने आश्चर्य की बात है कि कालकूट हलाहल विष का पानकर वे अजर-अमर और अविनाशी बन गए लेकिन देवता लोग जिन्होंने समुद्र-मंथन से उत्पन्न अमृत का पान किया, वे सर्वथा के लिए अजर-अमर नहीं हुए ।

शिव पर अविरत टपकने वाली जलधारा जटा में स्थित गंगा का प्रतीक है, यह ज्ञानगंगा, दिव्य बुद्धि, गायत्री है, जो ब्रह्माण्ड से अवतरित चेतना है । शिव-मन्दिर की जलधारा उत्तर दिशा को बहती है । उत्तर दिशा में ध्रुव तारा ऊंचे स्थिर लक्ष्य का प्रतीक है । अत: शिव साधक की आत्मा सदा ऊंचे स्थिर लक्ष्य की ओर ही गति करती है । 

भगवान शिव के विभिन्न प्रतीकों से यही शिक्षा मिलती है कि जैसे शिव ने जगत के कल्याण के लिए हलाहल तक का पान कर लिया; वैसे ही हम परिवार व देश की एकता को बनाए रखने के लिए त्याग, क्षमा व सहनशीलता के गुण अपने अंदर विकसित करें । भौतिक वस्तुओं, स्वार्थ व परिवार के मोह से ऊपर उठकर समाज के प्रति उत्तरदायी बनें ।  स्वार्थ को त्याग कर सबके साथ अच्छा  व्यवहार करें ।

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