bhagwan shiv lotus pooja

प्राचीन संहिताओं में महर्षि लोमश का नाम बड़े ही आदर से लिया जाता है । वे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की बात जानने वाले हैं ।

त्रिलोकी में कल्पकल्पान्त तक जीवित रहने वाले महर्षि लोमश

महर्षि लोमश तीनों लोकों में सबसे अधिक चिरायु (अत्यंत दीर्घजीवी) हैं । वे सनकादि और वशिष्ठ आदि ऋषियों से भी अवस्था में बड़े हैं । इनके जीवन में न जाने कितने ब्रह्मा हुए और चले गए; इसलिए ये ‘कल्पकल्पांतजीवी’ कहलाते हैं । इनके पूरे शरीर में लोम—रोम-ही-रोम हैं; इसलिए ये ‘लोमश’ के नाम से जाने जाते हैं । कल्प के अंत में जब ब्रह्माजी का लय होता है, तब इनका एक रोम गिरता है । 

महर्षि लोमश पूर्वजन्म में क्या थे और किन संस्कारों से उन्हें इतना दीर्घजीवन (चिरायु) प्राप्त हुआ, क्या यह किसी दान का फल था या तपस्या का ? यही इस ब्लॉग में बताया गया है ।

महामुनि लोमश का पूर्व-जन्म

प्राचीन काल में एक अत्यंत गरीब शूद्र व्यक्ति था । उसका कोई घर-द्वार नहीं था । वह भूख से व्याकुल होकर इधर-उधर भटकता रहता था । एक दिन ऐसे ही दोपहर में घूमते हुए वह एक सरोवर के निकट पहुंचा । उस सरोवर के मध्य में एक शिव मंदिर था और सरोवर खिले हुए कमल के पुष्पों से भरा था ।

यदि मनुष्य का प्रारब्ध अच्छा होता है तो उसकी भगवान शिव में भक्ति जाग्रत हो जाती है और उसको सब साधन भी प्राप्त हो जाते हैं । प्रारब्धवश उस दरिद्र की भी शिव-भक्ति जाग्रत हो गई और उसे पूजा की सामग्री भी अनायास ही उसे प्राप्त हो गई । 

किसी अदृश्य प्रेरणा वश उस व्यक्ति ने सरोवर में जल पीकर स्नान किया । फिर कमल-पत्र में शीतल जल भर कर शिवलिंग को स्नान कराया और कमलपुष्पों से पूजा कर भगवान को साष्टांग प्रणाम कर शुद्ध हृदय से दु:खों से मुक्ति की प्रार्थना की ।

सूर्य प्रचण्ड तेज से तप रहा था । उसकी आंतें भूख से कुलबुला रही थीं । भोजन की खोज में वह आगे चल दिया; किन्तु थोड़ी ही देर बाद उसकी मृत्यु हो गई । उस शूद्र व्यक्ति ने अपने अंतिम समय में शिवलिंग का पूजन किया था; इसलिए अगले जन्म में वह एक ब्राह्मण के घर पैदा हुआ । शिवलिंग को नहलाने और कमल-पुष्प के पूजन के फलस्वरूप उसे अपने पिछले जन्म की स्मृति शेष थी । 

उसके पिता ने भी भगवान शंकर की कठिन आराधना करके वृद्धावस्था में उसे पुत्र रूप में पाया था; इसलिए वे बालक को बहुत प्रेम करते थे और उसका नाम उन्होंने ‘ईशान’ रखा । बाल्यकाल में ही उसका विवेक जाग्रत हो गया था । वह हर क्षण यही सोचता कि—सत्य प्रतीत होने वाला यह संसार कितना मिथ्या और दु:खमय है । मनुष्य अपने अज्ञान के कारण ही इसे सत्य मान कर इसमें फंसा हुआ है ।

इस सत्य को जानकर वह गूंगा होने का नाटक करने लगा । माता-पिता ने पुत्र-मोह के कारण उसके गूंगेपन का बहुत उपचार कराया । वे अनेक प्रकार के मंत्र-तंत्र और दूसरे उपाय भी किया करते थे; किन्तु कोई बीमारी होती तो ठीक होती, बालक तो जानबूझ कर गूंगा बना बैठा था । बालक माता-पिता की मूढ़ता देख कर मन-ही-मन हंसा करता था ।

जब वह कुछ बड़ा हुआ तो रात्रि में जब सब सो जाते तो वह चुपचाप उठकर घर से बाहर निकल जाता और कमल-पुष्पों से शिवलिंग का पूजन कर घर वापिस आकर सो जाता । उसने अपनी यह बात सभी लोगों से छिपा रखी थी । मन-वचन और कर्म से भगवान शिव की आराधना करता हुआ वह अन्न न खाकर केवल फलाहार ही करता था ।

कुछ समय बाद बालक के पिता की मृत्यु हो गई । सगे-सम्बन्धियों ने उसे गूंगा समझ कर घर से निकाल दिया । लेकिन वह तो बहुत प्रसन्न था क्योंकि वह तो यही चाहता था । अब वह वन में जाकर रहने लगा और कंद-मूल, फल व पत्ते खाकर अपना जीवन-निर्वाह करने लगा । उसका अब एक ही उद्देश्य था कि ज्यादा-से-ज्यादा कमल-पुष्पों को एकत्र कर शिवलिंग पर चढ़ाना ।

इस प्रकार सौ वर्ष बीत गए । उसकी इस पूजा-आराधना से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान शिव प्रकट हो गए । उन्होंने ईशान से वरदान मांगने को कहा । 

ईशान ने भगवान शिव से कहा—‘प्रभो ! मुझे जरा और मृत्यु से मुक्त कर दीजिए ।’

भगवान शिव ने कहा—‘जो पैदा हुआ है व नाम और रूप धारण करता है, वह मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है । अत: तुम अपने जीवन की कोई सीमा निश्चित कर लो ।’

कुछ सोचने के बाद ईशान ने कहा—‘यदि आप मुझे अजर-अमर न भी करें तो कृपा कर यह वर दीजिए कि प्रत्येक कल्प के अंत में इस शरीर का एक रोम टूट कर गिर जाए । जब मेरे सब रोम गिर जाएं, तब मेरी मृत्यु हो । मृत्यु के बाद मैं आपके गणों में शामिल हो जाऊँ ।’

भगवान शिव ‘तथाऽस्तु’ कह कर अन्तर्ध्यान हो गए । ईशान ही महामुनि लोमश के नाम से जाने जाते हैं । बड़े-बड़े रोम होने के कारण वे ‘लोमश’ कहलाते हैं । तभी से महर्षि लोमश तपस्या में संलग्न हैं और भगवान शिव की आराधना किया करते हैं । जब कल्प का अंत होता है, अर्थात् ब्रह्माजी का एक दिन व्यतीत होता है, तब लोमशजी के बाएं घुटने के ऊपर का एक रोम गिर पड़ता है । ऐसा माना जाता है कि अभी उनके बाएं घुटने के बीच का भाग ही रोम-रहित हुआ है ।

भगवान शिव के वरदान से दिव्य शरीर प्राप्त होने पर लोमशजी को कहीं भी इच्छानुसार जाने की शक्ति, पूर्वजन्मों का ज्ञान और कालज्ञान प्राप्त हो गया । उनके द्वारा रचित ‘लोमशसंहिता’ ज्योतिष के होरास्कन्ध से सम्बद्ध है ।

महामुनि लोमश का कहना है—‘भगवान शिव के भक्त के लिए त्रिलोकी में कुछ भी दुर्लभ नहीं । जिनकी इच्छा से यह संपूर्ण विश्व उत्पन्न होता, स्थिर रहता और अंत में संहार को प्राप्त होता है, उन भगवान शिव की आराधना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है । पंचमहाभूत—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश—ये सब भगवान शिव की पूजा के उपकरण हैं ।’

महर्षि लोमश की रहनी-करनी देती है सच्ची साधुता का उपदेश

महर्षि लोमश का दीर्घजीवन लोक-कल्याण के लिए समर्पित है । उनके उपदेश बड़े ही काम के हैं और उनकी रहनी-करनी सच्ची साधुता का संदेश देती है । इस सम्बन्ध में एक रोचक प्रसंग है—

एक बार देवराज इन्द्र को अपने पद का अभिमान हो गया । उन्होंने अपने ऐश्वर्य के प्रदर्शन के लिए देवशिल्पी विश्वकर्मा से विशाल महल का निर्माण कराया । सौ वर्ष व्यतीत हो गए, लेकिन महल का निर्माण कार्य पूरा नहीं हुआ ।

उन्हीं दिनों एक महामुनि जो ज्ञान व अवस्था में सबसे बड़े थे, सारा शरीर रोम से भरा था, सिर पर चटाई रखे वहां आए । मुनि को देखकर इन्द्र ने उनका नाम, पता, आने का उद्देश्य और मस्तक पर चटाई रखने का कारण पूछा ।

लोमशजी ने इन्द्र का अभिमान दूर करने के लिए कहा—‘एक दिन सभी को मरना है, फिर इस अनित्य संसार में रहने वाले मनुष्यों द्वारा किसके लिए घर बनाया जाए । आयु बहुत थोड़ी होने के कारण मैंने अपने लिए न तो घर बनाया और न ही विवाह किया । भिक्षा से ही जीवन-निर्वाह करता हूँ । मेरे सिर पर जो चटाई है, वह वर्षा और धूप से रक्षा के लिए है । असंख्य ब्रह्मा मेरे देखते-देखते आए और गए । मैं तो निरंतर श्रीहरि के चरणों में ही ध्यान लगाए रहता हूँ । सारा ऐश्वर्य स्वप्न के समान है । भक्ति मुक्ति से भी बढ़कर है ।’

इन्द्र का विवेक जाग्रत कर महर्षि लोमश अपने गुरु भगवान शंकर के पास चले गए ।

शिवे भक्ति: शिवे भक्ति: शिवे भक्तिर्भवे भवे ।

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।।अर्थात्–’प्रत्येक जन्म में मेरी शिव में भक्ति हो, शिव में भक्ति हो, शिव में भक्ति हो । शिव के सिवा दूसरा कोई मुझे शरण देने वाला नहीं । महादेव ! आप ही मेरे लिए शरणदाता हैं ।’

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