kaashi mandir

‘काशी’ इस शब्द का अर्थ है—जहां शिवस्वरूप ब्रह्मज्योति प्रकाशित होती है । काशी में भगवान शिव का साम्राज्य है और काशी की अधीश्वरी देवी हैं अन्नपूर्णा । पंचकोशी काशी का अविमुक्त क्षेत्र ज्योतिर्लिंग स्वरूप स्वयं भगवान विश्वनाथ हैं । ब्रह्माजी ने भगवान की आज्ञा से ब्रह्माण्ड की रचना की । तब दयालु शिव जी ने विचार किया कि कर्म-बंधन में बंधे हुए प्राणी मुझे किस प्रकार प्राप्त करेंगे ? इसलिए शिव जी ने काशी को ब्रह्माण्ड से पृथक् रखा और भगवान विश्वनाथ ने समस्त लोकों के कल्याण के लिए काशीपुरी में निवास किया । 

‘काशी तो काशी है, काशी अविनाशी है’ 

काशी को स्वयं भगवान शिव ने ‘अविनाशी’ और ‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा है । ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ स्वरूप होने के कारण प्रलयकाल में भी काशी नष्ट नहीं होती है; क्योंकि प्रलय के समय जैसे-जैसे एकार्णव का जल बढ़ता है, वैसे-वैसे इस क्षेत्र को भगवान शंकर अपने त्रिशूल पर उठाते जाते हैं । 

स्कंद पुराण के अनुसार काशी नगरी का स्वरूप सतयुग में त्रिशूल के आकार का, त्रेता में चक्र के आकार का, द्वापर में रथ के आकार का तथा कलियुग में शंख के आकार का होता है ।

संसार की सबसे प्राचीन नगरी है काशी

काशी को संसार की सबसे प्राचीन नगरी कहा जाता है; क्योंकि वेदों में भी इसका कई जगह उल्लेख है । पौराणिक मान्यता के अनुसार पहले यह भगवान माधव की पुरी थी, जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरने से वह स्थान ‘बिंदु सरोवर’ बन गया और भगवान यहा ‘बिंदुमाधव’ के नाम से प्रतिष्ठित हुए । 

एक बार भगवान शंकर ने ब्रह्माजी का पांचवा सिर अपने नाखूनों से काट दिया । तब वह कटा सिर शंकर जी के हाथ से चिपक गया । वे १२ वर्षों तक बदरिकाश्रम, कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों में घूमते रहे, परंतु वह सिर उनके हाथ से अलग नहीं हुआ । ब्रह्मदेव का सिर काटने से ब्रह्महत्या स्त्री रूप धारण करके उनका पीछा करने लगी । 

अंत में जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और स्नान करते ही उनके हाथ से चिपका हुआ कपाल भी अलग हो गया । जिस स्थान पर वह कपाल छूटा, वह ‘कपालमोचन तीर्थ’ कहलाया । तब शंकर जी ने भगवान विष्णु से प्रार्थना करके उस पुरी को अपने नित्य निवास के लिए मांग लिया ।

इस सम्बन्ध में एक पौराणिक प्रसंग है—

राजा मनु के वंश में उत्पन्न सम्राट दिवोदास ने गंगा तट पर वाराणसी नगर बसाया । एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को यह अच्छा नहीं लगता कि वे सदा पति के साथ पिता के घर (हिमालय) में रहें । अत: पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने हिमालय छोड़ कर किसी सिद्ध क्षेत्र में बसने का निर्णय किया । उन्हें वाराणसी नगरी अच्छी लगी । 

शंकर जी ने अपने निकुम्भ नामक गण को वाराणसी नगरी को निर्जन करने का आदेश दिया । निकुम्भ ने वैसा ही किया । नगर निर्जन हो जाने पर भगवान शंकर अपने गणों के साथ वहां आकर निवास करने लगे । भगवान शंकर के साथ रहने की इच्छा से देवता तथा नाग भी वहां आकर रहने लगे ।

सम्राट दिवोदास अपनी वाराणसी नगरी छिन जाने से बहुत दु:खी हुए । उन्होंने तपस्या करके ब्रह्माजी से यह वर मांगा कि ‘देवता अपने दिव्य लोक में रहें और नाग पाताल लोक में रहें । पृथ्वी मनुष्यों के लिए रहे ।’ ब्रह्माजी ने ‘तथाऽस्तु’ कह दिया । इसका परिणाम यह हुआ कि शंकर जी सहित सभी देवताओं को वाराणसी छोड़ देना पड़ी । किंतु भगवान शंकर ने यहां ‘विश्वेश्वर’ रूप से निवास किया और दूसरे देवता भी श्रीविग्रह रूप में स्थित हुए ।

भगवान शंकर काशी छोड़ कर मंदराचल चले तो गए; किंतु उन्हें अपनी यह पुरी बहुत प्रिय थी । वे यहीं रहना चाहते थे । उन्होंने राजा दिवोदास के शासन में दोष ढूंढ़ कर उनको वाराणसी से निकालने के लिए चौंसठ योगिनियाँ भेजी । वे योगिनियां बारह मास तक काशी में रह कर राजा और उनके शासन में दोष निकालने का प्रयत्न करती रहीं, परंतु सफल नहीं हुईं । राजा ने उन्हें एक घाट पर स्थापित कर दिया । 

शंकर जी ने सोचा सूर्य ‘लोकचक्षु’ कहलाते हैं अर्थात् वे समस्त संसार की आंखें है, उनसे कुछ भी छिपा नहीं है । अत: राजा दिवोदास के राज्य में दोष ढ़ूंढ़ने के कार्य के लिए उन्होंने सूर्यदेव को भेजा; किंतु वाराणसी पुरी का वैभव देख कर सूर्यदेव चंचल (लोल) बन गए और अपने बारह रूपों में यहीं बस गए । 

ये बारह सूर्यों के नाम इस प्रकार हैं—१. लोलार्क, २. उत्तरार्क, ३. साम्बादित्य, ४. द्रौपदादित्य, ५. मयूखादित्य, ६. खखोल्कादित्य, ७. अरुणादित्य, ८. वृद्धादित्य, ९. केशवादित्य, १०. विमलादित्य, ११. गंगादित्य और १२. यमादित्य ।

शंकर जी विचार करने लगे—‘अभी तक काशी से लौट कर न तो योगनियां ही आईं हैं और न ही सूर्यदेव ।  अब काशी का समाचार जानने के लिए मैं वहां किसे भेजूं ।  वहां की बातों को ठीक-ठीक जानने में ब्रह्माजी ही समर्थ हैं, अत: ब्रह्माजी को ही वहां भेजता हूँ ।’

शंकर जी के कहने पर ब्रह्माजी वाराणसी आए । उन्होंने राजा दिवोदास की सहायता से यहां दस अश्वमेध यज्ञ किए और यहीं बस गए । यह स्थान ‘दशाश्वमेध घाट’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

इसके बाद भगवान शंकर की आज्ञा से ढुण्ढिराज गणेश जी ज्योतिषी का रूप धारण कर काशी आए । उन्होंने राजा दिवोदास को उपदेश करते हुए कहा—‘आज के अठारहवें दिन कोई ब्राह्मण आकर तुम्हें उपदेश करेगा । तुमको बिना बिचारे उसके वचनों का पालन करना चाहिए । ऐसा करने से तुम्हारा सभी मनोरथ पूर्ण होगा ।’ 

जब गणेश जी भी काशी जाकर देर तक नहीं लौटे तब भगवान शंकर ने विष्णु जी की ओर देखा ।

शंकर जी की इच्छा पूर्ण करने के लिए भगवान विष्णु यहां ब्राह्मण वेश में पधारे और उन्होंने राजा दिवोदास को ज्ञानोपदेश किया । इससे वे विरक्त हो गए । 

राजा दिवोदास ने एक शिवलिंग की स्थापना की और जैसे ही स्तुति करना आरम्भ किया, आकाश से शिव-पार्षदों से घिरा हुआ एक दिव्य विमान उतरा । राजा दिवोदास विमान में बैठ कर शिव लोक चले गए । 

तब भगवान शंकर मंदराचल से आकर काशी में स्थित हो गए । 

काशी के देवता

द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक ‘भगवान विश्वनाथ’ काशी के सम्राट हैं । इन्हें मिला कर काशी में कुल ५९ मुख्य शिवलिंग हैं । १२ आदित्य हैं । ५६ विनायक हैं, ८ भैरव हैं, ९ दुर्गा हैं, १३ नृसिंह हैं, १६ केशव हैं । ५१ शक्तिपीठों में से एक ‘विशालाक्षी शक्तिपीठ’ भी काशी में है, जहां सती के दाहिने कान का कुण्डल गिरा था ।

काशी बारह नामों से जानी जाती है

१. काशी, 

२. वाराणसी (मां गंगा के तट पर वरुणा और असी नामक नदियों के बीच में स्थित होने के कारण इसे वाराणसी कहते हैं)

३. अविमुक्त क्षेत्र (भगवान शिव और पार्वती ने कभी इस क्षेत्र का त्याग नहीं किया), 

४. आनंदकानन (भगवान शिव के आनंद का कारण), 

५. महाश्मशान (यहां मणिकर्णिका घाट पर हर समय चिता जलती रहती है)

६. रुद्रावास (भगवान विश्वनाथ ने समस्त लोकों के कल्याण के लिए काशीपुरी में निवास किया है ।)

७. काशिका, 

८. तप:स्थली, 

९. मुक्ति भूमि, 

१०. मुक्ति-क्षेत्र, 

११. मुक्ति-पुरी, 

१२. श्रीशिवपुरी ।

परमेश्वर शिव का धाम काशी जीवों को मोक्ष प्रदान करने वाली, संसार के भंवर में फंसे हुए लोगों के लिए नौका के समान, चौरासी के चक्कर में पड़े लोगों के लिए विश्रामस्थल और जीव के जन्म-जन्मांतर के कर्मबंधनों को काटने के लिए छुरे के समान है । काशी ही वह पुरी है जो मनुष्य को साक्षात् मोक्ष देती है । 

माना जाता है कि यहां देह-त्याग के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी के कान में तारक-मंत्र सुनाते हैं, उससे जीव को तत्त्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने शिवस्वरूप ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है । ब्रह्म में लीन होना ही अमृत पद प्राप्त कर लेना या मोक्ष है ।

जो गति अगम महामुनि दुर्लभ,
कहत संत, श्रुति, सकल पुरान ।
सो गति मरन-काल अपने पुर,
देत सदासिव सबहिं समान ।। (विनय पत्रिका)

इसलिए यहां कैसा भी प्राणी मरे, वह मुक्त हो जाता है । इसी आस्था के कारण देश के कोने-कोने से सहस्त्रों वर्षों से लोग देहोत्सर्ग के लिए आते रहे हैं ।

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