bhagwan vishnu sitting on sheshnaag

इस घोर कलिकाल में भगवान की भक्ति ही मनुष्य का बेड़ा पार लगाने वाली है; क्योंकि यह मनुष्य के पाप रूपी वन का नाश करने के लिए दावानल के समान मानी गई है । शर्त यह है कि भक्ति में भाव होना चाहिए । पत्थर की ही सीढ़ी और पत्थर की ही देवता की मूर्ति होती है; परन्तु एक पर हम पैर रखते हैं और दूसरे की पूजा करते हैं । 

भगवान न तो लकड़ी की मूर्ति में विराजमान हैं, न पत्थर और न मिट्टी की मूर्ति में । भगवान तो केवल भाव में ही विद्यमान हैं । भाव के द्वारा ही मानव भगवान को प्राप्त कर सकता है । अत: भाव ही में भगवान हैं अन्यथा सब बेकार है ।

भाव के अनुसार दस प्रकार की भक्ति

शास्त्रों में भक्ति के १. सात्विक, २. राजस और ३. तामस तीन भेद बताए गए हैं । फिर इन तीन प्रकार की भक्ति के प्रत्येक के १. उत्तम, २. मध्यम और ३. अधम—ये तीन और भेद बताए गए हैं । इस प्रकार कुल नौ प्रकार की भक्ति हुई । दसवीं प्रकार की सर्वोत्तम भक्ति ‘उत्तमोत्तमा परा भक्ति’ कहलाती है ।

इस प्रकार शास्त्रों में भाव के अनुसार भक्ति के ये दस प्रकार बताए गए हैं—

(१) दूसरों का विनाश करने के लिए लक्ष्मीपति भगवान विष्णु का जो भजन किया जाता है, उसे ‘अधमा तामसी भक्ति’ कहते हैं; क्योकि इसमें साधक का दुष्ट भाव छिपा रहता है ।

(२) जैसे कुलटा स्त्री मन में कपट रख कर पति की सेवा करती है; उसी प्रकार जो व्यक्ति मन में कपट बुद्धि रख कर भगवान विष्णु की भक्ति करता है, तो उसकी वह भक्ति ‘मध्यमा तामसी भक्ति’ कहलाती है ।

(३) जो दूसरों को भगवान की आराधना में तत्पर देखकर ईर्ष्या वश स्वयं भी भगवान की पूजा करता है, उसका वह कार्य ‘उत्तमा तामसी भक्ति’ माना जाता है ।

(४) जो अन्न-धन की याचना करते हुए परम श्रद्धा के साथ श्रीहरि की अर्चना करता है, उसकी वह पूजा ‘अधमा राजसी भक्ति’ मानी गई है ।

 (५) जो मनुष्य संसार में प्रसिद्धि व कीर्ति का उद्देश्य लेकर भगवान की आराधना करता है, उसकी वह पूजा ‘मध्यमा राजसी भक्ति’ कही गई है ।

(६) जो मनुष्य सालोक्य और सारूप्य मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा से श्रीहरि की अर्चना करता है, उसकी वह पूजा ‘उत्तमा राजसी भक्ति’ मानी जाती है ।

(७) जो मनुष्य अपने किए हुए पापों के नाश के लिए पूर्ण श्रद्धा के साथ भगवान विष्णु की आराधना करता है,  उसकी की हुई वह पूजा ‘अधमा सात्विकी भक्ति’ मानी गई है ।

(८) ‘यह भगवान विष्णु को प्रिय है’—ऐसा मान कर जो श्रीहरि की सेवा-पूजा करता है, उसकी वह पूजा ‘मध्यमा सात्विकी भक्ति’ मानी गई है ।

(९) ‘शास्त्र की ऐसी ही आज्ञा है, या शास्त्र में यही बताया गया है’—ऐसा मान कर जो मनुष्य दास की भांति भगवान लक्ष्मीपति की अर्चना करता है, उसकी वह भक्ति सब प्रकार की भक्तियों में श्रेष्ठ ‘उत्तमा सात्विकी भक्ति’ कही जाती है ।

(१०) जो भगवान विष्णु की थोड़ी-सी भी महिमा सुन कर प्रेम से उनके स्वरूप के ध्यान में मग्न हो जाता है, उसकी वह भक्ति ‘उत्तमोत्तमा भक्ति’ कही जाती है । 

‘मैं ही विष्णु रूप हूँ, मुझमें यह जगत स्थित है’—इस प्रकार जो मनुष्य सदा अपने को भगवान से अभिन्न समझता है और समस्त संसार को भगवान का रूप मान कर सबमें सम भाव रखता है; उसे ‘उत्तमोत्तम भक्त’ कहा जाता है ।

गीता (९।१९) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–‘मैं ही सूर्यरूप में तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण कर उसे बरसाता हूँ । मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत् और असत् भी मैं ही हूँ।’

एक ही भगवान कई रूपों में हमारे सामने आते हैं। भूख लगने पर अन्नरूप में, प्यास लगने पर जलरूप में, रोग में औषधिरूप से, गर्मी में छायारूप में तो सर्दी में वस्त्ररूप में परमात्मा ही हमें प्राप्त होते हैं । परमात्मा ने जहां श्रीराम, कृष्ण आदि सुन्दर रूप धारण किए तो वहीं वराह (सूअर), कच्छप, मीन आदि रूप धारण कर भी लीला की । भगवान कभी पुष्प या सुन्दरता के रूप में आते हैं तो कहीं मांस-हड्डियां पड़ी हों, दुर्गन्ध आ रही हो, वह भी भगवान का ही रूप है । मृत्यु के रूप में भी भगवान ही आते है ।

अत: जो हमारे मन को सुहाए वह भी भगवान का रूप है और जो नहीं सुहाये, वह भी भगवान का रूप है । जो मन को नहीं सुहाता उसमें भगवान को देखना अत्यन्त कठिन है परन्तु उसके प्रति भी भगवद्भाव आ जाए तो यह भक्त बनने की निशानी है और गीता में कहा गया है कि ऐसे महात्मा दुर्लभ होते हैं ।

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