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‘कृष्ण’ नाम से बढ़ कर त्रिलोकी में न दूसरा कोई नाम हुआ और न होगा । ‘कृष्ण’ नाम सभी नामों से परे है । श्रीगर्गाचार्य जी ने श्रीकृष्ण का नामकरण करते समय नन्दबाबा को बताया कि–

सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग–इन चार युगों में परमात्मा ने शुक्ल (श्वेत), रक्त (लाल), पीत (पीला) तथा कृष्ण कान्ति ग्रहण की है । द्वापर के अंत और कलियुग के प्रारम्भ में यह बालक (श्रीकृष्ण) ‘कृष्ण’ (श्याम) अंगकान्ति को प्राप्त हुआ है; इस कारण से यह नंदनन्दन ‘कृष्ण’ नाम से प्रसिद्ध होगा ।

सब देवताओं के तेज की राशि हैं श्रीकृष्ण

‘कृष्ण’ नाम की कई व्याख्याएं मिलती हैं जो यह दर्शाती है कि श्रीकृष्ण में सब देवताओं का तेज समाया हुआ है । जैसे—

▪️ ‘कृष्ण:’ पद में जो ‘ककार’ है, वह ब्रह्मा का वाचक है । ‘ऋकार’ अनन्त (शेषनाग) का वाचक है । ‘षकार’ शिव का और ‘णकार’ धर्म का बोध कराता है । अन्त में जो ‘अकार’ है, वह श्वेतद्वीपनिवासी विष्णु का वाचक है । विसर्ग नर-नारायण को दर्शाते हैं । ये श्रीकृष्ण सब देवताओं के तेज की राशि हैं । कृष्ण परिपूर्णतम ब्रह्म हैं; इसलिए ‘कृष्ण’ कहे गए हैं ।

‘कृष्ण’ नाम की एक अन्य व्याखा—

▪️ ‘क’ का अर्थ है–कमलाकान्त; ‘ऋ’कार का अर्थ है–राम; ‘ष’ छहों ऐश्वर्यों के स्वामी श्वेतद्वीपनिवासी भगवान विष्णु का वाचक है । ‘ण’ नरसिंह का प्रतीक है और ‘अकार’ अग्निरूप से हविष्य के भोक्ता का और विसर्ग बिन्दु (:) नर-नारायण के बोधक हैं । ये छहों पूर्ण तत्त्व जिस महामन्त्र रूपी शब्द में लीन है उसे ही ‘कृष्ण’ कहा गया है । 

परब्रह्म परमात्मा है कृष्ण

‘कृष्’ का अर्थ है सब और ‘ण’ का अर्थ है आत्मा । वे परमब्रह्म परमात्मा सबके आत्मा हैं; इसलिए उनका नाम ‘कृष्ण’ है ।

‘कृष्’ शब्द सर्व का वाचक है सब और ‘ण’ कार आदिवाचक है । वे परमेश्वर सबके आदिपुरुष हैं; इसलिए कृष्ण कहे गये हैं ।

‘कृष्’ शब्द निर्वाण का वाचक है और ‘ण’ कार मोक्ष का बोधक है । श्रीकृष्ण निर्वाण मोक्ष प्रदान करने वाले हैं;  इसलिए कृष्ण कहे गये हैं ।

महापातकों का नाशक ‘कृष्ण’ नाम

‘कृष्ण’ ऐसा मंगलकारी नाम है, जिसकी जिह्वा पर विद्यमान रहता है उसके करोड़ों महापातक तुरंत ही भस्म हो जाते हैं; क्योंकि—

‘कृष्’ शब्द का अर्थ है भक्तों के जन्म-जन्मांतर के पाप व क्लेश तथा ‘ण’ का अर्थ होता है नाश करना । अत: जो भक्तों के जन्म-जन्मांतर के पाप और क्लेशों को भस्म कर देता है, वह ‘कृष्ण’ नाम है ।

भक्ति के दाता है श्रीकृष्ण

‘कृष्’ शब्द का अर्थ है निष्काम, ‘ण’ का अर्थ है भक्ति और ‘अकार’ का अर्थ है दाता । भगवान श्रीकृष्ण निष्काम भक्ति के दाता हैं; इसलिए उनका नाम कृष्ण है ।

‘कृष्’ का अर्थ है कर्मों का निर्मूलन और ‘ण’ का अर्थ है दास्यभाव और ‘अकार’ प्राप्ति का बोधक है । वे कर्मों का समूल नाश करके भक्ति की प्राप्ति कराते हैं; इसलिए कृष्ण कहे गये हैं ।

श्रीचैतन्य महाप्रभु ने अपने ग्रंथ ‘श्रीचैतन्य-चरितामृत’ में कहा है–‘सांसारिक तथा आध्यात्मिक सब प्रकार के लाभ देने में श्रीकृष्ण का नाम स्वयं श्रीकृष्ण के तुल्य है । नाम, विग्रह व स्वरूप–तीनों एक हैं; एक ही सत्ता की इन तीन दशाओं में कोई भेद नहीं है ।’

सबके मन का आकर्षण करने वाला कृष्ण नाम

’कृष्ण’ शब्द की महाभारत में व्याख्या विलक्षण है । भगवान ने इस सम्बन्ध में स्वयं कहा है–’मैं काले लोहे की बड़ी कील बनकर पृथ्वी का कर्षण करता हूँ और मेरा वर्ण भी कृष्ण (काला) है; इसीलिए मैं ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता हूँ ।

कृष्ण नाम है चिन्तामणि

भगवान श्रीकृष्ण का नाम चिन्तामणि, कल्पवृक्ष है–सब अभिलाषित फलों को देने वाला है । यह स्वयं श्रीकृष्ण है, पूर्णतम है, नित्य है, शुद्ध है, सनातन है । 

भगवान के इस ‘कृष्ण’ नाम की विलक्षण महिमा है । इस भगवन्नाम से जल में डूबता हुआ गजराज समस्त शोक से छूट गया, द्रौपदी का वस्त्र अनन्त हो गया, नरसी मेहता के सम्पूर्ण कार्य बिना किसी उद्योग के सिद्ध हो गए, मीरा के लिए विष भी अमृत समान हो गया, भक्त प्रह्लाद भी हिरण्यकशिपु द्वारा दी गई समस्त विपत्तियों से छूट गए और धधकती हुई ज्वाला भी उन्हें  भस्म नहीं कर सकी, बालक ध्रुव को अविचल पदवी प्राप्त हुई, अंतकाल में पुत्र का नाम नारायण लेने से अजामिल को भगवत्-पद की प्राप्ति हुई, नाम के प्रभाव से ही असंख्य साधकों को चमत्कारमयी सिद्धियां प्राप्त हुईं–ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो भगवान के इस ‘कृष्ण’ नाम की महिमा को दर्शाते हैं ।

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