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आदि शंकराचार्य जी द्वारा भगवान जगन्नाथ की रत्नवेदी पर पुनर्स्थापना

एक बार जगद्गुरु शंकराचार्य जी अपने आश्रम में अखण्ड आनंद-समाधि में लीन थे, सहसा उनका शरीर अपूर्व सिहरन से व मस्तिष्क नीले बादलों की-सी दिव्य प्रभा से भर गया । उनके नेत्रों में एक अलौकिक गोलाकार युगलनेत्र वाली छवि प्रकट हुई जिसे देख कर उनके नेत्रों से आनंदाश्रु बहने लगे ।

जिन्ह कें रही भावना जैसी प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी

जिसके पास जैसा भाव है, उसके लिए भगवान भी वैसे ही हैं । वे अन्तर्यामी मनुष्य के हृदय के भावों को जानते हैं। जो मनुष्य सहज रूप में अपना तन, मन, धन और बुद्धि अर्थात् सर्वस्व प्रभु पर न्योछावर कर देता है, भगवान भी उसे उसी रूप में दर्शन देकर भावविभोर कर देते हैं ।

उत्तम भक्ति किसे कहते हैं ?

एक ही भगवान कई रूपों में हमारे सामने आते हैं। भूख लगने पर अन्नरूप में, प्यास लगने पर जलरूप में, रोग में औषधिरूप से, गर्मी में छायारूप में तो सर्दी में वस्त्ररूप में परमात्मा ही हमें प्राप्त होते हैं । परमात्मा ने जहां श्रीराम, कृष्ण आदि सुन्दर रूप धारण किए तो वहीं वराह (सूअर), कच्छप, मीन आदि रूप धारण कर भी लीला की । भगवान कभी पुष्प या सुन्दरता के रूप में आते हैं तो कहीं मांस-हड्डियां पड़ी हों, दुर्गन्ध आ रही हो, वह भी भगवान का ही रूप है । मृत्यु के रूप में भी भगवान ही आते है ।

गरुड़, सुदर्शन चक्र और श्रीकृष्ण की पटरानियों का गर्व-हरण

जहां-जहां अभिमान है, वहां-वहां भगवान की विस्मृति हो जाती है । इसलिए भक्ति का पहला लक्षण है दैन्य अर्थात् अपने को सर्वथा अभावग्रस्त, अकिंचन पाना । भगवान ऐसे ही अकिंचन भक्त के कंधे पर हाथ रखे रहते हैं । भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं ।

भगवान शिव का विशेष वाद्ययंत्र : डमरु

शिव जब डमरु बजा कर ताडंव नृत्य करते हैं तो प्रकृति आनंद से भर जाती है । और संसार के दु:ख को दूर कर नई शुरुआत का संदेश देते हैं । डमरु की धुल शिथिल पड़े मन को पुन: जाग्रत कर देती है ।

काशी तो काशी है, काशी अविनाशी है

‘काशी’ इस शब्द का अर्थ है—जहां शिवस्वरूप ब्रह्मज्योति प्रकाशित होती है । माना जाता है कि यहां देह-त्याग के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी के कान में तारक-मंत्र सुनाते हैं, उससे जीव को तत्त्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने शिवस्वरूप ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है । ब्रह्म में लीन होना ही अमृत पद प्राप्त कर लेना या मोक्ष है ।

रोम रोम से श्रीकृष्ण नाम

भगवान के नाम में विलक्षण शक्ति है । जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेने पर वही आता है; ठीक उसी तरह ‘श्रीकृष्ण’ नाम का उच्चारण करने पर वह तीर की तरह लक्ष्यभेद करता हुआ सीधे भगवान के हृदय पर प्रभाव करता है; जिसके फलस्वरूप मनुष्य श्रीकृष्ण कृपा का भाजन बनता है । जहाँ कहीं और कभी भी शुद्ध हृदय से ‘कृष्ण’ नाम का उच्चारण होता है; वहाँ-वहाँ स्वयं कृष्ण अपने को व्यक्त करते हैं ।