shri krishna, krishna

पौराणिक कथाओं पर विश्वास करना यद्यपि कठिन होता है; परन्तु भक्ति हृदय की वस्तु है, तर्क की नहीं ।  उसमें श्रद्धा और विश्वास का होना अत्यंत आवश्यक है । 

इस ब्लॉग में ‘श्रीकृष्ण का अहर्निश नाम लेने वाले भक्त की क्या महिमा है ?’ इसका सुंदर प्रसंग दिया जा रहा है—

एक बार भगवती पार्वती ने भगवान शंकर से कहा–’देव ! आज किसी भक्तश्रेष्ठ का दर्शन कराने की कृपा करें ।’ 

भगवान शंकर तत्काल उठ खड़े हुए और बोले–’जीवन के वही क्षण सार्थक हैं जो भगवान के भक्तों के सांनिध्य में व्यतीत हों ।’ 

भगवान शंकर पार्वती जी को वृषभ पर बैठाकर चल दिए । पार्वती जी ने पूछा–’हम कहां जा रहे हैं ?’ 

शंकर जी ने कहा–’हस्तिनापुर चलेंगे । जिनके रथ का सारथि बनना श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया, उन महाभाग्यशाली अर्जुन के अतिरिक्त श्रेष्ठ भक्त पृथ्वी पर और कौन हो सकता है ? श्रीकृष्ण और अर्जुन—एक ही आत्मा के दो रूप हैं ।’

हस्तिनापुर में अर्जुन के भवन के द्वार पर पहुँचने पर भगवान शंकर को पता लगा कि अर्जुन सो रहे हैं । पार्वती जी को भक्त का दर्शन करने की जल्दी थी; परंतु शंकर जी अर्जुन की निद्रा में विघ्न डालना नहीं चाहते थे । उन्होंने श्रीकृष्ण का स्मरण किया । तत्काल ही श्रीकृष्ण उद्धव जी, रुक्मिणी जी और सत्यभामा जी के साथ पधारे और शंकर-पार्वती जी को प्रणाम कर उनसे आने का कारण पूछा ।

शंकर जी ने कहा–’आप भीतर जाकर अपने सखा को जगा दें, क्योंकि पार्वती जी अर्जुन के दर्शन करना चाहती हैं ।’ 

‘जैसी आज्ञा’ कहकर श्रीकृष्ण अंदर चले गए । बहुत देर हो गयी पर अंदर से कोई संदेश नहीं आया । तब शंकर जी ने ब्रह्मा जी का स्मरण किया । हंस पर बैठ कर चतुर्भुज ब्रह्मा जी वहां आए तो शंकर जी ने उन्हें अर्जुन के कक्ष में भेजा । परन्तु ब्रह्मा जी के अंदर जाने पर बहुत देर तक उनका कोई संदेश नहीं आया । शंकर जी ने नारद जी का स्मरण किया । शंकर जी की आज्ञा से नारद जी अंदर गए; किन्तु संदेश तो दूर, कक्ष से वीणा की झंकार सुनाई देने लगी । 

अब पार्वती जी से रहा नहीं गया । वे बोलीं–’यहां तो जो आता है, वहीं का हो जाता है । पता नहीं वहां क्या हो रहा है ? आइये, अब हम स्वयं चलते हैं ।’ 

पार्वती जी की बात मान कर भगवान शंकर पार्वती जी के साथ अर्जुन के कक्ष में पहुँचे ।

उधर श्रीकृष्ण जब अर्जुन के कक्ष में पहुँचे तब अर्जुन सो रहे थे और उनके सिरहाने बैठी सुभद्रा जी उन्हें पंखा झल रही थीं । अपने भाई (श्रीकृष्ण) को आया देखकर वे खड़ी हो गईं और सत्यभामा जी पंखा झलने लगीं । उद्धव जी भी पंखा झलने लगे । रुक्मिणी जी अर्जुन के पैर दबाने लगीं । तभी उद्धव जी व सत्यभामा जी चकित होकर एक-दूसरे को देखने लगे । 

श्रीकृष्ण ने पूछा–’क्या बात है ?’ 

तब उद्धव जी ने उत्तर दिया–’धन्य हैं ये कुन्तीनन्दन ! निद्रा में भी इनके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण’ की ध्वनि निकल रही है ।’ 

तभी रुक्मिणी जी बोलीं–’वह तो इनके चरणों से भी निकल रही है ।’ 

अर्जुन के शरीर से निकलती अपने नाम की ध्वनि जब श्रीकृष्ण के कान में पड़ी तो प्रेमविह्वल होकर भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन के चरण दबाने बैठ गए । भगवान श्रीकृष्ण के नवनीत से भी सुकुमार हाथों के स्पर्श से अर्जुन की निद्रा और भी प्रगाढ़ हो गयी ।

उसी समय ब्रह्मा जी ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य देखा कि भक्त सो रहा है और उसके रोम-रोम से ‘श्रीकृष्ण’ की मधुर ध्वनि निकल रही है । स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणी जी के साथ उसके चरण दबा रहे हैं । ब्रह्मा जी भावविह्वल हो गए और अपने चारों मुखों से वेद की स्तुति करने लगे । इसे देखकर देवर्षि नारद भी वीणा बजाकर संकीर्तन करने लगे । किसी को भी यह स्मरण नहीं रहा कि वे अर्जुन को जगाने इस कक्ष में आए हैं ।

भगवान शंकर व माता पार्वती जी भक्त और भगवान के इस अलौकिक दिव्य-प्रेम को देखकर प्रेम के अपार सिन्धु में निमग्न हो गए । शंकर जी का डमरू ‘डिमडिम-डिमडिम’ निनाद करने लगा और वे नृत्य करने लगे । पार्वती जी भी स्वर मिला कर हरिगुणगान करने लगीं । इस तरह सच्चे भक्त के अलौकिक दिव्य-प्रेम ने भगवान को भी भावविह्वल कर दिया ।

नाम ही जपै शून्य मन धरै,
पाँचों इन्द्रिय वश में करै ।
ब्रह्म अगिनि में होमै काया,
ताके विष्णु पखारै पाँया ।।

भगवान के नाम में विलक्षण शक्ति है । जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेने पर वही आता है; ठीक उसी तरह ‘श्रीकृष्ण’ नाम का उच्चारण करने पर वह तीर की तरह लक्ष्यभेद करता हुआ सीधे भगवान के हृदय पर प्रभाव करता है; जिसके फलस्वरूप मनुष्य श्रीकृष्ण कृपा का भाजन बनता है । जहाँ कहीं और कभी भी शुद्ध हृदय से ‘कृष्ण’ नाम का उच्चारण होता है; वहाँ-वहाँ स्वयं कृष्ण अपने को व्यक्त करते हैं । 

आज इस घोर कलिकाल में भगवान तो प्रकट हैं नहीं, जो कलयुगी मानव का उद्धार करें; परन्तु उनका नाम तो है ही । इसलिए—

साँस-साँस पर कृष्ण भज, वृथा साँस मत खोय ।
ना जाने या साँस को आवन होय, न होय ।।

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