वाल्मीकीय रामायण के अयोध्या काण्ड (१०५।१५-३१) में भगवान श्रीराम ने भरत जी को जीवन की क्षणभंगुरता बताते हुए जो उपदेश किया है, वह ‘वाल्मीकीय राम गीता’ के नाम से जाना जाता है । 

भगवान श्रीराम भरत जी से कहते हैं—

▪️‘भाई ! यह जीव ईश्वर के समान स्वतंत्र नहीं है; अत: कोई यहां अपनी इच्छानुसार कुछ नहीं कर सकता । काल इस पुरुष को इधर-उधर खींचता रहता है । समस्त संग्रहों का अंत विनाश है । लौकिक उन्नतियों का अंत पतन है । संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है ।

▪️जैसे पके हुए फलों को पतन के सिवा और किसी से भय नहीं है, उसी प्रकार उत्पन्न हुए मनुष्य को मृत्यु के सिवा और किसी से भय नहीं है । जैसे मजबूत खंभे वाला मकान भी पुराना होने पर गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जरा और मृत्यु के वश में पड़ कर नष्ट हो जाते हैं ।

▪️जो रात बीत जाती है, वह लौट कर फिर नहीं आती है । जैसे यमुना जल से भरे हुए समुद्र की ओर जाती ही है, उधर से लौटती नहीं । दिन-रात लगातार बीत रहे हैं और इस संसार में सभी प्राणियों की आयु का तीव्र गति से नाश कर रहे हैं; ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य की किरणें ग्रीष्म ऋतु में जल को तेजी से सोखती रहती हैं ।

▪️तुम अपने ही लिए चिन्ता करो, दूसरों के लिए क्यों बार-बार शोक करते हो ? कोई इस लोक में हो या कहीं और चला गया हो, हर किसी की आयु तो निरंतर क्षीण ही हो रही है । मृत्यु साथ ही चलती है, साथ ही बैठती है और बहुत बड़े मार्ग (परलोक) की यात्रा में भी साथ ही जाकर वह मनुष्य के साथ ही लौटती है । अर्थात् जिस दिन मनुष्य का जन्म होता है उसी पल से उसकी आयु घटना शुरु हो जाता है ।

▪️शरीर में झुर्रियां पड़ गईं, सिर के बाल सफेद हो गए, फिर जरावस्था (बुढ़ापे) से जीर्ण हुआ मनुष्य कौन-सा उपाय करके मृत्यु से बचने के लिए अपना प्रभाव प्रकट कर सकता है ?

▪️लोग सूर्योदय होने पर प्रसन्न होते हैं, सूर्यास्त होने पर भी खुश होते हैं; किंतु वे यह नहीं जानते कि प्रतिदिन उनके जीवन का नाश हो रहा है । किसी ऋतु का आरम्भ देख कर मानो वह नयी-नयी आई हो, जैसे पहले वह आई ही न हो—ऐसा विचार कर लोग खुशी से खिल उठते हैं; परंतु वे यह नहीं जानते कि इन ऋतुओं के परिवर्तन से प्राणियों के प्राणों (आयु) का धीरे-धीरे क्षय हो रहा है ।

▪️जैसे समुद्र में बहते हुए दो लकड़ी के टुकड़े कभी एक-दूसरे से मिल जाते हैं और कुछ समय के बाद अलग हो जाते हैं; उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब और धन भी मिल कर बिछुड़ जाते हैं; क्योंकि इनका बिछुड़ना (वियोग) अवश्यम्भावी है ।

▪️इस संसार में कोई भी प्राणी यथासमय प्राप्त होने वाले जन्म-मरण का उल्लंघन नहीं कर सकता है; इसलिए जो किसी मरे हुए व्यक्ति के लिए बारंबार शोक करता है, उसमें भी यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अपनी ही मृत्यु को टाल सके ।

▪️जैसे आगे जाते हुए यात्रियों अथवा व्यापारियों के समूह से रास्ते में खड़ा हुआ राहगीर यों कहे कि मैं भी आप लोगों के पीछे-पीछे आऊंगा और इसलिए वह उनके पीछे-पीछे जाए; उसी प्रकार हमारे पूर्वज पिता-पितामह आदि जिस मार्ग से गए हैं और जिस पर जाना अनिवार्य है तथा जिससे बचने का कोई उपाय नहीं है; उसी मार्ग पर खड़ा मनुष्य किसी और के लिए शोक कैसे करे ?

▪️जैसे नदियों का प्रवाह पीछे नहीं लौटता, उसी प्रकार दिन-दिन ढलती हुई अवस्था फिर नहीं लौटती । उसका धीरे-धीरे नाश हो रहा है—यह सोच कर आत्मा को कल्याण के साधन धर्म में लगाएं; क्योंकि सभी लोग अपना कल्याण चाहते हैं ।

▪️धीर एवं प्रज्ञावान पुरुष को प्रत्येक अवस्था में शोक, विलाप एवं रोदन (रोना) त्याग देना चाहिए । जो परलोक पर विजय प्राप्त करना चाहता हो, उस मनुष्य को धार्मिक तथा माता-पिता व गुरुजनों का आज्ञाकारी होना चाहिए ।’

भगवान श्रीराम द्वारा मानव जीवन की नश्वरता का जो वर्णन किया गया है, वही बात कबीर ने अपने दोहों में कही है—

आये हैं सो जायेंगे, राजा रंक फकीर ।
इक सिंहासन चढ़ चले, इक बन्धे जंजीर ।।
माली आवत देखि कै, कलियाँ करै पुकारि ।
फूली फूली चुनि लईं, काल्ह हमारी बारि ।।
माटी कहै कुम्हार कौं, तूँ क्या रूँदै मोहिं ।
इक दिन ऐसा होइगा, मैं रूँदूँगी तोहिं ।।

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