sant namdev ji bhagwan raam

तुलसी वृक्ष न मानिये, गाय न मानिये ढोर ।
ब्राह्मण मनुज न मानिये, तीनों नन्दकिशोर ।।

इस पद का भाव यह है कि तुलसी केवल एक वृक्ष या पौधा नहीं है; वे भगवान की पटरानी हैं । गाय केवल पशु नहीं है; वरन् गोलोक से उतरा हुआ परमात्मा श्रीकृष्ण का एक आशीर्वाद है या यह कहिए कि साक्षात् स्वर्ग ही गाय के रूप में पृथ्वी पर उतर आया है । ब्राह्मण में मन्त्र का निवास है और गौ में हविष्य स्थित है । इन दोनों से मिलकर ही यज्ञ सम्पन्न होता है । इसलिए ये तीनों ही नंदकिशोर श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय हैं ।

नामदेव जी द्वारा ‘राम’ नाम लिखे तुलसीदल की महिमा को प्रकट करना

एक बार पण्ढरपुर ने एक सेठ ने ‘तुलादान’ का भव्य उत्सव किया । सेठ ने अपने को सोने में तौल कर नगर के सभी लोगों को सोना बाँटा । 

सेठ ने अपने नौकरों से पूछा—‘कोई दान लेने से रह तो नहीं गया है ?’

तब नौकरों ने कहा—‘नामदेव जी भगवान विट्ठल के बड़े भक्त हैं, वे रह गए हैं ?’

सेठ ने मुनीम को नामदेव जी को बुला लाने के लिए भेजा; परंतु नामदेव जी ने आने से इंकार करते हुए कहा—‘दान ब्राह्मणों को दो, मुझे कुछ नहीं चाहिए ।’

सेठ का मुनीम दो बार नामदेव जी को बुलाने गया; परंतु दोनों बार उन्होंने आने से इंकार कर दिया । तीसरी बार जब सेठ के आदमी नामदेव जी की बहुत मनुहार करने लगे, तब नामदेव जी सेठ के पास आए और पूछा—‘मुझे क्यों बुलाया है ?’

सेठ ने कहा—‘मेरे द्वारा दिए गए इस स्वर्ण के दान को स्वीकार करो, जिससे मेरा कल्याण हो ।’

नामदेव जी ने कहा—‘देने वाला तो केवल एक भगवान है, उसी से हमें मांगना चाहिए । बाकी सारा संसार तो भिखारी है । संसार के दु:ख दूर करने वाली औषधि केवल राम का नाम है ।’

दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया ।
नाम एक औषधि, दुखारी सारी दुनिया ।।

लेकिन धन के मद में सेठ को नामदेव जी की बात समझ नहीं आई और वह नामदेव जी से सोने का दान लेने की जिद करने लगा । तब नामदेव जी ने सोचा इसका धन का मद दूर करना चाहिए ।

नामदेव जी ने कहा—‘तुलादान से तुम्हारा कल्याण तो हो गया; अब मैं जो मांगू वह मुझे दीजिए ।’

नामदेव जी ने अपने आराध्य भगवान श्रीकृष्ण (विट्ठलनाथ, पण्ढरीनाथ) को अत्यंत प्रिय तुलसी के एक पत्ते पर ‘राम’ नाम का आधा केवल ‘रा’ अक्षर लिख कर सेठ को दिया और कहा—‘इसके वजन के बराबर तौल कर मुझे सोना दे दीजिए ।’

सेठ ने अहंकारपूर्वक कहा—‘नामदेव जी ! क्यों हंसी करते हो, इतने थोड़े से सोने से क्या होगा ? कृपा करके थोड़ा ज्यादा सोना लीजिए, जिससे मुझ दाता की हँसी न हो ।’

नामदेव जी ने कहा—‘इस तुलसीपत्र के बराबर सोना तौल कर देखो तो सही, फिर देखो क्या विचित्र खेल होता है । यदि तुमने इसके वजन के बराबर सोना तौल दिया, तो मैं तुम पर प्रसन्न हो जाऊंगा ।’

यह सुन कर सेठ ने एक तराजू मंगवाया और उसके एक पलड़े पर ‘रा’ लिखा हुआ तुलसीपत्र और दूसरे पलड़े पर सोना रख कर तुलवाया ।

आश्चर्य ! सोने का ढेला तुलसीपत्र के वजन के बराबर नहीं हुआ । सेठ जी ने और सोना पलड़े पर चढ़ाया पर तुलसीपत्र का वजन ज्यादा ही रहा । तब सेठ ने एक बड़ा तराजू मंगवाया । उसके एक पलड़े पर तुलसीपत्र और दूसरे पर घर-भर का सोना-चांदी रख दिया । फिर भी सोने का वजन तुलसीपत्र के बराबर न हो सका । सेठ ने अपने नाते-रिश्तेदारों, पड़ौसियों से मांग कर सोना-चांदी पलड़े पर रखा; परंतु फिर भी तुलसीपत्र का वजन ही भारी रहा ।

राम-नाम लिखे तुलसीपत्र की महिमा देख कर सेठ और उसका परिवार अचम्भित रह गए और दान देने का वचन पूरा न हो पाने के कारण शोक में डूब गए ।

नामदेव जी ने सोचा—अभी इन्हें राम-नाम लिखे तुलसीपत्र की महिमा का पूरा ज्ञान नहीं हुआ है; इसलिए उन्होंने सेठ से कहा—‘आप लोगों ने आज तक जितने दान-पुण्य किए हैं, उनका संकल्प करके जल इस सोने वाले पलड़े में डाल दीजिए ।’

सभी लोगों ने अपने पुण्यकर्मों का स्मरण करके संकल्प किया और जल तराजू के सोने वाले पलड़े में डाल दिया । परंतु अभी भी तुलसीपत्र वाला पलड़ा ही भारी रहा और वह अपने वजन से भूमि में गड़ा जा रहा था ।

यह देख कर सेठ और उसका परिवार अत्यंत लज्जित हो गया । अब सेठ नामदेव जी से क्षमा मांगते हुए इतना ही सोना स्वीकार करने की गुहार करने लगा ।

नामदेव जी ने कहा—‘हम इस तुच्छ धन को लेकर क्या करेंगे ? हमारे पास तो ‘राम’ नाम रूपी धन है । यह धन (सोना) उसकी बराबरी नहीं कर सकता है । न ही इस धन से कल्याण हो सकता है । नाम की और तुलसी की महिमा जान कर आज से तुम लोग गले में तुलसी की कंठी धारण करो और मुख से राम-नाम जपो ।’

यह कह कर नामदेव जी हरि-गुन गाते अपने घर चले गए ।

सबका पालनहार वह एक ‘राम’ ही है । संसारी प्राणी तो दान ही दे सकते हैं; परन्तु मनुष्य की जन्म-जन्म की भूख-प्यास नहीं मिटा सकते हैं । वह तो उस दाता के देने से ही मिटेगी । इसलिए मांगना है तो मनुष्य को भगवान से ही मांगना चाहिए । अन्य किसी से मांगने पर संसार के अभाव मिटने वाले नहीं हैं । लेकिन मनुष्य सोचता है कि मैं कमाता हूँ, मैं ही सारे परिवार का पेट भरता हूँ । यह सोचना गलत है । इसलिए देने वाले के नेत्र सदैव नीचे और लेने वाले के ऊपर होते हैं । यही बात रहीम जी ने कही है–

देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन ।
लोग भरम मो पै करें या ते नीचे नैन ।।