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लक्ष्मी-प्रेम या भगवान से प्रेम

एक दिन श्रीहरिप्रिया लक्ष्मी जी ने अपने पति वैकुण्ठपति भगवान विष्णु से व्यंग्य करते हुए कहा—‘नाथ ! यह संसार जितना मुझे चाहता है, उतना आपको नहीं चाहता है । इस संसार के लोग जितने मेरे भक्त हैं, उतने आपके नहीं हैं । यह बात आप भी जानते हैं । क्या आपको इससे जरा भी दु:ख नहीं होता है ?’

विराट् पुरुष या आदि पुरुष

ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत--जो प्राकृतिक सृष्टि है, वह सब नश्वर है । तीनों लोकों के ऊपर जो गोलोक धाम है, वह नित्य है । गोलोक में अन्दर अत्यन्त मनोहर ज्योति है; वह ज्योति ही परात्पर ब्रह्म है । वे परमब्रह्म अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण साकार और निराकार दोनों रूपों में अवस्थित रहते हैं । ब्रह्माजी की आयु जिनके एक निमेष (पलक झपकने) के बराबर है, उन परिपूर्णतम ब्रह्म को ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता है ।

लक्ष्मी जी द्वारा भगवान नारायण का वरण

समुद्र-मंथन से तिरछे नेत्रों वाली, सुन्दरता की खान, पतली कमर वाली, सुवर्ण के समान रंग वाली, क्षीरसमुद्र के समान श्वेत साड़ी पहने...

शंख की उत्पत्ति कथा तथा शंख-ध्वनि की महिमा

समुद्र-मंथन के समय समुद्र से जो १४ रत्न निकले, उनमें एक शंख भी है । इसलिए इसे ‘समुद्रतनय’ भी कहते हैं । शंख में साक्षात् भगवान श्रीहरि का निवास है और वे इसे सदैव अपने हाथ में धारण करते हैं । मंगलकारी होने व शक्तिपुंज होने से अन्य देवी-देवता जैसे सूर्य, देवी और वेदमाता गायत्री भी इसे अपने हाथ में धारण करती हैं; इसीलिए शंख का दर्शन सब प्रकार से मंगल प्रदान करने वाला माना जाता है ।

भगवान नृसिंह : कथा, स्वरूप व प्रार्थना मंत्र

प्रह्लाद जी का कंठ भर आया और वे हाथ जोड़ कर भगवान की स्तुति करने लगे । भगवान ने उनके सिर पर अपना करकमल रख दिया जिससे उन्हें परम तत्त्व का ज्ञान हो गया । प्रह्लाद जी आज भी अमर हैं और सुतल लोक में अब भी भगवान का भजन करते हुए निवास करते हैं । तभी से भगवान नृसिंह का वही दिव्य रूप भक्तों का सर्वस्व बन गया ।

भगवान वेंकटेश्वर और देवी पद्मावती का कल्याणोत्सव

अंत:पुर में वृद्ध सुवासिनी स्त्रियों ने पद्मावती को रेशमी साड़ी पहनाकर हीरों के गहने से सज्जित किया । फिर कस्तूरी तिलक व काजल आदि लगा कर उनसे गौरी पूजा करवाई । सहेलियां हाथ पकड़ कर पद्मावतीजी को कल्याण मण्डप में लाईं और श्रीनिवास जी के सामने बिठा दिया । भगवान श्रीनिवास ने अपने कंठ में पड़ी हुई माला हाथ में लेकर पद्मावती जी के गले में पहना दी और पद्मावती जी ने बेला के फूलों की माला भगवान के कण्ठ में पहना दी ।

भगवान विष्णु द्वारा नामदेवजी के एकादशी-व्रत की परीक्षा

यदि मनुष्य को श्रीहरि की प्रसन्नता व सांनिध्य चाहिए तो व्रत के नियम का पालन करना अनिवार्य है । एकादशी-व्रत के नियमानुसार इस दिन अन्न खाना निषिद्ध है, विशेष रूप से चावल (चावल से बना पोहा, लाई आदि) नहीं खाना चाहिए । एकादशी को व्रत करके रात्रि में जागरण व कीर्तन करने का विधान है; जिससे व्रती के सभी पाप भस्म होकर विष्णुलोक की प्राप्ति होती है ।

भगवान विष्णु के षोडशोपचार पूजन की विधि और मंत्र

हिन्दू धर्म में देवताओं का पूजन-कार्य 16 उपचार से किया जाता है । यद्यपि देवताओं को न तो पदार्थों की आवश्यकता होती है और न ही भूख । जब कोई सम्माननीय व्यक्ति हमारे घर पर आता है तो हम जो भी हमारे पास सर्वश्रेष्ठ वस्तुएं उपलब्ध होती हैं, उसके लिए प्रस्तुत करते हैं । फिर भगवान तो जगत्पिता, जगत के नियन्ता और जगत के पालक हैं; उनसे श्रेष्ठ, सम्माननीय और वन्दनीय और कौन हो सकता है ? इसलिए भगवान का पूजन षोडशोपचार विधि से किया जाता है ।

देवी तुलसी और शालग्राम : प्रादुर्भाव कथा

तुलसी के शरीर से गण्डकी नदी उत्पन्न हुई और भगवान श्रीहरि उसी के तट पर मनुष्यों के लिए पुण्यप्रद शालग्राम बन गए । तुलसी अपना वह शरीर त्याग कर और दिव्य रूप धारण करके श्रीहरि के वक्ष:स्थल पर लक्ष्मी की भांति सुशोभित होने लगीं ।

गजेन्द्न-मोक्ष के लिए भगवान का श्रीहरि अवतार

तृतीय मन्वन्तर में भगवान का ‘श्रीहरि’ अवतार हुआ । भगवान ने हरिमेधस ऋषि की पत्नी हरिणी में अवतार धारण किया और ‘श्रीहरि’ कहलाये । भगवान का यह अवतार अपने आर्त भक्त गजेन्द्र की ग्राह से रक्षा के लिए हुआ था । भगवान अपने पुकारने वालों की कैसे रक्षा करते हैं और उनके रक्षण में उनकी कैसी तत्परता रहती है—श्रीमद्भागवत का ‘गजेन्द्र-मोक्ष’ का प्रसंग यही बताता है ।