devi laxmi bhagwan narayan vishnu

समुद्र-मंथन से तिरछे नेत्रों वाली, सुन्दरता की खान, पतली कमर वाली, सुवर्ण के समान रंग वाली, क्षीरसमुद्र के समान श्वेत साड़ी पहने हुए तथा दोनों हाथों में कमल की माला लिए, खिले हुए कमल के आसन पर विराजमान, भगवान की नित्य शक्ति ‘क्षीरोदतनया’ साक्षात् जगदम्बा महामाया लक्ष्मी जी प्रकट हुईं । उन्हें देख कर ऐसा जान पड़ता था मानो चमकती हुई बिजली प्रकट हो गई हो । सारे देवता, दैत्य, दानव, मानव उनके रूप-सौंदर्य, औदार्य व महिमा को देख कर डगमग-चित्त वाले हो गए । दैत्यों ने सोचा कि ये हमें मिल जाएं तो अच्छा है; किंतु मांगने वाले को और इच्छा करने वाले को लक्ष्मी जी नहीं मिलती हैं ।

इंद्र अपने हाथों से लक्ष्मी जी के बैठने के लिए विचित्र सिंहासन ले आए । इस संसार में भी लक्ष्मीपतियों को सभी मान देकर ऊंचा बिठाते हैं । सभी नदियां मूर्तिमान होकर सोने के घड़ों में पवित्र जल भर कर ले आईं ।  गंगा जी ने गंगाजल, पृथ्वी ने सभी औषधियां और गौओं ने पंचगव्य लक्ष्मी जी के अभिषेक के लिए दिए । ऋषि लोग उनका वेद-मंत्रों से अभिषेक करने लगे—

ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं, सुवर्णरजतस्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह ।। १ ।।

हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव ! सोने के समान पीले रंग वाली, किंचित हरित वर्ण वाली, सोने और चांदी के हार पहनने वाली, चांदी के समान श्वेत पुष्पों की माला धारण करने वाली, चन्द्र के समान प्रसन्न-कान्ति वाली, स्वर्णमयी लक्ष्मी को मेरे लिए आवाहन करो (बुलाइए) ।

इसके बाद समुद्र ने पीले रेशमी वस्त्र लक्ष्मी जी को पहनने के लिए दिए । वरुण ने लक्ष्मी जी को ऐसी वैजयंती माला भेंट की जिसकी सुगंध से मतवाले होकर भौंरे उसके चारों ओर गुंजार कर रहे थे । । विश्वकर्मा ने सुंदर-सुंदर आभूषण, सरस्वती ने मोतियों का हार, ब्रह्माजी ने कमल और नागों ने कुण्डल लक्ष्मी जी को समर्पित किए । गंधर्व ढोल, नगारे, शंख, वेणु, वीणा, डमरु आदि बजा कर गान करने लगे ।

अब लक्ष्मी जी सोचने लगीं कि किसके गले में कमल माला पहनाऊँ । वे मुसकराते हुए सर्वगुण-संपन्न पुरुष की खोज में इधर-उधर विचरण करने लगीं । उन्हें देख कर ऐसा लगता था मानो कोई सोने की लता इधर-उधर घूम रही हो । उनके मन में यह संकल्प था कि जो मुझे न चाहता हो, उसी को मैं वरण करुंगी । लेकिन सृष्टि में ऐसा कोई भी नहीं है, जो उन्हें न चाहता हो, उनको पाने की कामना न करता हो । उन्होंने एक बार सब पर दृष्टि डाली; लेकिन किसी में भी सारे सद्गुण उन्हें नहीं दिखाई दिए ।

लक्ष्मी जी सखियों के साथ ऋषियों के मण्डप में आईं, जहां विश्वामित्र, जमदग्नि आदि ऋषि विराजमान थे । वे ऋषि ज्ञानी और तपस्वी तो थे; किंतु क्रोधी अधिक थे । लक्ष्मी जी ने सोचा—तप करने से क्या होता है, तप तो राक्षस भी करते हैं । मैं इतने क्रोधी के साथ ब्याह कर लूं और कहीं इन्होंने क्रोध में आकर कभी मुझे शाप दे दिया तो मेरा क्या होगा ? तप करने से शक्ति बढ़ती है तो इससे क्रोध भी बढ़ जाता है और वह छलकने भी लगता है । इसलिए केवल तप करने से कुछ नहीं होता । तप के साथ भक्ति भी होनी चाहिए; क्योंकि भक्ति के लिए दीनता और नम्रता बहुत जरुरी है । 

इसी तरह शुक्राचार्य, बृहस्पति आदि ज्ञानी तो बहुत हैं, लेकिन उनमें आसक्ति भी बहुत है । अत: ऋषियों में से चुनाव करने का लक्ष्मी जी का मन न हुआ ।

आगे ब्रह्मा, चंद्रमा, वरुण, इंद्र आदि देवतागण विराजमान थे । देवगण क्रोधी नहीं हैं; परंतु कामी हैं । अत: उनको भी छोड़ कर लक्ष्मी जी आगे चलीं ।

आगे परशुराम जी विराजमान थे । वे कामी और क्रोधी नहीं हैं; वे तो जितेन्द्रिय हैं (उन्होंने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है) । परंतु वे अत्यंत निष्ठुर हैं । क्षत्रियों के संहार के साथ उन्होंने छोटे-छोटे बालकों का भी वध किया है । इनमें प्राणियों के प्रति दया नहीं है । अत: लक्ष्मी जी को वे भी नापसंद हैं । जहां दया है, वहीं लक्ष्मी जी विराजती हैं ।

आगे शिवि और कार्तवीर्य बैठे हैं । लक्ष्मी जी ने सोचा—शिवि आदि में त्याग है; लेकिन निवृत्ति नहीं है । कार्तवीर्य आदि वीर तो बहुत हैं; लेकिन वे काल के पंजे से बाहर नहीं हैं अर्थात् समय पर नष्ट हो जाने वाले हैं ।

आगे मार्कण्डेय ऋषि बैठे थे । वे प्रलय काल तक आयु वाले, सिद्ध और महात्मा हैं । इन्होंने काम और क्रोध का विनाश किया है । किंतु वे आंखें मूंदे अपने आराध्य के ध्यान में बैठे हैं । 

मार्कण्डेय ऋषि ने देखा—लक्ष्मी जी अकेली आ रही हैं; इसलिए उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं । लक्ष्मी जी की ओर उन्होंने देखा तक नहीं । लक्ष्मी जी में एक बड़ा दोष है कि वे पापी के घर भी चली जाती हैं । भगवान नारायण कभी पापी के हाथ में नहीं जाते हैं । इसलिए संत लक्ष्मीजी का दर्शन नारायण के साथ ही करते हैं । लक्ष्मी जी ने सोचा—ये तो अनासक्त हैं, मेरी ओर देखते तक नहीं । यदि मैं इनका वरण करुंगी तो शायद ये आगे भी मेरी ओर न देखें, मेरा ध्यान न रखें । ऐसी उपेक्षा करने वाले का वरण करके मैं क्या करुंगी ? सारा दिन भजन करने वाले और कुछ भी पुरुषार्थ न करने वाले को लक्ष्मी जी नहीं मिलती हैं ।

अब लक्ष्मी जी अपनी सखियों के साथ आगे बढ़ी, तो वहां भगवान शंकर विराजमान थे । शंकर जी न कामी हैं और न क्रोधी । बड़े ही परोपकारी स्वभाव के है; किंतु उनका वेश बड़ा अमंगल है । उनके पांच मुख हैं और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र । सारे अंगों में विभूति लगाये, मस्तक पर जटाजूट, चन्द्रमा का मुकुट, दस हाथ और उनमें कपाल, पिनाक, त्रिशूल और ब्रह्मरूपी डमरु आदि लिए, बाघंबर का दुपट्टा, भयानक आंखें, आकृति विकराल और हाथी की खाल का वस्त्र और गले में सर्प । भगवान शिव स्वयं जितने अद्भुत थे उनके अनुचर भी उतने ही निराले थे ।

सखियों ने शंकर जी के गुणगान करते हुए लक्ष्मी जी से कहा—‘ये देवों के देव महादेव हैं । इन्होंने काम को भस्म किया है । बड़े शांत, सरल और भोले हैं ।’ किंतु लक्ष्मी जी ने कहा—‘इनका वेश (श्रृंगार) मुझे पसंद नहीं है ।’

भगवान शंकर के पास ही शांताकारं भगवान नारायण विराजमान थे—

मंगलम् भगवान विष्णु, मंगलम् गरुड़ध्वज: ।
मंगलम् पुण्डरीकाक्ष, मंगलाय तनो हरि: ।। 

अर्थात्—भगवान विष्णु मंगलमय है, गरुड़ की ध्वजा वाले भगवान मंगलमय हैं । कमल के समान नेत्र वाले भगवान कल्याणप्रद हैं, भगवान हरि मंगलों के भण्डार हैं ।

श्रीभगवान सुमंगल, सर्वगुण-संपन्न हैं; क्योंकि प्राकृत गुण इनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि गुण इनको चाहा करते हैं; परंतु ये किसी की भी अपेक्षा नहीं करते हैं । लक्ष्मी जी ने सोचा—बस यही मेरे लिए उत्तम हैं । 

कहते हैं जब लक्ष्मी जी का स्वयंवर होने लगा, तब भगवान नारायण बेफिक्र होकर पीताम्बर ओढ़ कर सो गए । क्योंकि उन्हें पता था कि लक्ष्मी जी किसी दूसरे के पास तो जाने वाली हैं नहीं ! लक्ष्मी जी भगवान की नित्यशक्ति हैं । जब लक्ष्मी जी को कोई और पसंद नहीं आया तो उन्होंने देखा कि यह कौन सो रहा है ? संसार में ऐसा कौन पुरुष है, जो मुझको नहीं चाहता ? जब उन्होंने देखा कि ये तो साक्षात् विष्णु भगवान हैं तो वे उनके पांव दबाने लग गईं ।

जिसका हृदय कोमल और मृदु होता है, उसी के पास लक्ष्मी जी आती हैं । उन्होंने समस्त गुणों के आश्रय व निरपेक्ष भगवान नारायण को कमल की वरमाला पहना दी और चुपचाप उनके अनुग्रह की प्रतीक्षा करती हुई उनके निकट स्थित हो गईं । भगवान नारायण की दृष्टि तो पृथ्वी की ओर थी; किंतु जब लक्ष्मी जी ने उन्हें वरमाला पहनाई तो वे इधर-उधर देखने लगे । 

पूज्य श्रीडोंगरे जी महाराज ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि जिसके पास लक्ष्मी हो, उसे आसपास भी देखना चाहिए । जहां भी उसे दीन-दु:खी दिखाई दें, उनकी भरपूर सहायता कर उनका दु:ख दूर करना चाहिए ।

भगवान ने लक्ष्मी जी से कहा—‘आओ ! तुम मेरे वक्ष:स्थल पर विराजमान हो जाओ । तुम मेरे वक्ष पर आसीन हो जाओगी तो मैं दूसरे किसी का आलिंगन नहीं कर सकूंगा अर्थात् तुम्हारी अनुमति बिना के बिना किसी दूसरे को अपनाऊंगा ही नहीं !’

इस प्रकार भगवान नारायण का नया विवाह हुआ और लक्ष्मी जी के नवीन अवतरण से देवताओं को भी सुख-संपत्ति की प्राप्ति हो गई ।

इस प्रसंग का सार यह है कि लक्ष्मी जी उन्हीं का वरण करती हैं जिनमें सद्गुण विराजते हैं । भक्ति, धर्माचरण, सेवा, सहायता, दया, सत्य, दान, व्रत, तपस्या, तन, मन व वस्त्रों की पवित्रता एवं पराक्रम आदि गुण जिनमें वास करते हैं, लक्ष्मी जी उनका वरण करती हैं । साथ ही उन पुरुषों के घरों में निवास करती हैं, जो निर्भीक, सच्चरित्र, कर्तव्यपरायण, अक्रोधी, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, सदाचरण में लीन व गुरु सेवा में निरत रहते हैं ।

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