bhagwan venkatesh parvati kalyanutsav

त्रिदेवों की परीक्षा करने के लिए भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्ष:स्थल पर लात मार दी जिससे लक्ष्मीजी रुष्ठ हो गईं और वैकुण्ठ छोड़ कर भू लोक में आकर गोदावरी नदी के किनारे कोल्हापुर में एक पर्णकुटी बनाकर तपस्या करने लगीं ।

लक्ष्मीजी के वैकुण्ठ छोड़ते ही वहां की शोभा जाती रही, चारों ओर दरिद्रदेव का राज्य हो गया । पत्नी के वियोग में भगवान विष्णु भी एक दिन वैकुण्ठ छोड़कर भूलोक आ गए और पत्नी को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते शेषाद्रि (शेषाचल, वेंकटाचल) पहुंच गए । इस पर्वत को तिरुमलै या तिरुमाला भी कहते हैं, जिसका अर्थ है श्रीयुक्त पर्वत । 

वेंकटाचल निवासी भगवान श्रीहरि

वहां वे एक इमली के वृक्ष की खोडर में छिप कर रहने लगे । परंतु उन्हें एक ग्वाले की कुल्हाड़ी से सिर पर चोट लग गई । भगवान विष्णु औषधि की खोज करते हुए शेषाद्रि पर वराहस्वामी के आश्रम में पहुंचे । वराहस्वामी ने उनका आदर-सत्कार कर वेंकटाचल पर ही रहने को जगह दे दी और कहा—‘मेरे पास वकुला देवी नाम की भक्तिन है । वह माता की तरह आपकी सेवा करती रहेगी । उसे आप अपने पास रहने दीजिए ।’

वकुला देवी

वकुला देवी कृष्णावतार में माता यशोदा थीं जो श्रीकृष्ण का विवाह न देख सकीं थीं । श्रीकृष्ण ने उन्हें वर दिया था कि कलियुग में मैं एक नौजवान के रूप में तुम्हारे पास आऊंगा, तब तुम मेरी शादी देखोगी ।’

वकुला देवी ने कहा—‘आज से तुम मेरे पुत्र हो । मैं तुम्हें ‘श्रीनिवास’ के नाम से पुकारुंगी ।’ वकुला देवी ने जड़ी-बूटियां लाकर भगवान श्रीनिवास के घावों पर लगा दीं । वे अच्छे-अच्छे फल, कन्द-मूल आदि जंगल से लाकर श्रीनिवासजी को खिलातीं ।

देवी पद्मावती

देवी पद्मावती चोल राज्य के राजा ‘आकाशराजा’ की पुत्री थीं । उनकी मां का नाम धरणीदेवी था । उनका जन्म भी सीताजी के समान हुआ था । जब आकाशराजा संतान प्राप्ति के लिए पुत्रकामेष्टि यज्ञ कर रहे थे, तब यज्ञ-स्थल को हल से जोतते समय उनका हल एक जगह अटक गया । उस स्थान को खोदने पर आकाशराजा को एक सोने की पेटी दिखाई पड़ी । उस पेटी को खोलने पर उसमें सहस्त्र दलों वाले कमल पर बिजली के समान चमकने वाली एक बालिका लेटी दिखाई पड़ी । उसी समय आकाशवाणी हुई कि ‘आकाशराजा तुम इस बालिका का अच्छे से पालन-पोषण करो । इसके कारण तुम्हारा वंश पवित्र बनेगा ।’

आकाशराजा ने पद्म (कमल) में मिलने के कारण बालिका का नाम ‘पद्मावती’ रखा । पद्मावती शुक्ल पक्ष के चंद्रमा के समान दिनों-दिन बड़ी होती गई । वे रती जैसी सुन्दरता, सरस्वती जैसी विद्या, पार्वतीजी जैसी पवित्रता और लक्ष्मी जैसी शोभा और गुणों से संपन्न थीं ।

पद्मावतीजी के पूर्व जन्म की कथा

प्राचीन काल में वेदवती नाम की एक कन्या थी । वह भगवान श्रीहरि के साथ विवाह का निश्चय करके तपस्या करने लगी । एक दिन रावण ने वेदवती को वन में देखा । उसके सौंदर्य से मोहित होकर रावण ने कहा—मैं लंका का राजा रावण हूं । मैंने चौदह लोकों को जीत लिया है लेकिन तुम्हारी जैसी सुंदरी मैंने नहीं देखी । इस तपस्या में अपने यौवन को नष्ट न करके मेरे साथ विवाह करके लंका की रानी बनो ।’

रावण की बात सुनकर वेदवती ने क्रोध में रावण को फटकारते हुए कहा—‘मेरा प्रण है कि श्रीहरि के सिवाय मैं किसी और से विवाह नहीं करुंगी ।’ 

रावण ने कहा—‘यह विष्णु या श्रीहरि कौन हैं ? तुम मेरी बात मान लो अन्यथा मैं तुम्हें जबरदस्ती पकड़ कर ले जाऊंगा ।’ और रावण वेदवती को पकड़ने लगा । वेदवती समझ गई कि यह नीच आज मुझे स्पर्श करलेगा, इससे तो अच्छा है कि मैं जल मरुं । उसने रावण को ललकारते हुए कहा—‘पापी ! आज तेरे कारण मैं मर रही हूँ । मेरी जैसी स्त्री के कारण तेरा और तेरे वंश का सर्वनाश हो जाएगा ।’ 

ऐसा शाप देकर वेदवती योगाग्नि में भस्म हो गई । किंतु अग्निदेव ने वेदवती को अपने में सुरक्षित रख लिया ।

कुछ समय बाद जब रावण सीताजी का हरण कर ले जा रहा था, तब अग्निदेव ने रावण के पास जाकर कहा—‘तुम जिस सीता को ले जा रहे हो, वह सच्ची सीता नहीं है । वह तो माया सीता है । सच्ची सीता को राम ने मेरे पास छिपा कर रखा है । तुम इस सीता को छोड़ दो, मैं तुम्हें सच्ची सीता दूंगा ।’

रावण ने अग्निदेव की बातों पर विश्वास कर लिया और अग्निदेव ने वेदवती को रावण को देकर सच्ची सीता को अपने में समा लिया ।

रावण वध के बाद श्रीराम ने सीताजी की अग्नि परीक्षा कराई । वेदवती जो माया सीता के रूप में थी, अग्नि में प्रवेश कर गई । तब अग्निदेव सच्ची सीताजी और वेदवती को लेकर श्रीराम के पास आए और वेदवती की कथा सुनाकर उसे स्वीकार करने की प्रार्थना की । किंतु श्रीराम ने कहा—‘मैंने इस अवतार में ‘एक-पत्नी व्रत’ धारण किया है; इसलिए मैं सीता के सिवाय अन्य किसी स्त्री को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता । कलियुग में वेदवती का मेरे साथ विवाह होगा ।’ 

इसी कारण कलियुग में जब भगवान विष्णु ‘श्रीनिवास’ के रूप में वेंकटाचल पर आए तब वेदवती ही आकाशराजा की पुत्री पद्मावती के रूप में प्रकट हुईं ।

वैशाख शुक्ल दशमी, शुक्रवार को हुआ श्रीनिवास और देवी पद्मावती का कल्याणोत्सव

एक दिन नारदजी आकाशराजा के पास आए । राजा ने पद्मावती का हाथ दिखाते हुए पूछा—‘इसे वर कैसा मिलेगा ?’

इस पर नारदजी ने कहा—‘राजन् ! महालक्ष्मी की हस्त-रेखाएं और तुम्हारी पुत्री की रेखाएं एक-सी हैं । श्रीहरि के साथ ही इसका विवाह होगा । अब विष्णुजी वैकुण्ठ में नहीं हैं, इसी भू लोक में वेंकटाचल पर बकुला देवी के आश्रम में है । कौन जाने, वे पद्मावती के लिए ही भू लोक में आए हैं ?‘

शेषाद्रि से बकुला देवी भी आकाशराजा के पास नारायणपुर पहुंचीं और कहा—‘मेरा निवास-स्थान शेषाचल है । मेरा एक पुत्र श्रीनिवास है । कुछ कारणों से वह लक्ष्मीजी से दूर होने के कारण निर्धन अवस्था में है । उसने एक दिन उद्यान में राजकुमारी पद्मावती को देखा था । वह उसी से शादी करना चाहता है । मैं उसके लिए आपकी बेटी को मांगने आई हूँ ।’

बकुला देवी के जाने के बाद आकाशराजा ने अपने गुरु शुक योगी के पास जाकर सब बातें बताईं । शुक योगी ने अत्यंत आनन्दित होते हुए आकाशराजा से कहा—‘वाह रे मेरे भाग्य ! भगवान के विवाह को आँखों से देखना ही नहीं है, उसमें शामिल होने का भी मुझे सौभाग्य मिला है । राजन् ! तुम बड़े भाग्यशाली हो कि चौदह भुवनों के अधिपति साक्षात् विष्णु ही तुम्हारे दामाद बनने जा रहे हैं । उनको अपनी कन्या का दान करने से तुम्हारा वंश धन्य हो जाएगा । हम जैसे लोग उनके दर्शन के लिए ही कई जन्मों से तपस्या कर रहे हैं ।’

आकाशराजा ने तुरंत देवगुरु बृहस्पति को बुलाकर विवाह के लिए शुभ मुहुर्त निकलवाया । शुक योगी श्रीनिवासजी के पास लग्न पत्रिका लेकर गए—

श्री श्री श्री सकल लोकाधीश वेंकटाचलवासी श्रीनिवासजी,

गुरुजनों के मुख से आपकी महिमा सुन कर मैं अपनी पुत्री चिरंजीवी सौभाग्यवती पद्मावती को आपके चरणों में समर्पित कर सालंकृत कन्यादान करना चाहता हूँ । इसके लिए गुरुजनों ने वैशाख शुक्ल दशमी शुक्रवार को शुभ मुहुर्त का निश्चय किया है । आपसे प्रार्थना है कि अपने बंधु, मित्र, परिवार के साथ पधार कर मेरे सत्कारों को स्वीकार कर मुझे धन्य करें ।

लग्न पत्रिका पढ़ने के बाद श्रीनिवासजी ने भी अपना उत्तर पत्र में इस प्रकार भेजा—

राजाधिराज, धर्मावतार सुधाम-वंश भूषण नारायणपुरवासी श्रीआकाशराजा को शताधिक प्रणाम

आपकी आज्ञानुसार शुभ मुहुर्त में बंधु-मित्र व परिवार सहित नारायणपुर पहुंच कर आपकी पुत्री सौभाग्यवती पद्मावती से मैं विवाह करुंगा ।

भवदीय

वेंकटाचल निवासी श्रीनिवास

वैशाख शुक्ल दशमी शुक्रवार को श्रीनिवास और पद्मावती के कल्याण महोत्सव के लिए आदिशेष, गरुत्मान (गरुड़), ब्रह्मा, शंकर नारद, कुबेर, इंद्र, अग्निदेव, विश्वकर्मा आदि सभी देवता आ गए । श्रीनिवास ने नारदजी से कहा—‘लक्ष्मी मुझे छोड़कर चली गई हैं इसलिए मैं बड़ी निर्धन अवस्था हूँ । आप कृपा करके कोई ऐसा उपाय सोचिए जिससे मैं अपने विवाह के लिए धन जुटा सकूँ ।’

नारदजी ने हंसते हुए कहा—‘स्वयं दरिद्रता का भोग करने पर आज आपको दरिद्रता की पीड़ा का बोध हुआ न ? इतने दिनों तक लक्ष्मीजी के साथ सुख से रहते हुए संसार के दरिद्रों की दुहाई आप सुनते ही न थे ।’

श्रीनिवासजी ने कहा—‘नारदजी ! मैं तो अब बड़ी दुर्दशा में हूँ । आप तो कार्य साधक हैं, ऐसा कोई उपाय कीजिए जिससे मेरे कार्य में कोई भंग न पड़े ।’

सभी देवताओं की सभा बैठी, तब नारदजी ने कुबेर से कहा—‘सारी सृष्टि में आप से अधिक भाग्यवान कोई नहीं है । आज एक अच्छे कार्य के लिए आपकी आवश्यकता आ पड़ी है । आप श्रीनिवास और पद्मावती के विवाह के लिए पर्याप्त धन देकर सहायता कीजिए । स्वामी उस धन को सूद के साथ चुका देंगे ।’ 

कुबेर ने तुरंत नारदजी की बात मान ली । भगवान श्रीनिवास ने एक पत्र लिखा कि ‘मैंने कुबेर से अपने विवाह खर्च के लिए एक करोड़ चौदह लाख निष्क लिए हैं । कलियुग में भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने से मेरे पास पैसे जमा हो जाएंगे जिन्हें में कलियुग के अंत तक सूद सहित लौटा दूंगा । ’ ब्रह्मा, शंकर और अश्वत्थ ने उस पत्र पर साक्षी के रूप में हस्ताक्षर किए ।

विश्वकर्मा ने वेंकटाचल पर सभी मेहमानों के रहने के लिए सुंदर महल, जलाशय आदि बनाकर उसे दूसरा वैकुण्ठ बना दिया । कामधेनु और कल्पवृक्ष की सहायता से सब तरह के पकवान आ गए । वायुदेव ने सब जगह इत्र और सुगंध बिखेर दी । 

विभिन्न देवियों ने सुगंधित तेल, अंगराग, रेशमी वस्त्र, पीताम्बर, कस्तूरी तिलक, स्वर्ण मुकुट, रत्नजटित अंगूठियां, छत्र, चंवर आदि से श्रीनिवास जी को सजा दिया ।

भगवान श्रीनिवास पुरोहित वशिष्ठ ऋषि के साथ गरुड़ पर बैठे और उनके एक ओर ब्रह्मा हंस पर और दूसरी ओर नंदी पर शंकरजी बैठ कर वेंकटाचल से नारायणपुर चल दिए । सभी देवी-देवता, महर्षिगण अपने-अपने वाहनों, विमानों व पालकियों पर बैठ गए । अनेक प्रकार के मंगल-वाद्यों की ध्वनि, अप्सराओ के नृत्य , गंधर्वों के जयगीत और मुनियों के स्वस्ति वचनों के साथ बारात नारायणपुर की ओर चल दी ।

आकाशराजा की राजधानी नारायणपुर को बड़ी ठाट-बाट से विश्वकर्मा ने सजा कर स्वर्ग के समान बना दिया । आकाशराजा ने चन्द्र देव को बुलाकर कहा—‘आप नाना प्रकार का सरस भोजन तैयार कीजिए जो भगवान विष्णु के भोग में आने के योग्य हो ।’

श्रीनिवास जी की बारात का आगमन सुनकर आकाशराजा उसकी आगवानी के लिए आए । श्रीनिवासजी व बारात को सुंदर महलों में ठहरा कर आवभगत की गई । दूसरे दिन प्रात:काल आकाशराजा समस्त बंधु-बांधवों के साथ श्रीनिवासजी के यहां गए और वशिष्ठ मुनि के आदेशानुसार बहुमूल्य कौशेय वस्त्र और चंदन-ताम्बूल समर्पित कर श्रीनिवासजी की पूजा की । इसके बाद मंगल-ध्वनियों के बीच श्रीनिवासजी को गजेंद्र पर बिठा कर विवाह-स्थल लाया गया । द्वार पर श्रीनिवास जी की आरती उतारी गई और उन्हें बहुत सुंदर स्वर्ण आसन पर बिठाया गया ।

अंत:पुर में वृद्ध सुवासिनी स्त्रियों ने पद्मावती को रेशमी साड़ी पहनाकर हीरों के गहने से सज्जित किया । फिर कस्तूरी तिलक व काजल आदि लगा कर उनसे गौरी पूजा करवाई । सहेलियां हाथ पकड़ कर पद्मावतीजी को कल्याण मण्डप में लाईं और श्रीनिवास जी के सामने बिठा दिया । भगवान श्रीनिवास ने अपने कंठ में पड़ी हुई माला हाथ में लेकर पद्मावती जी के गले में पहना दी और पद्मावतीजी ने बेला के फूलों की माला भगवान के कण्ठ में पहना दी ।

श्रीनिवासजी की तरफ से ब्रह्माजी और वशिष्ठ ऋषि ने तो पद्मावतीजी की ओर से बृहस्पतिजी ने वेद-मंत्र पढ़े । श्रीनिवासजी ने पद्मावतीजी के गले में मंगलसूत्र बांधा । आकाशराजा ने पद्मावतीजी का हाथ श्रीनिवासजी के कर-कमलों में समर्पित किया । 

वशिष्ठजी ने वर-वधू के हाथों में पवित्र कंकण बांधे और लाजा होम तक की सम्पूर्ण वैवाहिक विधि संपन्न कराई ।

आकाशराजा ने मंत्रों के साथ पुय्करिणी के जल से जामाता के पैर धोए और उस जल को अपने और धरणीदेवी के ऊपर छिड़क दिया । सभी ने नव-दम्पत्ति के सिर पर स्वर्ण-अक्षत छिड़के और नव-दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया ।

आकाशराजा ने श्रीनिवास जी को करोड़ों स्वर्ण-मुद्राएं, स्वर्ण-मुकुट, मणिमालाएं, सोने की मेखला, सोने-चांदी के पात्र, एक हजार हाथी, दस हजार घोड़े व दास-दासियां व सौ ग्राम दिए । इस प्रकार पांच दिन तक महान वैभव से विवाह महोत्सव (कल्याणोत्सव) संपन्न हुआ । देवताओं ने नव-दंपति पर पुष्प वर्षा की और महामुनियों ने आशीर्वाद दिया ।

विदा के समय श्रीनिवास ने आकाशराज से कहा—‘आपने मुझे सदा के लिए अपना आभारी बनाया है, अत: कोई वर मांग लीजिए ।’ 

आकाशराज ने कहा—‘मुझे यह वर दीजिए कि मैं कभी भी आपके नाम-स्मरण को न भूलूँ ।’ भगवान श्रीनिवास ने कहा—‘मैं आपको सायुज्य मोक्ष प्रदान करता हूँ ।’

सबसे विदा लेकर भगवान श्रीनिवास और पद्मावती जी अगस्त्य मुनि के आश्रम में आए । विवाह के बाद नव-दम्पत्ति को छ: मास तक पर्वत पर नहीं चढ़ना चाहिए; इसलिए भगवान श्रीनिवास और पद्मावतीजी छ: मास तक अगस्त्याश्रम में रहे । सभी देवता अपने-अपने लोक को चले गए ।

आकाशराज की मृत्यु के बाद एक दिन तोंडमान अगस्त्याश्रम आए और श्रीनिवास से कोई सेवा बताने के लिए कहा । श्रीनिवास ने कहा—‘शेषाद्रि पर वराहस्वामी ने जो स्थान मुझे दिया है वहां मेरे लिए ऐसे मंदिर का निर्माण कराओ जिसमें लक्ष्मी और पद्मावती के रहने की योग्यता हो । इसमें गोपुर, शिखर, सिंहद्वार, ध्वजा मण्डप, धान्यशालाएं, पाकशालाएं, गोशाला व फूलो की बावली बनवाओ ।’

भगवान की आज्ञा मानकर तोंडमान ने शेषाद्रि को ‘दूसरा वैकुण्ठ’ बना दिया । शुभ मुहुर्त में श्रीनिवास और पद्मावतीजी ने ‘आनन्द निलय’ में प्रवेश किया । उस समय ब्रह्माजी ने कहा—‘स्वामी ! लोक कल्याण के लिए आप वर दीजिए कि जो भक्त आपके निवास शेषाद्रि पर आएं, उनके पाप दूर हो जाएं । मैं आपकी संनिधि में दो अखण्ड ज्योतियां जलाऊंगा । ये ज्योतियां लोक-कल्याण के लिए सदा आपकी संनिधि में जलती रहेंगी। आप कलियुग के अंत तक इसी वेंकटाचल पर निवास कीजिए और अपने भक्तों को दर्शन देते रहिएगा । अब मैं जो ब्रह्मोत्सव करुंगा उसे स्वीकार कीजिएगा ।’ 

भगवान श्रीनिवास ने ब्रह्माजी की बात स्वीकार कर ली । उस दिन से उस स्थान का नाम वेंकटाचलम् हो गया ।

लक्ष्मीजी और भगवान विष्णु में कलह का कारण नारदजी ही थे । अब नारदजी लक्ष्मीजी के पास कोल्हापुर पहुंचे और कहा—‘आप आनन्दधाम वैकुण्ठ को छोड़ कर इन जंगलों में निद्रा और आहार के बिना धूप-जाड़ा सहते हुए कब तक तपस्या करती रहेंगी ?’ नारदजी ने उन्हें भगवान श्रीनिवास और देवी पद्मावती के विवाह की बात बताई । यह सुनते ही लक्ष्मीजी को मानो काठ मार गया । वे नारदजी सहित वेंकटाचलम् पहुंची ।

भगवान श्रीनिवास ने लक्ष्मीजी को कुबेर से लिए कर्ज की बात बताई और कहा—‘कलियुग में तुम मेरे भक्तों को धन-सम्पत्ति प्रदान करती रहो जिससे वे अनेक पाप करके विपत्तियों में फंस जाएंगे । फिर मैं उन्हें स्वप्न में उपाय बताऊंगा जिससे वे मेरी मनौती करके भेंट चढ़ाएंगे । वह धन मैं कुबेर को सूद के रूप में दे दूंगा । यह तुमको कलियुग के अंत तक करना पड़ेगा । फिर हम वैकुण्ठ जाकर सुख से रह सकते हैं । तब तक तुम पद्म सरोवर में स्थित रह कर भक्तों की रक्षा करती रहो । किन्तु तुम अपने एक स्वरूप से मेरे बांये वक्ष:स्थल में रहो । पद्मावती को दक्षिण वक्ष पर रहने दो ।’

भगवान ने लक्ष्मीजी व पद्मावतीजी को अपने आलिंगन में लेकर अपने दांये और बायें वक्ष:स्थल में रख लिया । तभी एक भयंकर ध्वनि हुई और वे शिला विग्रह में परिवर्तित हो गए । तभी आकाशवाणी हुई—‘अब से मैं कलियुग के अंत तक वेंकटेश्वर स्वामी के नाम से इसी रूप में रहूंगा । अपने भक्तजनों की मनोकामना पूरी करना ही मेरा व्रत है ।’

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here