krishna arjun gita

मनुष्य के कर्म ही उसके पुनर्जन्म का आधार हैं । कर्मों का फल भोगने के लिए ही मनुष्य को बार-बार जन्म लेना पड़ता है । इस जन्म में किए हुए कर्मों से ही भविष्य में जन्म प्राप्त होता है । जिस प्रकार मक्खी लोभवश शहद पर टूट पड़ती है और उसका रस लेने के साथ-साथ वह उसमें ज्यादा लिपटती जाती हैं और अंत में मृत्यु को प्राप्त हो जाती है; उसी प्रकार मनुष्य भी इस कर्म-जंजाल में फंस कर मृत्यु को प्राप्त होता है और फिर कर्मफल के भोग के लिए पुनर्जन्म धारण करता है ।

‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्’ अर्थात् कर्मों में आसक्ति के कारण जीव संसार में बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु और बारंबार माता के गर्भ में रहने के दुष्चक्र में फंसता रहता है ।

कर्म ही विभिन्न योनियों में जन्म का आधार हैं

प्रत्येक कर्म के साथ कोई कामना जुड़ी रहती है । जीवन भर में जो कामना सबसे ज्यादा प्रबल होती है, वही अंतकाल में मृत्यु के समय उभर आती है । उसी को स्मरण करते हुए जीव जब शरीर त्यागता है, तब उसी के अनुरुप पुन: दूसरी योनि में जन्म ग्रहण करता है । 

भगवान ऋषभदेव के पुत्र सम्राट भरत महान त्यागी, भगवद्भक्त व पृथ्वी के एकच्छत्र सम्राट थे । उनके नाम पर ही इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा । पहले इस देश का नाम अजनाभ वर्ष था । अंत समय में हिरन के बच्चे में आसक्ति के कारण उसी का स्मरण करने से उन्हें अगले जन्म में मृग होना पड़ा ।

प्रत्येक कर्म का जीव के चित्त पर एक चित्र सा बन जाता है । यही है चित्रगुप्त का लेखा जिसके आधार पर जीवन भर के हमारे शुभ-अशुभ कर्मों का लेखा-जोखा होता है । इसी के आधार पर मृत्यु-पर्यन्त जीव को उत्तम या अधम योनियां प्राप्त होती हैं । 

एक ही गलत कर्म से राजा इंद्रद्युम्न को हाथी (गजेंद्र) की योनि मिली, साक्षात इंद्र का पद प्राप्त होने पर भी नहुष को सर्प बनना पड़ा, मानव शरीर में जितने रोम हैं, उतनी गायों का दान करने वाले राजा नृग को गिरगिट बनना पड़ा ।

कर्म कैसे बंधन और पुनर्जन्म का कारण बन जाते हैं, यह इस कथा से स्पष्ट है—एक महात्मा का कोई सेठ भक्त था । महात्मा के पास एक लाख रुपये थे, जो उसने अपने भक्त सेठ के पास सुरक्षित रखवा दिए थे । एक बार आश्रम बनवाने के लिए जब महात्मा ने सेठ से रुपये वापिस मांगे तो सेठ की नीयत खराब हो गई और वह रूपये देने से मुकर गया ।

कुछ समय बाद महात्मा की मृत्यु हो गई । कहते हैं कि वही महात्मा सेठ के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ और धीरे-धीरे उसने सेठ की सारी संपत्ति व्यसन और बीमारी में व्यय करा दी और फिर उसकी मृत्यु हो गई । ऐसा होता है कर्मों का फल । कहा गया है—‘चोरी का पैसा नाली में ही जाता है ।’ 

पुनर्जन्म से मुक्ति कैसे हो ?

प्रश्न यह है कि ऐसी स्थिति में मनुष्य क्या करे ? क्या इसी प्रकार विवश होकर कर्मबंधन के फल के रूप में संसार में आवागमन के चक्र में ही पड़ा रहे ? 

इसका उत्तर है—नहीं । 

गीता में भगवान की आज्ञा है कि ‘तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है फल में नहीं । अत: तुम कर्मफल की इच्छा करने वाले मत बनो और कर्मों को छोड़ देने का भी विचार मत करो । फल और आसक्ति को छोड़ कर सिद्धि-असिद्धि को समान समझ कर निरंतर मेरा स्मरण करते हुए मेरे लिए सब कर्म करते रहो ।’

भगवान के इन वाक्यों का भाव है कि मनुष्य हर स्थिति में अनासक्त रहे—

तेरे कांटों से भी प्यार,
तेरे फूलों से भी प्यार,
जो भी देना चाहे दे दे,
दुनिया के तारन-हार ।।

अनासक्ति का यह भाव ही उसे संसार में आवागमन के भीषण चक्र में पड़ने से बचायेगा । जिस तरह सूखे और गीले मिट्टी के गोलों को यदि दीवार पर फेंका जाए तो उनमें से गीला गोला ही दीवार पर चिपकता है सूखा नहीं; उसी तरह जो सकाम कर्म हैं, किसी कामना से किए जाते हैं, वही मनुष्य को पुनर्जन्म के बंधन में बांधते हैं, निष्काम कर्म नहीं । 

गीता (५।१०) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘कर्म तो तुझे करना ही पड़ेगा, कर्म किए बिना तू रह नहीं सकता, तो अकलमंदी इसी में है कि जो करे उसे ब्रह्मार्पण कर दे, अनासक्त होकर कर्म कर, फिर तू कर्मों के फल से उसी तरह निर्लिप्त रहेगा जैसे जल में रहते हुए कमल ।’

जल में जैसे कमल है रहता, जग में वैसे रहना है

कितना निर्लिप्त व अछूता रहता है कमल सरोवर में जल से ! पैदा होता है पानी में, बढ़ता-पनपता भी पानी में है, विकसित भी पानी में होता है, पानी में ही खिलता है, पानी में ही आठों पहर बसता है; परंतु पानी से सर्वथा अछूता, पानी को वह अपने ऊपर ठहरने ही नहीं देता, अपने से चिपकने नहीं देता, पानी आया तुरंत उसे लुढ़का कर फेंक देता है । 

इसी तरह कमल का आदर्श लेकर मनुष्य को संसार में सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करके उनके कर्मफल व पाप-पुण्य से निर्लिप्त रहना चाहिए । तब वही कर्म उसके मोक्ष का द्वार खोल देंगे ।

कोई भी वस्तु जब भगवदर्पित कर दी जाती है तब उसका महत्व बढ़ जाता है । भौतिक पदार्थ भी ईश्वर को समर्पित होने के बाद ईश्वरीय होकर विलक्षण गुणों से संपन्न हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में निष्काम कर्म को भगवान को अर्पित करने से उनका महत्व कितना बढ़ जाता है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है ।

गीता (१२।६-७)  में भगवान के वचन हैं—‘हे अर्जुन ! जो साधक मेरे परायण होकर समस्त कर्मों को मेरे समर्पण करके अनन्य योग से निरंतर मेरा चिंतन करते हुए मुझे भजते हैं, उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का इस मृत्यु रूप संसार-समुद्र से मैं शीघ्र ही उद्धार कर देता हूँ ।’

संसार के आवागमन से मुक्ति सुकर्मों से नहीं मिलती; बल्कि कर्मफल से कुछ भी सम्बन्ध न रख कर ‘कर्म संन्यास’ से मिलती है ।

गीता के अनुसार ‘जो कर्म परमात्मा की प्रसन्नता के लिए, लोककल्याण के लिए, सब लोगों के उद्धार के लिए, आसक्ति, स्वार्थ और कामना को त्याग कर किया जाता है, वह बांधता नहीं और यह ‘यज्ञ’ है । 

कर्मों में कर्तापन का त्याग और फल की इच्छा का त्याग करने से मनुष्य मुझे अर्थात् मोक्षरूपी फल प्राप्त कर लेता है । यही ‘कर्म संन्यास’ है ।

हमारे चारों ओर विराजमान प्रकृति— नदी-तालाब, वृक्ष, बादल, सूर्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि, आदि निष्काम कर्म और सेवा के सबसे अच्छे उदाहरण हैं, जिनसे हमें शिक्षा लेनी चाहिए । 

‘जीवन सेवा के लिए है, भोग के लिए नहीं’—जो कर्म अपने लिए किए जाते हैं, वे ‘भोग’ हैं और जो दूसरों के लिए किए जाते हैं वे ‘सेवा’ है—यह बात (योग) यदि जीवन में उतार लें तो जीवन यज्ञमय हो जाएगा । कर्म के साथ योग का सम्बन्ध होने पर वह मनुष्य को परम-धाम तक पहुंचाने वाला ब्रह्मयान बन जाता है ।

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