bhagwan vishnu, maharoop vishwa roop

गीता (११।५४) में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ।।

अर्थात्—अनन्य भक्ति के द्वारा मैं प्रत्यक्ष देखने, जानने तथा प्रवेश करने के लिए भी सुलभ हूँ ।

अनन्य भक्ति किसे कहते हैं ?

भगवान में प्रेम होना और अपने तन-मन, इंद्रिय और धन आदि को भगवान का समझ कर भगवान के लिए उनकी सेवा में सदा के लिए लगा देना—यही अनन्य भक्ति है । सरल शब्दों में भगवान से विभक्त न होना ही अनन्य भक्ति है ।

गीता के इस श्लोक में भगवान ने अनन्य भक्ति द्वारा सुलभ होने वाली तीन बातें कहीं हैं—१. भगवान को प्रत्यक्ष देखना, २. भगवान को जानना और ३. भगवान में प्रवेश करना अर्थात् उनमें एकाकार हो जाना ।

इन तीनों बातों के सुंदर उदाहरण हमें पुराणों के अनेक प्रसंगों में मिलते हैं । 

१. भगवान को प्रत्यक्ष देखना

हिरण्यकशिपु के राक्षस कुल में जन्म होने पर भी भगवान से अनन्य प्रेम के कारण प्रह्लाद जी का मन नारायणाकार हो गया था । वे खेलते समय अपने मित्रों को कहते—‘प्रेम से कीर्तन करो, भगवान का दर्शन होगा ।’ 

भगवान साधारण मानव को प्रत्यक्ष दर्शन नहीं देते हैं; क्योंकि वे तेजोमय हैं । उनका तेज सहन करने की मानव में शक्ति नहीं है । इसलिए जब कीर्तन, नाम-स्मरण में आनंद आए और नेत्र गीले हो जाएं तो समझना चाहिए कि भगवान प्रकट हुए हैं, वही उनका दर्शन है; क्योंकि भगवान आनंदस्वरूप हैं ।

अपने भक्त प्रह्लाद को उसके पिता हिरण्यकशिपु के त्रास से बचाने के लिए भगवान नृसिंह रूप में खंभे से प्रकट हो गए । भगवान उस खंभे में कैसे रह पाए होंगे ? भगवान उस खंभे में सूक्ष्म रूप से बसे थे । प्रह्लाद जी की भक्ति से आकर्षित होकर भगवान ने सूक्ष्म रूप छोड़ कर स्थूल रूप धारण किया ।

हिरण्यकशिपु के लिए भगवान वज्र से भी कठोर थे पर जब प्रह्लाद जी को गोद में लेते हैं तो मक्खन से कोमल हो जाते हैं ।

प्रह्लाद जी से क्षमा मांगते हुए नृसिंह भगवान बोले—‘बेटा ! तेरे पिता ने तुझे बहुत दु:ख दिया । मेरे बालक को बहुत सहन करना पड़ा । मुझे आने में बहुत बिलम्ब हो गया । बिलम्ब के लिए मैं क्षमा मांगता हूँ ।’ जिस तरह गाय अपने बछड़े को चाटती है, उसी तरह नृसिंह भगवान प्रह्लाद जी को चाटने लगे ।

प्रह्लाद जी भगवान का वंदन करते हुए कहते हैं—‘मैंने जरा भी दु:ख सहन नहीं किया । मैं तो आपका नाम-स्मरण करते हुए आनंदमग्न रहता हूँ ।’

प्रह्लाद जी की अनन्य भक्ति के कारण भगवान प्रत्यक्ष प्रकट हुए । न केवल अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद को बल्कि घोर शत्रु हिरण्यकशिपु को भी नृसिंहरूप में दर्शन देकर उसका उद्धार कर दिया । 

२. भगवान को जानना

भक्त और भगवान में जब अटूट प्रेम होता है, तब भगवान अपने ईश्वरत्व का ज्ञान उसे करा देते हैं । अर्जुन और श्रीकृष्ण के ऐसे ही प्रेम के दर्शन गीता में कई जगह होते हैं, जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने परमात्म-स्वरूप का रहस्य बताते हुए कहते हैं—

‘अर्जुन ! तू मुझे बहुत अधिक प्रिय है । मैं तुझे गोपनीय-से-गोपनीय मेरी परम रहस्ययुक्त बात बता रहा  हूँ । तेरे हित की बात में तुझसे कहूंगा ।’  (१८।६४)

‘मेरे अनेक जन्म हुए हैं और तेरे भी अनेक जन्म हुए हैं । तुझमें और मुझमें यही अंतर है कि तू जीव है, नर है और मैं नारायण हूँ; इसलिए मैं अपने सम्पूर्ण जन्मों को जानता हूँ, तू अपने जन्मों को नहीं जानता ।’ 

गीता (१०।३९-४१-४२) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘हे अर्जुन ! समस्त सृष्टि का आदिकारण मैं ही हूँ । संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मुझसे रहित हो । जगत में जहां-जहां वैभव, तेज, लक्ष्मी दीखती है, वह सब मेरी विभूति का अंश समझो । समस्त ब्रह्माण्ड को मेरे एक अंश ने घेर रखा है ।’

और ‘मैं चार स्वरूप धारण करके सदैव समस्त लोकों की रक्षा करता रहता हूँ—मेरी एक मूर्ति इस भूमण्डल पर बदरिकाश्रम में नर-नारायणरूप में तपस्या में लीन रहती है । दूसरी परमात्मारूप मूर्ति अच्छे-बुरे कर्म करने वाले जगत को साक्षीरूप में देखती रहती है । तीसरी मूर्ति मनुष्यलोक में अवतरित होकर नाना प्रकार के कर्म करती है । चौथी मूर्ति (विष्णु) सहस्त्रों युगों तक एकार्णव (क्षीरसागर) के जल में शयन करती है । जब मेरा चौथा स्वरूप योगनिद्रा से उठता है, तब भक्तों को अनेक प्रकार के वर प्रदान करता है ।’

अर्जुन के अनन्य प्रेम के कारण ही गीता की अमृतधारा भगवान के मुख से बह निकली जो आज त्रिभुवन को पावन कर रही है ।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परमात्मा-स्वरूप का रहस्य उत्तंक मुनि को भी समझाते हुए कहा था—

‘जिसको लोग सत्-असत्, व्यक्त-अव्यक्त और अक्षर-क्षर कहते हैं, वह सब मेरा ही रूप है । इनसे परे जो विश्व है, वह सब मुझ सनातन देवदेव के सिवा और कुछ भी नहीं है । ॐकार से आरम्भ होने वाले चारों वेद मुझे ही समझिये । मैं धर्म की स्थापना और रक्षा के लिए अनेकों योनियों में अवतार धारण करता हूँ और भिन्न-भिन्न रूप बना कर तीनों लोकों में विचरता रहता हूँ । मैं ही विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र तथा सबकी उत्पत्ति और प्रलय का कारण हूँ ।’

३. भगवान में प्रवेश करना

भगवान से अनन्य प्रेम एक ऐसी अमूल्य निधि है, जिसे पाकर संसार की अपार सम्पत्ति, उच्चाधिकार, विशाल वैभव और उच्च-कुल में जन्म–सब कुछ पीछे छूट जाता है, रह जाती है सिर्फ दीवानगी । प्रेमरस में छकी मीरा नाचती और गाती—

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।।

मीरा की सखियां कहतीं–‘अरी बाबरी ! तू तो बेसुध होकर गा रही है । पर वह तेरा सांवरा कितना निष्ठुर है, जो कभी तेरे पास आता नहीं ।’

तब मीरा सखियों से कहती–‘मेरे गोपाल तो मेरे साथ ही नाचते हैं’—‘सखी री मेरे संग संग नाचे गोपाल ।’

जब भक्त भगवान के लिए व्याकुल हो जाता है, तब भगवान भी उससे मिलने के लिए वैसे ही व्याकुल हो उठते हैं । भक्त भगवान को बाध्य कर देता है । मीरा के निकट भगवान को बाध्य होकर आना पड़ा । मीरा को नृत्यावस्था में उन्मत्त देख भगवान रणछोड़राय जी ने अपनी हृदयेश्वरी को अपने हृदय में विराजमान कर लिया । मीरा सदेह उनके श्रीविग्रह में विलीन हो गई—

गिरधर के तन से मिल्यो, ललित चूनरी छोर ।
काहू कोनहिं लखि परयो मीरा गई किस ओर ।।

लोग ठगे से अवाक् रह गए । मीरा की चुनरी और भगवान के पीताम्बर का अमिट गठजोड़ हो गया । कौन किससे मिला, यह कहना कठिन है । भक्तों को ऐसे दिव्य मिलन की याद दिलाने के लिए मीरा की मतवाली चूनर का छोर लहराता रहा ।भगवान से एकाकार होने का एक और बहुत सुंदर उदाहरण देवी आण्डाल का है, जिंन्हें ‘दक्षिण भारत की मीरा’ कहा जाता है । भगवान में प्रेम की लगन जब लग जाती है, तब उसका माधुर्य इतना हृदयस्पर्शी होता है कि उसका अनुभव सिर्फ प्रेमी-भक्त ही कर सकता है । भगवान रंगनाथ के प्रेम में मतवाली होकर देवी आण्डाल ने मन्दिर में प्रवेश किया और भगवान की शेषशय्या पर चढ़ गयीं । चारों ओर दिव्य प्रकाश फैल गया और लोगों के देखते-ही-देखते आण्डाल सबके सामने भगवान रंगनाथ में विलीन हो गयी । प्रेमी और प्रेमास्पद एक हो गए और आण्डाल अब ‘रंगनायकी’ बन गयी ।