bhagwan vishnu bhakti sheshnaag sudarshan chakra

शालग्राम शिला या भगवान की प्रतिमा के चरणों से स्पर्श किए हुए व उनके स्नान के जल को ‘चरणामृत’ या ‘चरणोदक’ कहते हैं; इसलिए चरणामृत को भगवान का आशीर्वाद माना जाता है । हिन्दू धर्म में चरणामृत को अमृत के समान और अत्यंत पवित्र माना गया है । जिस प्रकार तुलसी के पौधे से स्पर्श की हुई वायु वहां के वातावरण को सुगंधित, सुवासित व पवित्र कर देती है; उसी प्रकार साक्षात् भगवान की प्रतिमा को स्पर्श किया हुआ जल अमृतमय हो जाता है ।

चरणामृत और सामान्य जल के अंतर को मनुष्य के चर्मचक्षुओं (आंखों) से नहीं जाना जा सकता । इस अंतर को तो केवल दिव्य दृष्टि, अंतर्चक्षु एवं सूक्ष्म बुद्धि से ही पहचाना जा सकता है । 

चरणामृत ग्रहण करने के चमत्कारी लाभ

हिन्दू संस्कृति में मंदिर जाना, भगवान के दर्शन करना, घण्टा बजाना, आरती-चंदन तिलक लेना, चरणामृत- प्रसाद ग्रहण करना, मंदिर की परिक्रमा करना आदि भगवान का आभार मानने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की क्रियाएं हैं । लेकिन इन क्रियाओं का आध्यात्मिक के साथ वैज्ञानिक लाभ भी है । हमारे ऋषि-मुनि व पूर्वजों ने स्वास्थ्य के लिए उपयोगी अनेक वैज्ञानिक तथ्यों को धार्मिक रूप दे दिया; जिनको करने से मन प्रसन्न रहता है और मनुष्य आस्था की एक विशेष ऊर्जा से सम्पन्न रहता है । भाव का रोग से सीधा सम्बन्ध है । सकारात्मक भाव मनुष्य की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं ।

▪️चरणामृत की बड़ी महिमा है; अनेक रोगों का नाशक है । विशेष कर शालग्राम भगवान का चरणामृत भौतिक दृष्टि से त्रिदोषनाशक होता है । इसका कारण यह है कि शालग्रामशिला में स्वर्ण की मात्रा रहती है । चरणामृत तांबे के पात्र में तुलसी के साथ रखा जाता है । इसलिए इसमें तांबे के औषधि गुण होते हैं । साथ ही  तुलसी स्वयं में एक औषधि है । आयुर्वेद में औषधियों के साथ अनेक रोगों में तुलसी का अनुपान रूप से विधान किया गया है । इस प्रकार चरणामृत जीवनी-शक्ति बढ़ाने वाले गुणों से युक्त होता है । 

चरणामृत के लिए कहा गया है—

अकालमृत्युहरणम्, सर्वव्याधिविनाशनम् ।
विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।

अर्थात्—यह चरणामृत अकाल मृत्यु को दूर करता है । समस्त रोगों का नाशक है । शालग्राम शिला के स्नान किए जल का पान करने से तो मनुय्य का पुनर्जन्म ही नहीं होता है ।

▪️ इसको ग्रहण करने से मनुष्य का अंतर्मन पवित्र हो जाता है ।

▪️ भगवान के चरणामृत की महिमा के सम्बन्ध में कहा गया है कि चरणामृत को जो मनुष्य एक क्षण के लिए भी अपने मस्तक से लगाता है, उसे तत्काल सब तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त हो जाता है । साथ ही भगवान का प्रिय होकर वह उनका कृपा प्रसाद प्राप्त करता है ।

▪️ कुछ रोग मनुष्य के पूर्व में किए गए पापकर्मों से उत्पन्न होते हैं । उन पाप-व्याधियों को दूर करने के लिए चरणामृत सर्वश्रेष्ठ औषधि है ।

चरणामृत लेने के नियम

चरणामृत में भगवान का आशीर्वाद, आनन्द और अनुग्रह छिपा होता है, अत: मनुष्य के लिए यह अनमोल निधि है; इसलिए इसे ग्रहण करने के कुछ नियम हैं । जैसे—

  • चरणामृत सीधे हाथ में शांत मन से पूर्ण श्रद्धा भाव से लेना चाहिए ।
  • ध्यान रहे, चरणामृत की एक बूंद भी जमीन पर गिरने न पाए ।
  • चरणामृत झूठे हाथों से नहीं लेना चाहिए ।
  • चरणामृत को हथेली से ऐसे पीना चाहिए कि हाथ का होठों से स्पर्श न हो ।
  • चरणामृत का पान करके हाथ को सिर पर ऐसे फेरना चाहिए मानो भगवान का आशीर्वाद सिर पर धारण कर रहे हों ।
  • आजकल अधिकांश लोग मुंह में गुटखा, तम्बाकू या पान मसाला खाते रहते हैं । मुंह में इन तामसी वस्तुओं के होने पर भगवान का अमृत रूप चरणामृत नहीं ग्रहण करना चाहिए ।

चरणामृत की महिमा दर्शाती एक पौराणिक कथा

अत्यंत प्राचीन काल में गुलिक नाम का एक व्याधों का सरदार था । उसमें समस्त अवगुण थे । जैसे—जीव-जंतुओं के लिए वह यमराज के समान था, परायी स्त्री, पराये धन को लूटना, देवताओं की संपत्ति हड़पना आदि । एक बार वह सौवीर राज्य में गया । वहां राजा के उद्यान में भगवान विष्णु का बहुत सुन्दर मंदिर बना था, जिसमें अनेकों सोने के कलश लगे थे । वह उन कलशों की चोरी करने के उद्देश्य से मंदिर के अंदर गया । 

मंदिर में महर्षि उतंक बड़ी तन्मयता से भगवान विष्णु की सेवा-पूजा कर रहे थे । व्याध को वह महर्षि अपने चोरी के कार्य में विघ्न के समान लगे । व्याध ने महर्षि को जटा पकड़ कर पृथ्वी पर गिरा गिया और तलवार उनकी छाती पर रख दी ।

महर्षि ने व्याध को समझाते हुए कहा—‘तुमने दूसरों का धन लूट कर अपनी स्त्री और बच्चों का पालन-पोषण किया है, किन्तु अंतकाल में मनुष्य सबको छोड़ कर अकेले ही परलोक की यात्रा करता है  । पुरुष जब तक धन कमाता है, तभी तक परिवारीजन उससे सम्बन्ध रखते हैं; परन्तु परलोक में मनुष्य के साथ उसका धर्म ही जाता है । अधर्म से कमाये हुए धन के द्वारा तुमने जिन लोगों का पालन-पोषण किया है, वे ही मरने पर तुम्हें आग के मुख में झोंक कर स्वयं घी के पकवान खाएंगे । धन को परिवार भोगता है और मूर्ख व्यक्ति अपने पापों को अकेला भोगता है ।’

‘मनुष्य के पांचभौतिक शरीर छोड़ने पर उसका समस्त धन तिजोरी (भूमि) में ही पड़ा रह जाता है, पशु पशुशाला में बंधे रह जाते हैं, उसकी प्रिय पत्नी शोक से विह्वल होकर भी केवल दरवाजे तक साथ देती है, मित्र व परिवारीजन शमशान तक साथ जाते हैं और उसका अपना शरीर जिसका जीवन-भर उसने इतना ध्यान रखा, केवल चिता तक साथ देता है । आगे परलोक के मार्ग में केवल उसका धर्म ही साथ जाता है। इसलिए धर्म ही मनुष्य का सच्चा साथी है ।’

ब्राह्मण की बात सुनकर व्याध व्याकुल हो उठा और महर्षि के चरणों में गिर कर कहने लगा—‘मैं तो जिंदगी भर पाप का ही आचरण करता रहा । पूर्व जन्म के पापों के कारण मैं व्याध-कुल में उत्पन्न हुआ । अब मेरा उद्धार कैसे होगा ।’

हृदय में प्रायश्चित की वेदना इतनी तीव्र उठी कि व्याध ने प्राण त्याग दिए । महर्षि उतंक ने भगवान विष्णु के चरणोदक से व्याध के पूरे शरीर को सींच दिया । चरणामृत के स्पर्श से उसके समस्त पाप नष्ट हो गए और वह भगवान विष्णु के दिव्य धाम में चला गया ।

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