bhagwan ganesh maharishi vyasa

प्राय: ग्रंथों की रचना करते समय उनकी सफलतापूर्वक समाप्ति के लिए आरम्भ में कोई श्लोक, पद्य या मंत्र लिखा जाता है । इसी तरह किसी शुभ कार्य को शुरु करते समय मंगल कामना के लिए जो श्लोक, पद्य या मंत्र कहा जाता है, उसे ‘मंगलाचरण’ कहते हैं । अक्सर हम देखते हैं कि संगीत समारोह की शुरुआत गणेश वंदना या सरस्वती वंदना से की जाती है ।

मंगलाचरण क्यों किया जाता है ?

मनुष्य जब कभी सत्कर्म करता है तो मानव का संचित पाप विघ्न डालने आ पहुंचता है । इस पाप के विनाश के लिए मंगलाचरण आवश्यक है । जब कोई मनुष्य बहुत अधिक भक्ति करता है, तब देवगणों को ईर्ष्या होती है है और वे भी विघ्न उपस्थित कर देते हैं । देवताओं को भय रहता है कि यदि यह मनुष्य हमसे श्रेष्ठ होगा तो हमारे ही सिर पर पांव रख कर भगवान के धाम में पहुंचेगा । अत: देवताओं से प्रार्थना करनी आवश्यक होती है कि—‘हे देव ! आप हमारे सत्कार्य में विघ्न उपस्थित न करना ।’

पूज्य डोंगरे जी महाराज ने इस बात को बहुत सुंदर प्रसंग से समझाया है—

एक बार श्रीकृष्ण हस्तिनापुर में धर्मराज युधिष्ठिर की राज सभा में बैठे थे । तब एक ऋषि ने कहा कि शास्त्र में वर्णन है कि जब कोई मनुष्य परमात्मा का ध्यान करने बैठता है, तब एक लाख पुरुष उसमें विघ्न डालने आ जाते हैं । भगवान की कथा सुनने और दर्शन करने की इच्छा होने पर पचास हजार विघ्न-पुरुष उपस्थित हो जाते हैं । दान की इच्छा होने पर पच्चीस हजार विघ्न आकर उसको रोकते हैं । गंगा स्नान को जाने पर साढ़े बारह हजार विघ्न-पुरुष रुकावट डालते हैं ।

भीमसेन को ऋषि की बात पर विश्वास नहीं हुआ । उन्होंने श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए कहा—‘शास्त्र में लिखा सब सच ही हो, ऐसा नहीं है । कभी-कभी अतिशयोक्ति भी होती है । गंगा-स्नान में कौन विघ्न डालता है ?’

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘भीमसेन ! शास्त्र जिन ऋषियों ने लिखे हैं, उन्हें कोई स्वार्थ नहीं था, वे क्यों झूठ लिखेंगे ? वृक्षों के नीचे रहने वाले और कंद-मूल पर जीवन-निर्वाह करने वाले ऋषिगणों ने ईश्वर की प्रेरणा से ही शास्त्र लिखे हैं । विघ्न करने वाला दिखाई नहीं देता पर विघ्न आते ही रहते हैं ।’

भीमसेन ने कहा—‘अच्छा, मैं देखता हूँ, गंगा-स्नान में कौन विघ्न डालता है ? जो भी विघ्न डालेगा, मैं उसे मार डालूंगा ।’

यह कह कर भीमसेन हाथ में गदा लेकर गंगाजी के तट पर जा पहुंचे । वे वहां बारह घण्टे तक खड़े देखते रहे कि कहीं कोई विघ्न-पुरुष तो आ नहीं रहा है । भीमसेन के सामने लोग गंगाजी में स्नान करके जाते रहे ।

बारह घण्टे बाद भीमसेन ने वापिस आकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा—‘शास्त्र की यह बात झूठी है । मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखा है कि गंगा-स्नान में कोई विघ्न नहीं डालता है ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘शास्त्र झूठा है, ऐसा नहीं कहना चाहिए । तुम वहां बारह घण्टे खड़े रहे, तुमने गंगा जी में स्नान किया कि नहीं ?’

भीमसेन ने कहा—‘मैं तो वहां गदा लेकर विघ्न-पुरुष का इंतजार कर रहा था ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा—‘तुमने गंगा जी को प्रणाम किया ?’

भीमसेन ने उत्तर दिया—‘नहीं, मैंने गंगा जी को प्रणाम नहीं किया ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘तब तो शास्त्र की बात बिल्कुल सच्ची है । तुम्हारे जैसे वीर को भी किसी ने पकड़ कर रखा था, तभी तो गंगा तट पर बारह घण्टे खड़े रह कर भी तुमने न तो गंगा जी को प्रणाम किया और न ही स्नान किया ।’

सत्कर्म में विघ्न आते ही हैं, इसीलिए सत्कर्म के आरम्भ में मंगलाचरण करना चाहिए । परमात्मा का सब कुछ मंगलमय है; इसलिए मंगलाचरण में परमात्मा के ध्यान करने की आज्ञा दी गई है । 

श्रीमद्भागवत पुराण का मंगलाचरण

श्रीमद्भागवत में तीन बार मंगलाचरण आते हैं । प्रथम स्कन्ध के आरंभ में व्यास जी का, भागवत के मध्य में शुकदेव जी का और समाप्ति में सूत जी का मंगलाचरण है । 

श्रीमद्भागवत के मंगलाचरण में व्यास जी कहते हैं ‘सत्यं परं धीमहि’ अर्थात् परमात्मा जो सबसे श्रेष्ठ है, प्रकाशमय है, सत्य है; उनका ध्यान हम कर रहे हैं । व्यास जी ने भगवान का ध्यान करने की आज्ञा दी है; क्योंकि इससे अमंगल दूर होता है—

‘जिससे इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं, क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक् है; जड़ नहीं चेतन है; परतंत्र नहीं स्वयंप्रकाश है, जो ब्रह्मा अथना हिरण्यगर्भ नहीं बल्कि उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेद-ज्ञान का दान किया है ……….उस अपनी स्वयंप्रभा ज्योति से सर्वदा और सर्वदा माया और मायाकार्य से पूर्णत: मुक्त रहने वाले परम सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं ।’

महाभारत में भगवान व्यास ने मंगलाचरण इस प्रकार किया है—

नारायण नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।

अर्थात्—नारायण (श्रीकृष्ण), नर (अर्जुन), सरस्वती और स्वयं व्यास जी को नमस्कार है । 

रामचरितमानस के आरम्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा किया गया मंगलाचरण इस प्रकार है—

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ।।१।।

अर्थाक्—वर्णों (अक्षरों), अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वती जी और गणेश जी की मैं वन्दना करता हूँ।

अन्य मंगलाचरणों में तुलसीदास जी ने भगवान शंकर-पार्वती और गणेश जी की वंदना की है—

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम् ।।

अर्थात्—श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप पार्वती जी और भगवान शंकर जी की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख पाते ।

गाइए गनपति जगवंदन ।
शंकर सुवनभवानीनंदन ।।
सिद्धिसदन गजवदन विनायक ।
कृपा सिंधु सुन्दर सब लायक ।।
मोदक प्रिय मुद मंगल दाता ।
विद्या बारिधि बुद्धि विधाता ।।
मांगत तुलसिदास कर जोरे ।
बसहिं रामसिय मानस मोरे ।।