जैसे देवताओं में भगवान विष्णु, प्रकाश-तत्त्वों में सूर्य, नदियों में गंगा प्रमुख हैं; वैसे ही व्रतों में सर्वश्रेष्ठ व्रत एकादशी-व्रत को माना गया है । इस तिथि को जो कुछ दान किया जाता है, भजन-पूजन किया जाता है, वह सब भगवान श्रीहरि के पूजित होने पर पूर्णता को प्राप्त होता है अर्थात् प्रत्येक पुण्य कर्म अनंत फल देता है । मनुष्य के सात जन्मों के कायिक, वाचिक और मानसिक पाप दूर हो जाते हैं और भगवान श्रीहरि पूजित होने पर संतुष्ट होकर प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं ।
यदि मनुष्य को श्रीहरि की प्रसन्नता व सांनिध्य चाहिए तो व्रत के नियम का पालन करना अनिवार्य है । एकादशी-व्रत के नियमानुसार इस दिन अन्न खाना निषिद्ध है, विशेष रूप से चावल (चावल से बना पोहा, लाई आदि) नहीं खाना चाहिए । एकादशी को व्रत करके रात्रि में जागरण व कीर्तन करने का विधान है; जिससे व्रती के सभी पाप भस्म होकर विष्णुलोक की प्राप्ति होती है ।
नामदेवजी की एकादशी व्रत के प्रति निष्ठा
एक बार भगवान विट्ठल के मन में उमंग उठी कि नामदेवजी के एकादशी-व्रत की परीक्षा करनी चाहिए । यह विचार कर भगवान ने एक अत्यंत दुर्बल ब्राह्मण का रूप धारण किया और एकादशी के दिन नामदेवजी के घर जाकर बड़ी दीनता से पुकारने लगे–’मैं बहुत भूखा हूँ, कई दिन से भोजन नहीं मिला है, मुझे कुछ अन्न दो ।’
अत्यंत दीन याचक को देख कर नामदेवजी ने कहा–’आज तो एकादशी है, अन्न नहीं दूंगा, कुछ फलाहार (दूध, फल आदि) कर लीजिए । प्रात:काल जितनी इच्छा हो, उतना अन्न ले लीजिएगा ।’
बहुत देर तक नामदेवजी याचक को फलाहार लेने के लिए मनाते रहे; लेकिन याचक अन्न ही लेने की बात पर अड़ा रहा और नामदेवजी एकादशी के दिन अन्न नहीं देने की हठ कर रहे थे ।
—————————
शास्त्रों के अनुसार एकादशी के दिन अन्न (गेहूं, चावल आदि) खाने व देने से पाप लगता है, इसके लिए कहा गया है कि—‘ब्रह्महत्या आदि समस्त पाप एकादशी के दिन अन्न में रहते हैं । अत: एकादशी के दिन जो अन्न का भोजन करता है, वह पाप-भोजन करता है ।’ यदि एकादशी का व्रत न भी कर सकें तो इस दिन चावल और उससे बने पदार्थ नहीं खाने चाहिए और न किसी को देने चाहिए ।
—————————-
कुछ ही समय में नामदेवजी और याचक की हठ की खबर चारों ओर फैल गई । लोग नामदेवजी के घर के बाहर इकट्ठे हो गए । वे नामदेवजी को समझाने लगे कि वे इस दुर्बल भूखे ब्राह्मण पर क्रोध न करें और इसे खाने के लिए कुछ अन्न दे दें; लेकिन नामदेवजी नहीं माने ।
दिन का चौथा पहर बीतने पर वह भूखा ब्राह्मण इस प्रकार पैर फैला कर लेट गया, मानो मर गया हो । गांव के लोग नामदेवजी की एकादशी-व्रत के प्रति निष्ठा को नहीं जानते थे । अत: उन्होंने नामदेवजी पर ब्रह्म-हत्या का पाप लगा कर समाज से बहिष्कृत कर दिया । लेकिन नामदेवजी इससे बिल्कुल भी चिंतित नहीं हुए ।
एकादशी-व्रत के अपने नियम के अनुसार नामदेवजी ने रात्रि भर जागरण और कीर्तन किया । प्रात:काल होते ही उन्होंने चिता बनाई और उस ब्राह्मण के मृत शरीर को गोद में लेकर चिता पर बैठ गए । लोगों ने जब ऐसा करने से मना किया तो उन्होंने कहा–’इस हत्यारे शरीर को न रख कर प्रायश्चितस्वरूप इसे भस्म कर देना ही उत्तम है ।’
उसी समय भगवान प्रकट हो गए और मुसकरा कर कहने लगे–’मैंने तो तुम्हारी परीक्षा ली थी । तुम्हारी एकादशी-व्रत के प्रति निष्ठा मैंने देख ली । वह मेरे मन को बहुत प्रिय लगी, मुझे उससे बहुत सुख मिला ।’
ऐसा कह कर भगवान अंतर्ध्यान हो गए । लोगों ने जब भगवान की यह लीला देखी तो वे नामदेवजी के चरणों में नतमस्तक हो गए और उनके भक्त बन गए ।
एक बार नामदेवजी के घर एकादशी की रात्रि में कीर्तन व जागरण हो रहा था । कीर्तन में उपस्थित भक्तों को प्यास लगी तो नामदेवजी जल लाने नदी पर गए । लेकिन मार्ग में एक प्रेत के भय से कोई भी व्यक्ति उनके साथ नहीं आया । नामदेवजी को आया देख कर प्रेत ने विकराल रूप धारण कर लिया और अपने साथियों सहित उनके चारों ओर फेरी लगाने लगा । नामदेवजी इससे जरा भी भयभीत नहीं हुए । प्रेत को अपने भगवान का स्वरूप मान कर उन्होंने कमर पर बंधे फेंटे में से झांझ निकाल ली और पद गाने लगे । तुरंत ही प्रेत न जाने कहां गायब हो गया और सांवले सलौने श्यामसुन्दर वहां प्रकट हो गए ।
भगवान ने नामदेवजी की एकादशी-व्रत के प्रति निष्ठा की प्रशंसा की और अंतर्ध्यान हो गए । अपने इष्ट का दर्शन पाकर नामदेवजी भी अत्यंत प्रसन्न होकर कीर्तन करते हुए भक्तों को जल पिलाने चल दिए ।