सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलियुग—इन चार युगों की जब एक हजार बार समाप्ति होती है, तब ब्रह्माजी का एक दिन पूर्ण होता है । ब्रह्माजी के एक दिन में चौदह मन्वन्तर होते हैं अर्थात् चौदह मनु राज्य करते हैं और प्रत्येक मन्वन्तर में भगवान अवतार धारण करते हैं । इस तरह ब्रह्माजी के एक दिन में भगवान के अनेक अवतार होते हैं ।
स्वायम्भुव मन्वन्तर में भगवान का ‘यज्ञावतार कपिल अवतार’ हुआ । द्वितीय मन्वन्तर में भगवान का ‘विभु’ नामक अवतार हुआ । तृतीय मन्वन्तर में भगवान का ‘सत्यसेन’ के नाम से अवतार हुआ । चौथे मन्वन्तर में ‘श्रीहरि’ अवतार हुआ । भगवान ने हरिमेधस ऋषि की पत्नी हरिणी में अवतार धारण किया और ‘श्रीहरि’ कहलाये । भगवान का यह अवतार अपने आर्त भक्त गजेन्द्र की ग्राह से रक्षा के लिए हुआ था । भगवान अपने पुकारने वालों की कैसे रक्षा करते हैं और उनके रक्षण में उनकी कैसी तत्परता रहती है—श्रीमद्भागवत का ‘गजेन्द्र-मोक्ष’ का प्रसंग यही बताता है ।
गजेन्द्र और ग्राह का पूर्वचरित्र
अत्यंत प्राचीनकाल में द्रविड देश में पाण्ड्यवंशी राजा इन्द्रद्युम्न राज्य करते थे । राजा इन्द्रद्युम्न दिन-रात भगवान की आराधना यह सोचकर किया करते—‘भगवान ही इस राज्य की व्यवस्था करते हैं । उनका राज्य है, वे ही इसकी चिन्ता करें ।’
एक दिन वे परम तपस्वी होकर मलय पर्वत पर चले गए और मन-प्राण से श्रीहरि के मधुकर बनकर तप में लग गए । एक बार वे प्रभु की उपासना में तल्लीन थे और बाह्य जगत् का उन्हें जरा भी ध्यान न था । उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने शिष्यों के साथ वहां आ पहुंचे ।
‘न पाद्य, न अर्घ्य, न स्वागत । ब्राह्मणों का अपमान करने वाला यह हाथी के समान जडबुद्धि है, इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो ।’ महर्षि अगस्त्य के शाप से राजा इन्द्रद्युम्न गजेन्द्र हो गए ।
महर्षि देवल के शाप से हूहू गंधर्व ग्राह (मगर) हो गये । एक बार हूहू गंधर्व एक सरोवर में अप्सराओं के साथ क्रीड़ा कर रहा था । देवल ऋषि उस सरोवर में स्नान कर रहे थे । वह हूहू गंधर्व जानबूझकर ऋषि के पास जाकर डुबकी लगा कर उनके पांव खींचने लगा । इससे ऋषि को क्रोध आ गया और उन्होंने शाप देते हुए कहा—‘तुम ग्राह की तरह काम करते हो, इसलिए ग्राह हो जाओ ।’
हूहू गंधर्व के क्षमा मांगने पर ऋषि ने कहा—‘जब भगवान गजेन्द्र का उद्धार करेंगे, तब तुम्हारा भी उद्धार हो जाएगा ।’
गजेन्द्न-मोक्ष के लिए भगवान का श्रीहरि अवतार
एक बार गजेन्द्र त्रिकूट पर्वत के गहन वन में एक सुन्दर सरोवर में अपनी हथिनियों के संग जल-विहार कर रहे थे । तभी एक ग्राह ने उनका पैर पकड़ लिया । गजेन्द्र बाहर खींचना चाहते और ग्राह भीतर । जल कीचड़ होने लगा । कमल कीचड़ से मलिन हो गए । सरोवर में रहने वाले जीव व्याकुल हो गए । गजेन्द्र का बल थकित होने लगा । उसके साथ जो हजारों हथनियां थीं, उनके बच्चे थे, उन्होंने अपने-अपने सूंड़ से गजेन्द्र के पांव, पूंछ और सूंड़ पकड़ लिए । फिर उन पकड़ने वालों को दस-दस ने पकड़ा, फिर उन दस-दस को बीस-बीस ने पकड़ा, सब एक-दूसरे को खींचने में लग गए । लेकिन बहुत प्रयास करने पर भी गजेन्द्र अपने को ग्राह के चंगुल से छुड़ा न सका । इस युद्ध में सैंकड़ों वर्ष बीत गए । गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए । उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर हो गया ।
जब लगि गज बल अपनो बरत्यो, नेक सर्यो नहिं काम ।
निरबल ह्वै हरि नाम पुकार्यो, आये आधे नाम ।।
अप-बल, तप-बल और बाहु बल, चौथो है बल दाम ।
‘सूर’ किसोर कृपा तें सब बल, हारे को हरि नाम ।।
गजेन्द्र को जब तक अपने बल का घमंड रहा, तब तक उसने सब कुछ करके देख लिया किन्तु अपने को ग्राह से न बचा सका और अब उसका घमण्ड चूर हो गया । पूर्वजन्म की भगवदाराधना से उसे भगवत्स्मृति हो आई । गजेन्द्र पशु है फिर भी वह अंत समय में वह ‘हाय हाय’ नहीं करता वरन् वह पूर्वजन्म के संस्कार से ‘हरि हरि’ करने लगा । उसने सरोवर से एक कमल अपनी सूंड में उठाकर भगवान से इस मृत्यु-संकट से छुड़ाने की प्रार्थना की—
‘गजेन्द्र-स्तुति’
‘जो जगत् के मूल कारण हैं और सबके हृदय में पुरुष रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसार में चेतना जाग्रत होती है—उन भगवान के चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ, प्रेमपूर्वक उन्हीं प्रभु का ध्यान करता हूँ । प्रलयकाल में सब कुछ नष्ट हो जाने पर भी जो महामहिम परमात्मा बने रहते हैं, वे प्रभु मेरी रक्षा करें ।
नट के समान अनेक वेष धारण करने वाले प्रभु का वास्तविक स्वरूप एवं रहस्य देवता भी नहीं जानते, फिर अन्य कोई उसका कैसे वर्णन करे ? वे प्रभु मेरी रक्षा करें । जिन कल्याणमय प्रभु के दर्शन के लिए संत-महात्मागण सर्वस्व त्यागकर जितेन्द्रिय हो वन में अखण्ड तपस्या करते हैं, वे परमात्मा मेरी रक्षा करें ।
मैं सर्वशक्तिमान, सर्वैश्वर्यमय, सर्वसमर्थ प्रभु के चरणों में नमस्कार करता हूँ । मैं जीवित रहना नहीं चाहता । इस अज्ञानमय योनि में रहकर करुंगा ही क्या ? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकने वाले अज्ञान के आवरण से मुक्त होना चाहता हूँ, जो कालक्रम में अपने-आप नहीं छूट सकता, किन्तु केवल भगवत्कृपा और तत्वज्ञान द्वारा ही नष्ट होता है । अत: मैं उन श्रीहरि के चरणों में प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा से जीवन और मृत्यु के कठोर पाश से जीव सहज ही छूट जाता है ।
हे प्रभो ! आपकी माया के वश होकर जीव अपने स्वरुप को नहीं जान पाता । आपकी महिमा का पार नहीं । आप अनादि, अनन्त, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी एवं सौन्दर्यमाधुर्यनिधि हैं । मैं आपके शरण हूँ । आप मेरी रक्षा करें ।’
भगवान ने उसे ग्राह के बंधन से मुक्त करने में पलक झपकने का भी समय नहीं लगाया । आधा नाम लेते ही सहायता के लिए गरुड़ पर आरुढ़ होकर श्रीहरि दौड़ पड़े । उस समय तो उन्हें पक्षिराज गरुड़ की तीव्र गति भी धीमी जान-पड़ी और वे उन्हें छोड़ कर मन की गति से भी ज्यादा गति से दौड़ कर वहां प्रकट हो गए । सुदर्शन चक्र चमका और ग्राह अपने शरीर से छूट कर पुन: गंधर्व पद पा गया । गजेन्द्र को प्रभु ने अपने हाथों से उठाया । वे प्रभु का स्पर्श प्राप्त कर उनके दिव्य धाम में पार्षद हो गए । इस प्रकार भगवान ने मरने और मारने वाले दोनों का उद्धार एक साथ कर दिया ।
घोर संकट-नाशक ‘गजेन्द्र-स्तोत्र’ के पाठ का फल
गजेन्द्र द्वारा की गयी स्तुति ‘गजेन्द्र मोक्ष’ कहलाती है । श्रीमद्भागवत के आठवें स्कन्ध का तृतीय अध्याय ‘गजेन्द्र-स्तुति’ है ।
—भगवान का कथन है—‘प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्राह्ममुहुर्त में जगकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, मृत्यु के समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धि का दान करुंगा ।’
—गजेन्द्र-मोक्ष का पाठ करने वाला कदाचित अंतकाल में प्रभु को भूल जाए, पर प्रभु उसे नहीं भूलते हैं । परमात्मा उसका स्मरण रखते हैं और उसका मरण सुधरता है ।
—‘गजेन्द्र-स्तोत्र’ का पाठ किसी भी विपत्ति से बचने के लिए किया जाता है, खास करके ऋण-मुक्ति के लिए है । पं मदनमोहन मालवीयजी ‘गजेन्द्र-मोक्ष स्तोत्र’ में बड़ा विश्वास करते थे । उन्होंने लिखा है—‘मैं नाक भर ऋण में डूब गया था । इस चमत्कारी स्तोत्र के आर्तभाव के पाठ से मैं ऋण-मुक्त हो गया ।’
वे लोगों को आपत्ति-विपत्ति, व समस्त संकटों से छूटने के लिए गजेन्द्र-मोक्ष का पाठ करने का उपदेश दिया करते थे ।
—दु:स्वप्न-नाश के लिए प्रात:काल गदेन्द्र-मोक्ष का पाठ किया जाता है ।
गजेन्द्र-मोक्ष के प्रसंग से मनुष्य को क्या शिक्षा मिलती है ?
गजेन्द्र-मोक्ष की कथा से यह शिक्षा मिलती है—जीव गजेन्द्र है और वह संसार रूपी सरोवर में परिवार के साथ सुख भोग रहा है । लेकिन वह अनजान है कि जिस घर में वह सुख भोग रहा है, वहीं उसका काल बैठा है । काल रूपी मगर उसके पैर पकड़ता है तो पैरों की शक्ति क्षीण हो जाती है । घर के लोग उसे काल से छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं; परन्तु सफल नहीं होते हैं । ऐसे में यदि मनुष्य ने अपने जीवन में किसी मंत्र-जप या ईश्वराधना की होती है तो ईश्वर गजेन्द्र की तरह उसका उद्धार कर उसको सद्गति देते हैं ।
अंत समय में जीव सब कुछ भूल जाता है । अत: अंतकाल में ईश्वर को न भूल जाएं इसलिए मनुष्य को किसी एक मंत्र के साथ ऐसा प्रेम करना चाहिए जो हर समय सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते उसकी जिह्वा पर रहे । जब किसी भगवन्नाम से ऐसा प्रेम हो जाएगा तो अंत समय में भी वही नाम याद आएगा और गजेन्द्र की तरह मनुष्य की भी सद्गति हो जाएगी ।