bhagwan shiv mata annapurna

भगवान शंकर की गृहस्थी जितनी अद्भुत और बड़ी है शायद ही किसी की हो । पिता हैं चतुरानन (ब्रह्माजी), आप स्वयं हैं पंचानन और अपने एक पुत्र को बना दिया षडानन (छ: मुखवाला), दूसरे पुत्र के सिर पर हाथी का सिर जोड़ दिया और वे हैं लम्बोदर, स्वयं हैं भस्मांगधारी, श्मशानविहारी, तो आपकी अर्धांगिनी हैं साक्षात् अन्नपूर्णा पार्वती । ऋद्धि-सिद्धि और देवसेना उनकी पुत्रवधुएं हैं । एकादश रूद्र, रुद्राणियां, चौंसठ योगिनियां, मातृकाएं तथा भैरवादि इनके सहचर तथा सहचरी हैं । उनके निराले गण हैं–भूत, प्रेत, बेताल, डाकिनी-शाकिनी, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, क्षेत्रपाल, भैरव आदि ।

कुटुम्ब पालन की सामग्री के नाम पर भगवान शंकर के पास एक बाघचर्म, भस्म, सर्प, कपाल, त्रिशूल, एक बूढ़ा बैल, खटिए का पावा और फरसा मात्र हैं । खाने के लिए भांग-धतूरा, रहने के लिए सूनी दिशाएं, खेलने के लिए श्मशान और आभूषणों के लिए फुफकारते सर्प । ऐसी स्थिति में यदि मां अन्नपूर्णा न होतीं तो भोलेबाबा की गृहस्थी चलती कैसे ?

यह सब ऐश्वर्य पार्वतीजी का ही है जो इस अलबेले, अद्भुत परिवार को संभालती और पालती हैं । लेकिन भोलानाथ इतने भोले भी नहीं हैं । वे स्वयं तो ज्ञान, वैराग्य तथा साधुता के परम आदर्श बन कर देवों के देव महादेव बन बैठे और सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सौभाग्य और समृद्धि की स्वामिनी का पद अपनी अर्धांगिनी अन्नपूर्णा को सौंप दिया ।

माता अन्नपूर्णा की आराधना करने से मनुष्य को कभी अन्न का दु:ख नहीं होता है; क्योंकि वे नित्य अन्न-दान करती हैं । यदि माता अन्नपूर्णा अपनी कृपादृष्टि हटा लें तो मनुष्य दर-दर अन्न-जल के लिए भटकता फिरे; लेकिन उसे चार दाने चने के भी प्राप्त नहीं होते हैं । एक बार भगवान शंकर की आज्ञा से माता अन्नपूर्णा ने महर्षि वेदव्यास की तरफ से दृष्टि फेर ली । वेदव्यासजी अपने शिष्यों सहित दो दिनों तक काशी की गलियों में भिक्षा के लिए आवाज लगाते रहे थे, किन्तु उनको और उनके शिष्यों को कहीं से भी कुछ भी भिक्षा न मिल सकी ।

भगवान आदि शंकराचार्य ने मां अन्नपूर्णा की प्रसन्नता के लिए एक बहुत सुन्दर स्तोत्र की रचना की है । पाठकों के कल्याण के लिए ‘अन्नपूर्णा स्तोत्र’ हिन्दी अर्थ सहित इस पोस्ट में दिया जा रहा है ।

आदि शंकराचार्य कृत अन्नपूर्णा स्तोत्र (हिन्दी अर्थ सहित)

नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलघोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी ।
प्रालेयाचलवंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।। १ ।।

अर्थात्—देवि अन्नपूर्णा ! तुम सदैव सबका आनन्द बढ़ाया करती हो, तुमने अपने हाथ में वर तथा अभय मुद्रा धारण की हैं, तुम्हीं सौंदर्यरूप रत्नों की खान हो, तुम्हीं भक्तगणों के समस्त पाप विनाश करके उनको पवित्र करती हो, तुम्हीं साक्षात् माहेश्वरी हो और तुमने ही हिमालय का वंश पवित्र किया है, तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी हो, तुम्हीं अन्नपूर्णेश्वरी और जगत् की माता हो, कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

नानारत्नविचित्रभूषणकरी हेमाम्बराडम्बरी
मुक्ताहारविलम्बमानविलसद्वक्षोजकुम्भान्तरी ।
काश्मीरागरुवासितांगरुचिरे काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।।२ ।।

अर्थात्—देवि अन्नपूर्णा ! तुम्हीं अनेक प्रकार के विचित्र रत्नों से जड़े हुए आभूषण धारण करती हो, तुम्हीं ने स्वर्ण-रचित वस्त्र पहन करके मुक्तामय हार द्वारा दोनों स्तन सुशोभित किए हैं, सारे शरीर पर कुंकुम और अगर का लेपन करके अपनी शोभा बढ़ाई है, तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी हो, तुम्हीं अन्नपूर्णेश्वरी और जगत् की माता हो, कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्मार्थनिष्ठाकरी
चन्द्रार्कानलभासमानलहरी त्रैलोक्यरक्षाकरी ।
सर्वैश्वर्यसमस्तवांछितकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।। ३ ।।

अर्थात्—हे देवि ! तुम्हीं योगीजनों को आनन्द प्रदान करती हो, तुम्ही भक्तगणों के शत्रुओं का विनाश करती हो, तुम्हीं धर्मार्थ साधन में प्रीति बढ़ाती हो, तुमने ही चन्द्र, सूर्य और अग्नि की आभा धारण कर रखी है, तुम्हीं तीनों भुवनों की रक्षा करती हो, तुम्हारे भक्तगण जो इच्छा करते हैं, तुम उनको वही सब ऐश्वर्य प्रदान करती हो, हे माता ! तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी और जगत् की माता हो, कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

कैलासाचलकन्दरालयकरी गौरी उमा शंकरी
कौमारी निगमार्थगोचरकरी ओंकारबीजाक्षरी ।
मोक्षद्वारकपाटपाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।। ४ ।।

अर्थात्—हे अन्नपूर्णे ! तुम्हीं ने कैलास पर्वत की कंदरा में अपना निवास स्थापित किया है । हे माता ! तुम्हीं गौरी, तुम्हीं उमा और तुम्हीं शंकरी हो, तुम्हीं कौमारी हो, वेद के गूढ़ अर्थ को बताने वाली हो, तुम्हीं बीज मंत्र ओंकार की देवी हो और तुम्हीं मोक्ष-द्वार के दरवाजे खोलती हो, तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी और जगत् की माता हो, हे जननि ! कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

दृश्यादृश्यविभूतिवाहनकरी ब्रह्माण्डभाण्डोदरी
लीलानाटकसूत्रभेदनकरी विज्ञानदीपांकुरी ।
श्रीविश्वेशमन:प्रसादनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।। ५ ।।

अर्थात्—हे देवि ! तुम्हीं स्थूल और सूक्ष्म—समस्त जीवों को पवित्रता प्रदान करती हो, यह ब्रह्माण्ड तुम्हारे ही उदर में स्थित है, तुम्हारी लीला में सम्पूर्ण जीव अपना-अपना कार्य करते हैं, तुम्हीं ज्ञानरूप प्रदीप का स्वरूप हो, तुन्हीं श्रीविश्वनाथ का संतोषवर्द्धन करती हो । हे माता अन्नपूर्णेश्वरी ! तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी और जगत् की माता हो, कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

उर्वीसर्वजनेश्वरी भगवती मातान्नपूर्णेश्वरी
वेणीनीलसमानकुन्तलहरी नित्यान्नदानेश्वरी ।
सर्वानन्दकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।। ६ ।।

अर्थात्—हे अन्नपूर्णे ! तुम्हीं पृथ्वीमण्डल स्थित जनसमूह की ईश्वरी हो, तुम षडेश्वर्यशालिनी हो, तुम्हीं जगत् की माता हो, तुम्हीं सबको अन्न प्रदान करती हो । तुम्हारे नीलवर्ण केश वेणी रूप से शोभा पाते हैं, तुम्हीं प्राणीगण को नित्य अन्न प्रदान करती हो और तुम्हीं लोकों को अवस्था की उन्नति प्रदान करती हो । हे माता ! तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी और जगत् की माता हो, कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

आदिक्षान्तसमस्तवर्णनकरी शम्भोस्त्रिभावाकरी
काश्मीरात्रिजलेश्वरी त्रिलहरी नित्यांकुरा शर्वरी ।
कामाकांक्षकरी जनोदयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।। ७ ।।

अर्थात्—हे देवि ! लोग तन्त्रविद्या में दीक्षित होकर जो कुछ शिक्षा करते हैं, वह तुम्हीं ने वर्णन करके उपदेश प्रदान किया है । तुम्हीं ने हर (शंकरजी) के तीनों भाव (सत्, रज, तम) का विधान किया है, तुम्हीं काश्मीर वासिनी शारदा, अम्बा, भगवती हो, तुम्हीं स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन तीनों लोकों में ईश्वरीरूप से विद्यमान रहती हो । तुम्हीं गंगा, यमुना और सरस्वती—इन तीन रूपों से पृथ्वी में प्रवाहित रहती हो, नित्य वस्तु भी सब तुम्हीं से अंकुरित होती है, तुम्हीं शर्वरी (रात्रि) के समान चित्त के सभी व्यापारों को शांत करने वाली हो, तुम्हीं सकाम भक्तों को इच्छानुसार फल प्रदान करती हो और तुम्हीं सभी जनों का उन्नति साधन करती हो । हे जननि ! केवल तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी और जगत् की माता हो । हे माता अन्नपूर्णेश्वरी ! तुम्हीं कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

देवी सर्वविचित्ररत्नरचिता दाक्षायणी सुन्दरी
वामं स्वादु पयोधरप्रियकरी सौभाग्यमाहेश्वरी ।
भक्ताभीष्टकरी सदाशुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।। ८ ।।

अर्थात्—हे देवि ! तुम सर्व प्रकार के विचित्र रत्नों से विभूषित हुई हो, तुम्हीं दक्षराज के गृह में पुत्री रूप से प्रकट हुई थीं, तुम्हीं केवल जगत की सुन्दरी हो, तुम्हीं अपने सुस्वादु पयोधर प्रदान करके जगत् का प्रिय कार्य करती हो, तुम्हीं सबको सौभाग्य प्रदान करके महेश्वरी रूप में विदित हुई हो, तुम्हीं भक्तगणों को वांछित फल प्रदान करती हो और उनकी बुरी अवस्था को शुभ रूप मे बदल देती हो । हे माता ! केवल तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी हो, तुम्हीं अन्नपूर्णेश्वरी और जगत् की माता हो, कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

चन्द्रार्कानलकोटिकोटिसदृशा चन्द्रांशुबिम्बाधरी
चन्द्रार्काग्निसमानकुन्तलधरी चन्द्रार्कवर्णेश्वरी ।
मालापुस्तकपाशसांकुशधरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।। ९ ।।

अर्थात्—हे देवि ! तुम्हीं कोटि-कोटि चन्द्र, सूर्य और अग्नि के समान उज्ज्वल प्रभाशालिनी हो, तुम चन्द्र किरणों के तथा बिम्ब फल के समान अधरों से युक्त हो, तुम्हीं चन्द्र, सूर्य  और अग्नि के समान उज्ज्वल कुण्डलधारिणी हो, तुमने ही चन्द्र, सूर्य के समान वर्ण धारण किया है, हे माता ! तुम्हीं चतुर्भुजा हो, तुमने चारों हाथों में माला, पुस्तक, पाश और अंकुश धारण किया है । हे अन्नपूर्णे ! तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी और जगत् की माता हो, कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

क्षत्रत्राणकरी महाऽभयकरी माता कृपासागरी ।
साक्षान्मोक्षकरी सदा शिवकरी विश्वेश्वरश्रीधरी ।।
दक्षाक्रन्दकरी निरामयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ।। १० ।।

अर्थात्—हे माता ! तुम्हीं क्षत्रियकुल की रक्षा करती हो, तुम्हीं सबको अभय प्रदान करती हो, प्राणियों की माता हो तुम्हीं कृपा का सागर हो, तुम्हीं भक्तगणों को मोक्ष प्रदान करती हो, और सर्वदा सभी का कल्याण करती हो, हे माता तुम्हीं विश्वेश्वरी हो, तुम्हीं संपूर्ण श्री को धारण करती हो, तुम्हीं ने दक्ष का नाश किया है और तुम्हीं भक्तों का रोग नाश करती हो । हे अन्नपूर्णे ! तुम्हीं काशीपुरी की अधीश्वरी और जगत् की माता हो, कृपा करके मुझको भिक्षा प्रदान करो ।

अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राणवल्लभे ।
ज्ञानवैराग्यसिद्धयर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ।। ११ ।।

अर्थात्—हे अन्नपूर्णे ! तुम्हीं सर्वदा पूर्ण रूप से हो, तुम्हीं महादेव की प्राणों के समान प्रियपत्नी हो । हे पार्वति ! तुम्हीं ज्ञान और वैराग्य की सिद्धि के निमित्त भिक्षा प्रदान करो, जिसके द्वारा मैं संसार से प्रीति त्याग कर मुक्ति प्राप्त कर सकूं, मुझको यही भिक्षा प्रदान करो ।

माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वर: ।
बान्धवा: शिवभक्ताश्च स्वदेशोभुवनत्रयम् ।। १२ ।।

अर्थात्—हे जननि ! पार्वती देवी मेरी माता, देवाधिदेव महेश्वर मेरे पिता शिवभक्त गण मेरे बांधव और तीनों भुवन मेरा स्वदेश है। इस प्रकार का ज्ञान सदा मेरे मन में विद्यमान रहे, यही प्रार्थना है ।

।। इति श्रीमच्छंकराचार्य विरचित अन्नपूर्णा स्तोत्रम् ।।

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