bhagwan shiv trishul aashirvaad

भक्ति का प्रभाव ही ऐसा है कि वह भक्त की सात पीढ़ी को तार देता है । प्रह्लाद जी की भक्ति से उनका सारा वंश ही भक्त हो गया । प्रह्लाद जी के पौत्र राजा बलि को छलने के लिए भगवान वामन रूप में आए; लेकिन बलि के प्रेमपाश में बंधकर आज तक उनके द्वार पर द्वारपाल बनकर विराजमान हैं ।

इन्हीं राजा बलि के सबसे बड़े पुत्र बाणासुर हुए जो महान शिवभक्त थे । उनकी राजधानी केदारनाथ के पास स्थित शोणितपुर थी । बाणासुक के हजार हाथ थे । जब ताण्डव नृत्य के समय शंकरजी लय पर नाचते, तब बाणासुर हजार हाथों से बाजे बजाते थे । 

इनकी सेवा से प्रसन्न होकर भवानीपति शिव ने वर मांगने को कहा । बाणासुर ने भगवान शिव से वर मांगा—‘जैसे भगवान विष्णु मेरे पिता के यहां सदा विराजमान रहकर उनकी पुरी की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी मेरी राजधानी के पास निवास करें, और मेरी रक्षा करते रहें ।’

भगवान शिव ने ‘तथास्तु’ कहकर बाणासुर के नगर के निकट रहना स्वीकार कर लिया । बाणासुर को ‘महाकाल’ की पदवी और साक्षात् पिनाकपाणि भगवान शिव की समानता प्राप्त हुई । वह महादेवजी का सहचर हुआ ।

बाणासुर द्वारा की गयी शिव-स्तुति (हिन्दी अर्थ सहित)

बाणासुर उवाच
वन्दे सुराणां सारं च सुरेशं नीललोहितम् ।
योगीश्वरं योगबीजं योगिनां च गुरोर्गुरुम् ।। १ ।।

अर्थात्—बाणासुर बोला—जो देवताओं के सारतत्त्व स्वरूप और समस्त देवगणों के स्वामी हैं, जिनका वर्ण नील और लोहित है, जो योगियों के ईश्वर, योग के बीज तथा योगियों के गुरु के भी गुरु हैं, उन भगवान शिव की मैं वन्दना करता हूँ ।

ज्ञानानन्दं ज्ञानरूपं ज्ञानबीजं सनातनम् ।
तपसां फलदातारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।। २ ।।

अर्थात्—जो ज्ञानानन्द स्वरूप, ज्ञानरूप, ज्ञानबीज, सनातन देवता, समस्त तपस्याओं के फलदाता तथा सभी सम्पदाओं को देने वाले हैं, उन भगवान शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ ।

तपोरूपं तपोबीजं तपोधनधनं वरम् ।
वरं वरेण्यं वरदमीड्यं सिद्धगणैर्वरै: ।। ३ ।।

अर्थात्—जो तप:स्वरूप, तपस्या के बीज, तपोधनों के श्रेष्ठ धन, श्रेष्ठ वरणीय तथा वरदायक और सिद्धगणों के द्वारा स्तवन करने योग्य हैं, उन भगवान शंकर को मैं नमस्कार करता हूँ ।

कारणं भुक्तिमुक्तीनां नरकार्णवतारणम् ।
आशुतोषं प्रसन्नास्यं करुणामयसागरम् ।। ४ ।।

अर्थात्—जो भोग और मोक्ष के कारण, नरक-समुद्र से पार उतारने वाले, शीघ्र प्रसन्न होने वाले, प्रसन्नमुख तथा करुणा के सागर हैं, उन भगवान शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ ।

हिम चन्दन कुन्देन्दु कुमुदाम्भोज संनिभम् ।
ब्रह्मज्योति:स्वरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।। ५ ।।

अर्थात्—जिनकी अंगकान्ति हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद तथा श्वेतकमल के समान उज्जवल है, जो ब्रह्मज्योति:स्वरूप तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए विभिन्न रूप धारण करने वाले हैं, उन उन भगवान शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ ।

विषयाणां विभेदेन बिभ्रन्तं बहुरूपकम् ।
जलरूपमग्नि रूपमाकाश रूपमीश्वरम् ।। ६ ।।

वायुरूपं चन्द्ररूपं सूर्यरूपं महत्प्रभुम् ।
आत्मन: स्वपदं दातुं समर्थमवलीलया ।। ७ ।।

भक्तजीवनमीशं च भक्तानुग्रहकातरम् ।
वेदा न शक्ता यं स्तोतुं किमहं स्तौमि तं प्रभुम् ।। ८ ।।

अर्थात्—जो विषयों के भेद से बहुतेरे रूप धारण करते हैं; जल, अग्नि, आकाश, वायु, चन्द्रमा और सूर्य जिनके स्वरूप हैं, जो ईश्वर एवं महात्माओं के प्रभु हैं और लीलापूर्वक अपना पद देने की शक्ति रखते हैं, जो भक्तों के जीवन हैं तथा भक्तों पर कृपा करने के लिए कातर हो उठते हैं । वेद भी जिनका स्तवन करने में असमर्थ हैं, उन परमेश्वर प्रभु की मैं क्या स्तुति करुंगा ।

अपरिच्छिन्नमीशानमहो वांग्मनसो: परम् ।
व्याघ्र चर्माम्बरधरं वृषभस्थं दिगम्बरम् ।
त्रिशूल पट्टिशधरं सस्मितं चन्द्रशेखरम् ।। ९ ।।

अर्थात्—अहो ! जो ईशान, देश, काल और वस्तु से परिच्छिन्न नहीं है तथा मन और वाणी की पहुंच से परे हैं । जो बाघम्बरधारी अथवा दिगम्बर हैं, बैल पर सवार हो त्रिशूल और पट्टिश धारण करते हैं, उन मन्द मुस्कान की आभा से सुशोभित मुखवाले भगवान चन्द्रशेखर को मैं प्रणाम करता हूँ ।

इत्युक्त्वा स्तवराजेन नित्यं बाण: सुसंयत: ।
प्रणमेच्छकरं भक्त्या दुर्वासाश्च मुनीश्वर: ।। १० ।।

अर्थात्—ऐसा कहकर बाणासुर प्रतिदिन संयमपूर्वक रहकर स्तवराज से भगवान की स्तुति करता था और भक्तिभाव से शंकरजी के चरणों में मस्तक झुकाता था । मुनि दुर्वासा भी भगवान शंकर की ऐसे ही उपासना करते थे ।

बाणासुर द्वारा की गई भगवान शिव की स्तुति के पाठ का फल

▪️ इस स्तुति का भक्तिभाव से पाठ करने पर सभी तीर्थों में स्नान का फल मिलता है ।

▪️ पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखने वाला मनुष्य यदि एक वर्ष तक संयमपूर्वक रहकर व सात्विक भोजनकर इस स्तोत्र का पाठ करे, तो उसकी पुत्रप्राप्ति की अभिलाषा अवश्य पूरी होती है ।

▪️ कोढ़, राजयक्ष्मा (टी बी) या पेट के रोग होने पर एक वर्ष तक इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य इन रोगों से मुक्त हो जाता है ।

▪️ जो मनुष्य किसी भी प्रकार कैद में रहकर अशान्त हो वह यदि एक माह तक इस स्तोत्र का पाठ करे तो हर प्रकार का बंधनमुक्त हो जाता है ।

▪️ जिसका धन-ऐश्वर्य छिन गया हो, निर्धन हो, वह इस स्तोत्र का एक मास तक पाठ करे तो उसे धन-ऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाती है ।

▪️ इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य को अपने बंधु-बांधवों के वियोग का दु:ख नहीं होता है ।

▪️ सुन्दर व सुलक्षणा पत्नी की प्राप्ति के लिए इस स्तोत्र का एक मास तक भक्तिभाव से पाठ करना चाहिए ।

▪️ मूर्ख और दुर्बुद्धि मनुष्य इस स्तोत्र का यदि नित्य पाठ करे तो उसे बुद्धि और विद्या की प्राप्ति हो जाती है ।▪️भगवान शंकर की भक्तिभाव से पूजा कर इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य के लिए इस संसार में कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता है । वह दुर्लभ कीर्ति प्राप्त करता है । अनेक प्रकार के धर्म-कर्म कर वह इस लोक में सुख भोगकर अंत में भगवान शंकर के धाम को जाता है, और वहां शिव पार्षद बनकर भगवान शिव की सेवा करता है ।

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