durga maa durga devi laxmi mata

भगवती का अर्थ–‘भग’ शब्द ऐश्वर्य के अर्थ में प्रयोग होता है; अत: सम्पूर्ण ऐश्वर्य आदि प्रत्येक युग में जिनके अंदर विद्यमान हैं, वे देवी दुर्गा ‘भगवती’ कही गयी हैं । सब जगह और सब काल में विद्यमान होने से वे देवी ‘सनातनी’ कही जाती है । देवी दुर्गा सबके द्वारा पूजित और वन्दित हैं तथा तीनों लोकों की माता हैं ।  देवी संसार के समस्त प्राणियों को जन्म, मृत्यु, जरा और मोक्ष की प्राप्ति कराती हैं । समस्त अमंगलों का नाश करने वाली भगवान शिव की प्रिया देवी भगवती के सिवा संसार में दूसरा कौन है, जिसका चित्त सबका कल्याण करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो । वे ही शरण में आए हुए दीनों की रक्षा कर सबकी पीड़ा दूर करने वाली हैं । प्रसन्न होने पर वे मनुष्य की समस्त बाधाओं और व्याधियों का नाश कर देती हैं और विपत्ति तो उन पर आती ही नहीं है । जो मनुष्य भगवती की शरण में चले जाते हैं, वे दूसरों को शरण देने वाले बन जाते हैं ।

जानते हैं, देवी भगवती को प्रसन्न करने वाला भगवान व्यास कृत ‘भगवती स्तोत्र’ हिन्दी अर्थ सहित ।

जय भगवति देवि नमो वरदे,
जय पापविनाशिनि बहुफलदे ।।
जय शुम्भनिशुम्भ कपालधरे,
प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे ।। १ ।।

अर्थात्—हे वरदायिनी देवि ! हे भगवति ! तुम्हारी जय हो । हे पापों को नष्ट करने वाली और अनन्त फल देने वाली देवि ! तुन्हारी जय हो । हे शुम्भ-निशुम्भ के मुण्डों को धारण करने वाली देवि ! तुम्हारी जय हो । हे मनुष्यों की पीड़ा हरने वाली देवि ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ ।

जय चन्द्रदिवाकर नेत्रधरे,
जय पावकभूषित वक्त्रवरे ।
जय भैरवदेहनिलीन परे,
जय अन्धकदैत्य विशोषकरे ।। २ ।।

अर्थात्—हे सूर्य-चन्द्रमारूपी नेत्रों को धारण करने वाली देवि ! तुम्हारी जय हो । हे अग्नि के समान देदीप्यमान मुख से शोभित होने वाली ! तुम्हारी जय हो । हे भैरव-शरीर में लीन रहने वाली और अन्धकासुर का शोषण करने वाली देवि ! तुम्हारी जय हो, जय हो ।

जय महिषविमर्दिनि शूलकरे,
जय लोकसमस्तक पापहरे ।
जय देवि पितामह विष्णुनते,
जय भास्कर शक्र शिरोऽवनते ।। ३ ।।

अर्थात्—हे महिषासुर का मर्दन करने वाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पापों को दूर करने वाली भगवति ! तुम्हारी जय हो । ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्र से नमस्कृत होने वाली हे देवि ! तुम्हारी जय हो, जय हो ।

जय षण्मुख सायुध ईशनुते,
जय सागरगामिनि शम्भुनुते ।
जय दु:खदरिद्र विनाश करे,
जय पुत्रकलत्र विवृद्धि करे ।। ४ ।।

अर्थात्—सशस्त्र शंकर और कार्तिकेयजी के द्वारा वन्दित होने वाली देवि ! तुम्हारी जय हो । शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलने वाली गंगारुपिणी देवि ! तुम्हारी जय हो । दु:ख और दरिद्रता का नाश तथा संतान और कुल की वृद्धि करने वाली हे देवि ! तुम्हारी जय हो, जय हो ।

जय देवि समस्त शरीर धरे,
जय नाकविदर्शिति दु:ख हरे ।
जय व्याधि विनाशिनि मोक्ष करे,
जय वांछितदायिनि सिद्धि वरे ।। ५ ।।

अर्थात्—हे देवि ! तुम्हारी जय हो । तुम समस्त शरीरों को धारण करने वाली, स्वर्ग लोक के दर्शन कराने वाली और दु:खहारिणी हो । हे व्याधिनाशिनी देवि ! तुम्हारी जय हो । मोक्ष तुम्हारे करतलगत है । हे मनोवांछित फल देने वाली, अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न करने वाली देवि ! तुम्हारी जय हो ।

एतद् व्यासकृतं स्तोत्रं,
य: पठेन्नियत: शुचि: ।
गृहे वा शुद्ध भावेन,
प्रीता भगवती सदा ।। ६ ।।

अर्थात्—जो मनुष्य कहीं भी रह कर पवित्र भावना से नियम-पूर्वक इस व्यासकृत स्तोत्र का पाठ करता है, अथवा शुद्ध भाव से घर पर ही पाठ करता है, उसके ऊपर भगवती (दुर्गा) सदा ही प्रसन्न रहती हैं ।

॥ इति व्यासकृतं श्रीभगवती स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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