guru shankracharya adi shankaracharya

‘शंकर: शंकर: साक्षात्’ अर्थात् भगवान शंकर ही संसार के कल्याण के लिए शंकराचार्य जी के रूप में अवतरित हुए हैं । शंकराचार्य जी द्वारा दिए गए उपदेश और रचे गए स्तोत्र मनुष्य को सही मार्ग दिखा कर इस दुस्तर संसार से पार कराने वाली नौका के समान हैं । शंकराचार्य जी का कहना है कि—

इस संसार में कोई किसी का संगी, साथी, सगा-सम्बन्धी नहीं है, सब मतलब के गरजी है । अपना तो केवल एक भगवान ही है, उसी के गीत गाओ, उसी से प्रेम करो । माता-पिता, भाई-बंधु, स्त्री-पुत्र, अपना शरीर, धन, मकान, मित्र और परिवार ये सब ममता के कच्चे धागे हैं । मनुष्य ममता के इन कच्चे धागों को बटोर कर एक मजबूत रस्सी बना ले और उसे भगवान के चरणकमलों से बांध दे । ममता के ये धागे कच्चे इसलिए हैं; क्योंकि जरा सा स्वार्थ टकराया, ये टूट जाते हैं । ममता सांसारिक प्राणियों और वस्तुओं से होती है; किंतु भगवान से प्रेम अलौकिक होता है । ममता दु:खरूप वासना है; परंतु भगवान का प्रेम मोक्षप्रद और उपासना है । शंकराचार्य जी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे और उनकी ‘वनभोजन लीला’ का ध्यान किया करते थे । उन्होंने ‘चर्पट पंजरिका स्तोत्र’ में  संसार के मूढ़ प्राणियों को रात-दिन भगवान के चरणारविन्दों का ध्यान करने और मुख से गोविंद का भजन करने को कहा । 

चर्पट पंजरिका स्तोत्र (हिन्दी अर्थ सहित)

दिनमपि रजनी सायं प्रात: शिशिरवसन्तौ पुनरायात: ।
काल: क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुच्चत्याशावायु: ।। १ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।
प्राप्ते संनिहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ।। (ध्रुवपदम्)

अर्थ—दिन और रात, सायंकाल और प्रात:काल, शिशिर और वसन्त ऋतु बार-बार आती हैं; इस प्रकार काल की लीला होती रहती है और आयु बीत जाती है, किंतु आशारूपी वायु छोड़ती ही नहीं । अत: निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । (व्याकरण में ‘डुकृञ् करणे’ एक धातु है । एक वृद्ध ब्राह्मण को इसे रटते देखकर श्री शंकराचार्य जी ने यह उपदेश किया था ।

अग्रे वह्नि: पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानु: ।
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुच्चत्याशापाश: ।। २ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—दिन में आगे अग्नि और पीछे सूर्य से शरीर तपाते हैं, रात्रि में जानुओं में ठोड़ी दबाये पड़े रहते हैं, हाथ में ही भिक्षा मांग लाते हैं, वृक्ष के नीचे ही पड़े रहते हैं; फिर भी आशा का जाल जकड़े ही रहता है । अत: हे मूढ़ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्त: ।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे ।। ३ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—अरे ! जब तक तू धन कमाने में लगा हुआ है, तभी तक तेरा परिवार तुझसे प्रेम करता है । जब जराग्रस्त (वृद्ध) होगा तो घर में कोई बात भी न पूछेगा । अत: हे मूढ़ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

जटिलो मुण्डी लुंचितकेश: काषायाम्बरबहुकृतवेष: ।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोको ह्युदरनिमित्तं बहुकृतशोक: ।। ४ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—जटाजूटधारी होकर, मुण्डित (मुड़े सिर वाला) होकर, लुंचित केश होकर, काषायाम्बरधारी होकर—ऐसे नाना प्रकार के वेष धारण करके यह मनुष्य देखता हुआ भी नहीं देखता है और पेट के लिए ही अनेक प्रकार के शोक किया करता है । अत: हे मूढ़ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

भगवद्गीता किंचिदधीता गंगाजल लवकणिकापीता ।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यम: किं कुरते चर्चाम् ।। ५ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—जिसने भगवद्गीता को कुछ भी पढ़ा है, गंगाजल की जिसने एक बूंद भी पी है, एक बार भी जिसने भगवान श्रीकृष्ण का अर्चन किया है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है ? अत: हे मूढ़ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

अंगं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् ।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुच्चत्याशा पिण्डम् ।। ६ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—शरीर के अंग गल गए, सिर के बाल पक गए, मुख में दांत नहीं रहे, बूढ़ा हो गया, लाठी लेकर चलने लगा, फिर भी आशा पिण्ड नहीं छोड़ती है । अत: हे मूढ़ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

बालास्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्त: ।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्न: पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्न: ।। ७ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—बालक तो खेलकूद में आसक्त रहता है, जवान स्त्री में आसक्त है और वृद्ध भी अनेक प्रकार की चिंताओं में मग्न रहता है । परमात्मा में कोई संलग्न नहीं रहता । अत: हे मूढ़ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् ।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ।। ८ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—इस संसार में बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु और बारम्बार माता के गर्भ में रहना पड़ता है । अत: हे मुरारि ! मैं आपकी शरण में हूँ, इस भयानक और अपार संसार से कृपया पार कीजिए; इस प्रकार अरे मूढ़ ! तू तो सदा गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवस: पुनरपि पक्ष: पुनरपि मास: ।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुच्चत्याशामर्षम् ।। ९ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—रात्रि, दिन, पक्ष, मास, अयन और वर्ष कितनी ही बार आए और गए, तो भी लोग ईर्ष्या और आशा को नहीं छोड़ते हैं । अत: अरे मूढ़ ! तू निरन्तर गोविन्द का ही भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

वयसि गते क: कामविकार: शुष्के नीरे क: कासार: ।
नष्टे द्रव्ये क: परिवारो ज्ञाते तत्त्वे क: संसार: ।। १० ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—अवस्था ढलने अर्थात् वृद्ध होने पर काम-विकार कैसा ? जल सूखने पर तालाब क्या ? धन नष्ट होने पर परिवार ही क्या ? इसी प्रकार तत्त्वज्ञान पर संसार ही कहां रह सकता है ? अत: हे मूढ़ ! तू निरन्तर गोविन्द का ही भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम् ।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय बारम्बारम् ।। ११ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—नारी के स्तनों और नाभि में झूठी माया और मोह का ही निवेश (निवास) है, ये तो मांस और वसा के ही विकार हैं—ऐसा मन में बार-बार विचार कर । हे मूढ़ ! तू सदा गोविन्द का ही भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

कस्त्वं कोऽहं कुत आयात: का मे जननी को मे तात: ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ।। १२ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—स्वप्न के समान इस मिथ्या संसार की आशा छोड़ कर ‘तू कौन है, मैं कौन हूँ’ कहां से आया हूँ, मेरी माता कौन है और पिता कौन हैं ?’—इस प्रकार सबको असार समझ  तथा हे मूढ़ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

गेयं गीतानामसहस्त्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्त्रम् ।
नेयं सज्जनसंगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ।। १३ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—गीता और विष्णु सहस्त्रनाम का नित्य पाठ करना चाहिए, भगवान विष्णु के स्वरूप का निरंतर ध्यान करना चाहिए, चित्त को संतजनों के संग में लगाना चाहिए और दीनों को धन का दान करना चाहिए । अत: हे मूढ़ ! निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ।। १४ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—जब तक शरीर में प्राण हैं, तब तक ही लोग घर में कुशल पूछते हैं, प्राण निकलने पर शरीर का पतन हुआ नहीं कि फिर अपनी स्त्री भी उससे भय मानती है । अत: हे मूढ़ ! तू निरन्तर गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

सुखत: क्रियते रामाभोग: पश्चाद्धन्त शरीरे रोग: ।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुच्चति पापाचरणम् ।। १५ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—पहले तो सुख से स्त्री-संग किया जाता है; किंतु पीछे शरीर में रोग घर कर लेते हैं, यद्यपि संसार में मरना अवश्य है; तथापि लोग पाप का आचरण नहीं छोड़ते हैं । अत: हे मूढ़ ! तू सदा गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

रथ्याचर्पटविरचितकन्थ: पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थ: ।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोक: ।। १६ ।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—गली में पड़े हुए चिथड़ों की कन्था बना ली,  पुण्यापुण्य से निराला मार्ग अवलम्बन कर लिया, ‘न मैं हूँ, न तू है और न यह संसार है’—ऐसा भी जान लिया, फिर भी किसलिए शोक किया जाता है ? अत: हे मूढ़ ! तू सदा गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी । 

कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम् ।
ज्ञानविहीन: सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ।। १७।।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते ।।

अर्थ—चाहे गंगास्नान के लिए जाए, चाहे अनेक व्रत-उपवास का पालन करे, दान करे तथापि बिना ज्ञान के इन सबसे सौ जन्म में भी मुक्ति नहीं हो सकती । अत: हे मूढ़ ! तू सदा गोविन्द को ही भज, क्योंकि मृत्यु के समीप आने पर ‘डुकृञ् करणे’ (हा धन ! हा कुटुम्ब !! हा संसार !,!!) यह रटना रक्षा नहीं कर सकेगी ।

॥ श्रीशंकराचार्यविरचितं चर्पट पंजरिका स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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