vaman jayanti

जा कारन वामन बने जिन नारायन नाम है ।
तिनके पद-पाथोज में पुनि-पुनि पुन्य प्रनाम है ।। (प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी)

भगवान का कोई भी अवतार किसी साधु-संन्यासी के मठ या आश्रम में नहीं हुआ; बल्कि भगवान के सभी अवतार गृहस्थ के घर में हुए हैं । गृहस्थाश्रम में ऐसी शक्ति है कि वह परमात्मा (ब्रह्म) को भी बालक बना लेता है । 

भगवान वामन का प्राकट्य कश्यप ऋषि और उनकी पत्नी अदिति के यहां हुआ था । ‘कश्यप’ का अर्थ है जो प्रत्येक में भगवान को देखता है और ‘अदिति’ का अर्थ है नारायणाकार मनोवृत्ति अर्थात् जिसके मन में सिर्फ नारायण ही बसे हों ।

भगवान की वामन अवतार की लीला का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध के (16-23) अध्याय में किया गया है ।

दैत्यों ने शुक्राचार्य को गुरु मान कर उनकी बहुत सेवा की, पाप छोड़ दिए और इंद्रियों का संयम बढ़ाया । इस कारण उनकी शक्ति बहुत बढ़ गई । शुक्राचार्य ने राजा बलि के हाथ से ‘विश्वजित्’ नाम का यज्ञ करवाया । यज्ञ की पूर्णाहुति के समय अग्निकुण्ड से सोने का रथ निकला; जिसमें इंद्र के रथ के घोड़ों की तरह हरे रंग के घोड़े जुते हुए थे । 

शुक्राचार्य ने राजा बलि को स्वर्ण-रथ में बिठा कर उन्हें अपना ब्रह्मतेज और शंख देते हुए कहा—‘जहाँ जाओगे, वहाँ तुम्हारी जीत होगी । अब तुम्हें कोई हरा नहीं सकता । तुम सौ अश्वमेध यज्ञ करो तो स्वर्ग के राजा हो जाओगे ।’

इसके बाद राजा बलि ने इंद्रपुरी पर चढ़ाई कर दी और देवताओं को हरा कर स्वर्ग का राज्य प्राप्त कर लिया । इंद्रपद को स्थिर करने के लिए राजा बलि नर्मदा नदी के किनारे भृगुकच्छ नामक तीर्थ में सौ अश्वमेध यज्ञ करने लगे ।

कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति देवताओं की माता हैं । जब देवता लोग इधर-उधर भाग कर छिप गए, तब उनकी माता अदिति को बहुत दु:ख हुआ । यद्यपि अदिति सदैव संतुष्ट रहने वाली हैं, फिर भी उनके मन में इस बात से बहुत दु:ख हुआ । उन्होंने अपने पति कश्यप ऋषि से प्रार्थना की—‘दैत्यों ने हमारे पुत्रों का स्थान छीन लिया है । मेरे बच्चों को स्वर्ग का राज्य मिले, ऐसी कृपा करो ।’

कश्यप ऋषि ने कहा—‘जो साधन मैं तुमको बता रहा हूँ, उसको ब्रह्मा जी ने मुझे बताया था । बारह दिन का एक ‘पयोव्रत’ है । पयोव्रत करने से परमात्मा तुम्हारे पुत्र के रूप में प्रकट होंगे और तुम्हारे पुत्रों को स्वर्ग का राज्य मिलेगा ।’

कैसे करें पयोव्रत ?

फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से द्वादशी तक केवल दूध पीकर यह व्रत किया जाता है, फल भी नहीं खाते हैं । दिन में तीन बार स्नान करके कमलनयन भगवान वासुदेव (लक्ष्मी-नारायण) की पूजा की जाती है । उन्हें दूध से स्नान करा कर वस्त्र, यज्ञोपवीत, गंध, पुष्प, धूप-दीप आदि अर्पित किया जाता है । सभी उपचार द्वादशाक्षर-मंत्र ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ के साथ भगवान को अर्पित करने चाहिए । फिर घी और गुड़ के साथ दूध में पका कर शालि के चावल के भात का भोग लगाया जाता है । पूजन के अंत में साष्टांग दण्डवत् करना चाहिए । प्रतिदिन द्वादशाक्षर मंत्र की एक माला का जाप और हवन व ब्राह्मण-भोजन अवश्य कराना चाहिए । रात्रि में भगवान का ध्यान करते हुए शयन करना चाहिए । जीव हिंसा, झूठ बोलना तथा विषय-भोग आदि नहीं करने चाहिए । त्रयोदशी के दिन व्रत का उद्यापन करें । उद्यापन में गाय का दान, ब्राह्मण-भोजन, दक्षिणा आदि देनी चाहिए ।

मन को हर हाल में खुश रखना भी एक तप है । यह भी भगवान की आराधना की एक पद्धति है । अत: इसका पालन अवश्य करना चाहिए ।

फाल्गुन का महीना आने पर कश्यप ऋषि और उनकी पत्नी ने मिल कर ‘पयोव्रत’ का पालन किया । मन से इंद्रिय रूपी घोड़ों को वश में किया और मन को परमात्मा में लगाया । नारायण का ध्यान, नारायण की पूजा, हर समय नारायण का स्मरण करने से पति-पत्नी का मन नारायणाकार हो गया । मन नारायणाकार होता है, तब माया दूर हो जाती है । कश्यप ऋषि समझ गए कि भगवान मेरे घर में प्रकट होने वाले हैं । 

नौ मास पूरे हुए । एक दिन मध्याह्न-संध्या के लिए कश्यप ऋषि गंगा किनारे गए हुए थे । तभी एकान्त में अदिति माता को भगवान के दर्शन की तीव्र इच्छा हुई । परमात्मा के दर्शन की जब ऐसी व्याकुलता बढ़ जाए, तभी भगवान का अवतार होता है ।

भगवान वामन का प्राकट्य

परम पवित्र भाद्रप्रद मास, शुक्ल पक्ष, द्वादशी तिथि, श्रवण नक्षत्र, मध्याह्नकाल, अभिजित्-मुहुर्त में माता अदिति के सम्मुख श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी, शंख-चक्र-गदा-पद्म और मकराकृत कुण्डल धारण किए हुए चतुर्भुज नारायण प्रकट हुए । जिस तिथि में भगवान का जन्म हुआ, उसे ‘विजया द्वादशी’ कहते हैं ।

कश्यप ऋषि को भी भान हो गया कि मेरे घर में भगवान प्रकट हुए हैं । संध्या-कर्म पूर्ण करके हाथ में कमण्डलु लिए दौड़ते हुए जैसे ही उन्होंने घर में प्रवेश किया, उन्हें दिव्य तेज से परिपूर्ण चतुर्भुज नारायण का दर्शन हुआ । भगवान के दिव्य स्वरूप का दर्शन करने पर उनका हृदय पिघला और नेत्र आंसुओं से भर गए ।

भगवान ने माता अदिति से कहा—‘मैं क्षेत्रज्ञ रूप से तुम्हारे हृदय में रहता हूँ और सब कुछ जानता हूँ । तुमने अपने पुत्रों की रक्षा के लिए यह अनुष्ठान किया है । मैं ऐसे तो तुम्हारे पुत्रों की रक्षा नहीं कर सकता; किंतु तुम्हारा बेटा बन कर तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करुंगा । अब तुम जाओ और अपने पति में मुझ नारायण को देख कर उनकी सेवा करो । मैंने तुमसे जो यह बात कही है कि मैं तुम्हारा बेटा होने वाला हूँ, यह किसी को बताना नहीं; क्योंकि देवताओं की बात जितनी गुप्त रहती है, उतनी ही प्रभावकारी होती है ।’

माता-पिता को अपने स्वरूप का दर्शन कराकर भगवान का चतुर्भुज-स्वरूप अंतर्ध्यान हो गया । अब भगवान ने सात वर्ष के बटुक बालक का स्वरूप धारण कर लिया । बटुक ब्रह्मचारी वामन भगवान का दर्शन करने के लिए ब्रह्मा आदि सभी देवता कश्यप ऋषि के घर पधारे । अदिति के आश्रम पर पुष्पों की वर्षा होने लगी ।

सभी ने यह कर कह कश्यप ऋषि को धन्यवाद दिया—‘आज तुम जगत्पिता के भी पिता हुए हो । साक्षात् नारायण तुम्हारे घर में पुत्र रूप में प्रकट हुए हैं ।’

ऋषिगणों ने वामन भगवान का जन्म-संस्कार और यज्ञोपवीत-संस्कार कराया । वामन भगवान के यज्ञोपवीत-संस्कार के समय देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें जनेऊ प्रदान किया । कश्यप ऋषि ने मूँज की मेखला दी । सूर्य ने गायत्री-मंत्र का उपदेश किया । माता अदिति ने कौपीन (लंगोटी), ब्रह्मा जी ने कमण्डलु, सोम ने दण्ड, सरस्वती ने रुद्राक्ष की माला, पृथ्वीमाता ने बैठने के लिए मृगचर्म का आसन, गोलोक ने छत्र, सप्तर्षियों ने कुश, कुबेर ने भिक्षापात्र एवं भगवती उमा ने भिक्षा दी  ।

ऐसे दिव्य ब्राह्मण बटुक रूप में भगवान बहुत ही मनोहर लग रहे थे । उनके इस रूप का वर्णन इस प्रकार किया गया है—

मौंजीयुक् छत्रको दण्डो कृष्णाजिनधरो वटु: ।
अधीतवेदो वेदान्तोद्धारको ब्रह्मनैष्ठिक: ।।

अर्थात्—उनकी मेखला और जनेऊ दोनों मूँज के थे । वे छत्र और दण्ड को धारण किए हुए थे । उन्होंने काले मृग का चर्म धारण कर रखा था । ब्राह्मण-ब्रह्मचारी का रूप था । वेद पढ़े हुए थे । वेदान्त का उद्धार करने वाले और ब्रह्मनिष्ठ लग रहे थे ।

भगवान के वामन स्वरूप का रहस्य

वामन अवतार में भगवान को मांगने का काम करना था । जब मांगने का काम करना हो तब बड़प्पन भी दिखाएं और मांगे भी—ये दोनों काम कैसे संभव हैं ? मांगने वाले को तो छोटा बनना ही पड़ता है । वामन रूप में भगवान भी जब राजा बलि से तीन पग भूमि मांगते हैं तो छोटे हो जाते हैं ।

भगवान की वामन अवतार लीला यही सिखाती है कि भगवान जब कृपा करते हैं, तब तीन कदम अर्थात् तीन चीजें—तन, मन और धन मांगते हैं । जो अपना तन, मन और धन उन्हें समर्पित कर देता है; भगवान स्वयं उसकी रक्षा करते हैं । जैसे राजा बलि के द्वारा अपना सर्वस्व समर्पित करने पर भगवान ने उनका द्वारपाल बन कर रक्षा की ।

आज भी किसी का गृहस्थाश्रम यदि कश्यप ऋषि और उनकी पत्नी अदिति जैसा हो तो भगवान प्रकट होने के लिए तैयार हैं । 

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