सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत् ।।
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
कामये दुखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ।।
अर्थात्—संसार में सभी प्राणी सुखी हों । सब निरोगी रहें । सभी अच्छे दिन देखें । जगत में कोई भी दु:ख का भागी न हो । मैं न राज्य की कामना करता हूँ, न स्वर्ग और मोक्ष की, मैं जन्म लेकर पुन: सांसारिक भोग भी नहीं चाहता हूँ । मेरी सिर्फ यह इच्छा है कि दु:खों से पीड़ित प्राणियों के क्लेश दूर कर सकूँ ।
ये श्लोक ‘शान्ति मंत्र’ या ‘शांति पाठ’ के नाम से जाने जाते हैं ।
इस प्रकार की प्रार्थना करने वाले मनुष्यों की रक्षा स्वयं भगवान करते हैं । उन पर भगवान की कृपा हर क्षण बरसती रहती है । क्योंकि—
जो जग, सो जगदीश, ईश नहिं जग से न्यारा ।
करिये सब से प्रेम, प्रेम भगवत को प्यारा ।।
‘सर्वे भवन्तु सुखिन:‘ की भावना रखने वाला परमात्मा को कैसा लगता है, इसी को दर्शाती एक कथा है—
एक व्यक्ति सदैव दूसरों की भलाई के कार्यों में लगा रहता था; लेकिन मन में भगवान को सदा साथ रखता और उनका शुक्रिया करना नहीं भूलता था । इस कारण वह कभी भी पूजा-पाठ, जप आदि नहीं कर पाता था ।
एक दिन उसकी भेंट त्रिलोकी में घूमने वाले नारद जी से हो गई ।
नारद जी ने उससे पूछा—‘तुम क्या काम करते हो । अपने लोक-परलोक को सुधारने के लिए तुमने कुछ किया है ?’
उस व्यक्ति ने कहा—‘महाराज ! मैं दिन-रात दीन-दु:खियों, अपाहिजों, रोगियों की सेवा में लगा रहता हूँ । भगवान की पूजा-पाठ और जप-ध्यान के लिए मुझे समय ही नहीं मिलता है । क्या इससे मेरा परलोक सुधर जाएगा ? मेरी अंत गति कैसी होगी ? यदि आप को पता हो तो मुझे बताइए ।’
नारद जी के हाथ में साधारण और विशिष्ट—दो बहियां थी । जब उन्होंने साधारण बही देखी तो उसमें उस व्यक्ति का कहीं भी नाम अंकित नहीं था । दूसरी बही उच्चकोटि के कार्य करने वाले भगवान के विशेष कृपापात्रों की थी ।
नारद जी ने जब दूसरी बही खोली तो उसमें उस व्यक्ति का नाम सबसे ऊपर लिखा था । नारद जी ने उस व्यक्ति के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा—‘तू ही सबसे बड़ा भाग्यशाली और कर्मयोगी है ।’ क्योंकि—
जीना है उसका भला, जो औरों के लिए जिये ।
मरना है उसका भला, जो अपने लिए जिये ।।
मानव जीवन की दो प्रधान भावनाएं हैं—स्वार्थ भावना और परहित भावना । स्वार्थ भावना मनुष्य के हृदय को संकीर्ण और निम्न स्तर का बना देती है; लेकिन परहित या परोपकार की भावना मनुष्य के हृदय को उज्ज्वल कर विशाल बना देती है । दूसरों के दु:ख दूर करने से स्वयं में आनन्द का आभास होता है । परमात्मा को भी ऐसे ही मनुष्य अत्यंत प्रिय होते हैं ।
श्रीमद्भागवत (११।२९।१९) में भगवान श्रीकृष्ण उद्धव जी से कहते हैं—‘मेरी प्राप्ति के जितने भी साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थों में मन, वचन और शरीर से मेरी ही भावना करके भगवद्बुद्धि से सबकी सेवा की जाए ।’
भगवान की प्रसन्नता का सर्वश्रेष्ठ और सबसे सरल साधन है ‘सेवा’ । निष्काम-भाव से की गई दीन-हीन, निर्बल, रोगी व असहाय लोगों की सेवा को ‘नारायन-सेवा’ के समान महत्व दिया गया है । भगवान को चिन्ता सबकी रहती है, पर विशेष चिन्ता उन्हें दीनों व निर्बलों की होती है । सभी प्राणी ईश्वर की संतान हैं; परन्तु दीनजन तो प्रभु के विशेष बालक हैं । अत: जो भगवान के विशेष बालकों की सेवा करता है, वही सच्चा कर्मयोगी और भगवान का विशेष कृपापात्र होता है । ऐसे व्यक्ति के पास समस्त सुख-सम्पत्ति बिन बुलाये आती है ।
श्री रामचरितमानस (३।३१।९) में तुलसीदास जी ने कहा है—
परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ।।
ऋग्वेद में तो यह कहा गया है कि परमार्थ के कार्यों में निन्दा, लांछन या उपहास की भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए; बल्कि भगवान से सदैव यही प्रार्थना करनी चाहिए—
बनूँ सदा रोगी की औषध निपुण वैद्य मैं नाशक रोग ।
बनूँ सदा आतुर का आश्रय, दु:खभोगी के सुख का भोग ॥
बनूँ सदा निर्बल का बल मैं, बनूँ नित्य भूखे का अन्न ।
बनूँ पिपासित का पानी मैं, हों मुझसे उल्लसित विपन्न ।।
बनूँ सभी का निकट कुटुम्बी करुँ, सभी की सेवा नित्य ।
बनूँ कष्ट में साथी सबका, झेलूँ उनके कष्ट अनित्य ।।