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सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:

मानव जीवन की दो प्रधान भावनाएं हैं—स्वार्थ भावना और परहित भावना । स्वार्थ भावना मनुष्य के हृदय को संकीर्ण और निम्न स्तर का बना देती है; लेकिन परहित की भावना मनुष्य के हृदय को उज्ज्वल कर विशाल बना देती है । दूसरों के दु:ख दूर करने से स्वयं में आनन्द का आभास होता है । परमात्मा को भी ऐसे ही मनुष्य अत्यंत प्रिय होते हैं । इस प्रकार की प्रार्थना करने वाले मनुष्यों की रक्षा स्वयं भगवान करते हैं ।

सुख-दु:ख और भगवत्कृपा

दु:ख के समय का कोई साथी नहीं होता बल्कि लोग तरह-तरह की बातें बनाकर दु:ख को और बढ़ा देते हैं । ऐसी स्थिति में यह याद रखें कि निन्दा करने वाले तो बिना पैसे के धोबी हैं, हमारे अन्दर जरा भी मैल नहीं रहने देना चाहते । ढूंढ़कर हमारे जीवन के एक-एक दाग को साफ करना चाहते हैं । वे तो हमारे बड़े उपकारी हैं जो हमारे पाप का हिस्सा लेने को तैयार हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उद्धवजी को ज्ञानोपदेश

उद्धवजी ने भगवान से कहा—‘आपने थोड़े समय में मुझे अच्छा ज्ञान दिया है । मैं आपकी शरण में हूँ, मैं भी आपके साथ आपके धाम चलूंगा ।’ भगवान ने कहा—‘उद्धव ! तेरे हृदय में मैं चैतन्य रूप से स्थित हूँ । तू मेरा जहां ध्यान करेगा, वहीं मैं प्रकट हो जाऊंगा । तू यह भावना रखना कि श्रीकृष्ण मेरे साथ ही हैं ।’ भगवान अपनी चरण-पादुका उद्धवजी को देकर स्वधाम पधार गए ।

कुब्जा प्रसंग द्वारा श्रीकृष्ण का संसार को संदेश

संसार में स्त्रियां कुंकुम-चंदनादि अंगराग लगाकर स्वयं को सज्जित करती हैं; किन्तु हजारों में कोई एक ही होती है जो भगवान को अंगराग लगाने की सोचती होगी और वह मनोभिलाषित अंगराग लगाने की सेवा भगवान तक पहुंच भी जाती है क्योंकि उसमें भक्ति-युक्त मन समाहित था । कुब्जा की सेवा ग्रहण करके भगवान प्रसन्न हुए और उस पर कृपा की ।

राजा परीक्षित की किस गलती की वजह से कलियुग का आरम्भ...

जिस बालक को गर्भ में ही परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शन हो गए हों, वह कितना पवित्र होगा ! किन्तु कलियुग का प्रभाव ही ऐसा है, अच्छे-अच्छों को प्रभावित कर देता है । वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण इस पृथ्वी को त्याग कर गोलोकधाम पधारे थे, उसी क्षण से अधर्म रूपी कलियुग का आरम्भ हो गया था ।

विभिन्न प्रकार की सिद्धियां और उनके लक्षण

मनुष्य सिद्धि प्राप्ति के लिए अनेक कष्ट सहकर विभिन्न उपाय करता है परन्तु भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी को कहते हैं कि जो मुझ एक परमात्मा को अपने हृदय में धारण करता है, सब सिद्धियां उसके चरणतले आ जाती हैं और चारों मुक्तियां उसकी दासी बन कर सदैव उसके पास रहती हैं ।

मन को शान्ति देने वाला है श्रीकृष्ण नाम

अठारह पुराणों व ‘महाभारत’ की रचना भी न दे सकी वेदव्यासजी को मन की शान्ति।

भगवान श्रीकृष्ण की सरस बाललीलाएं

जो गोपी अनेक जन्मों से अपने हृदय के जिन भावों को श्रीकृष्ण को अर्पण करने की प्रतीक्षा कर रही है, उसकी उपेक्षा वह कैसे करें? इन्हीं गोपियों की अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए ही तो निर्गुण-निराकार परम-ब्रह्म ने सगुण-साकार लीलापुरुषोत्तमरूप धारण किया है। दिन भर के भूखे-प्यासे श्यामसुन्दर गोपी के साथ उसकी गौशाला में जाकर गोमय की टोकरियां उठवाने लगे। एक हाथ से अपनी खिसकती हुई काछनी को सम्हालते और दूसरे हाथ से गोमय की खाँच गोपी के सिर पर रखवाते। ऐसा करते हुए कन्हैया का कमल के समान कोमल मुख लाल हो गया। चार-पांच टोकरियां उठवाने के बाद कन्हैया बोले--गोपी, तेरा कोई भरोसा नहीं है। तू बाद में धोखा दे सकती है, इसलिए गिनती करती जा। और उस निष्ठुर गोपी ने कन्हैया के लाल-लाल मुख पर गोमय की हरी-पीली आड़ी रेखाएं बना दीं। अब तो गोपी अपनी सुध-बुध भूल गयी और कन्हैया के सारे मुख-मण्डल पर गोमय के प्रेम-भरे चित्र अंकित हो गये--’गोमय-मण्डित-भाल-कपोलम्।’

व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी

शुकदेवजी की कथाएँ : श्रीशुकदेवजी के जन्म की कथा, परमहंस शुकदेवजी के स्वरूप का वर्णन एवं श्रीशुकदेवजी का अनुपम दान--श्रीमद्भागवत ।

भगवान श्रीकृष्ण के व्रजसखा (गोपकुमार) एवं गोपियाँ

भक्ति की प्रवर्तिका गोपियां ही हैं। श्रीकृष्णदर्शन की लालसा ही गोपी है। गोपी कोई स्त्री नहीं है, गोपी कोई पुरुष नहीं है। श्रीमद्भागवत में ‘गोपी’ शब्द का अर्थ परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा बताया गया है।