bhagwan vishnu with uddhav ji

उद्धवजी भगवान श्रीकृष्ण के समान श्यामवर्ण और कमलनयन हैं । मथुरा आने पर भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को अपना अंतरंग सखा और मंत्री बना लिया । उद्धवजी के लिए भगवान श्रीकृष्ण का कथन है—

‘उद्धवजी ! मुझे आप जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रिय हैं, उतने ब्रह्माजी, शंकरजी, बलरामजी, लक्ष्मीजी भी प्रिय नहीं हैं । अधिक क्या, मेरा आत्मा भी मुझे उतना प्रिय नहीं है ।’  (श्रीमद्भागवत ११।१४।१५)

भगवान ने गोपियों को सान्त्वना-संदेश पहुंचाने के लिए उद्धवजी को व्रज में भेजा परन्तु वे गोपियों के महाभाव को लेकर, उनके चेले बन कर लौटे । भगवान श्रीकृष्ण के साथ वे द्वारका गए । जब द्वारका में अपशकुन होने लगे, तब उद्धवजी ने भगवान के स्वधाम पधारने का अनुमान कर लिया । भगवान के चरणों में इन्होंने प्रार्थना करते हुए कहा—‘प्रभो ! मैं तो आपका दास हूँ । आपका उच्छिष्ट प्रसाद, आपके उतारे वस्त्र-आभूषण ही मैंने सदा उपयोग में लिए हैं । आप मेरा त्याग न करें । मुझे भी आप अपने साथ ही अपने धाम ले चलें ।’

भगवान ने कहा—‘मेरे इस लोक से चले जाने पर यहां घोर कलियुग आ जाएगा; इसलिए उद्धव ही मेरे ज्ञान की रक्षा करेंगे । वे गुणों में मुझसे जरा भी कम नहीं हैं; इसलिए वे अधिकारी लोगों को उपदेश करने के लिए यहां रहें । तुम्हें कलियुग का धर्म नहीं व्यापेगा ।’ 

भगवान ने उद्धवजी को बदरिकाश्रम में जाकर रहने की आज्ञा दी और तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया ।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उद्धवजी को तत्त्वज्ञान का उपदेश

श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उद्धव को ज्ञान प्रदान करने की लीला का वर्णन है जिसके कुछ अंश का वर्णन यहां किया जा रहा है—

श्रीकृष्ण-उद्धव संवाद

▪️ उद्धवजी ने भगवान से पूछा—‘सबसे बड़ा दान कौन-सा है ?’ 

 भगवान ने कहा—‘सोना-चांदी का दान तो अच्छा ही है परन्तु सबसे अच्छा दान, जिसे गरीब भी कर सकता है, वह यह भाव है कि संसार में जो भी दिखाई देता है; वह परमात्मा का स्वरूप है । इस भाव को मन में धारण कर न किसी का बुरा सोचो, न ही बुरा बोलो । जो सभी में सद्भाव रखता है, वह सबसे बड़ा दान करता है ।

जो नित सबमें देखता, चिन्मय श्रीभगवान ।
होता कभी न वह परे हरि-दृग से विद्वान ।।
ले जाते हरि स्वयं आ, उसको निज परधाम ।
देते नित्य स्वरूप निज चिदानन्द अभिराम ।।

▪️ उद्धवजी ने पूछा—‘सबसे बड़ा तप कौन-सा है ?’  

भगवान ने कहा—‘मनुष्य चाहे घर में रहे या घर का त्याग कर वन या तीर्थ में रहे, जिसके मन में काम-भावना नहीं है, उसे मैं सबसे बड़ा तपस्वी मानता हूँ ।’

▪️ उद्धवजी ने पूछा—‘सबसे बड़ा दरिद्र और सबसे बड़ा धनवान कौन है ?’  

भगवान ने कहा—‘जिसे प्राप्त स्थिति में संतोष नहीं है, वह दरिद्र है । जो ऐसा मान कर मन में संतोष करता है कि प्रभु ने मुझे मेरी योग्यता की अपेक्षा अधिक दिया है, बहुत अधिक दिया है, वही धनवान है ।’

▪️ उद्धवजी ने पूछा—‘मूर्ख किसे कहते है, ज्ञानी कौन हैं ?’  

भगवान ने कहा—‘जो ‘मैं शरीर हूँ’—यह सोच कर शरीर-सुख में फंसा रहता है, वह सबसे बड़ा मूर्ख है । जो जितना जानता है, उतना अपने जीवन में उतारता है अर्थात् जो ज्ञान के अनुसार क्रिया करे, वह ज्ञानी है ।’

▪️ उद्धवजी ने प्रश्न किया—‘सच्चा धन क्या है ?’ 

भगवान ने उत्तर दिया—‘धर्म ही मनुष्य का सच्चा धन है ।’

▪️ उद्धवजी ने पूछा—‘स्वर्ग किसे कहते है और नरक किसे कहते हैं ?’ 

भगवान ने कहा—‘मन में छल-कपट हो, विकार-वासना हो तो समझना चाहिए कि मैं नरक में पड़ा हूँ । यदि मन में सात्विकता हो, परोपकार के लिए शरीर को कष्ट देने की भावना हो, निरभिमान (अहंकार न हो) हो तो समझना चाहिए कि मैं स्वर्ग में हूँ ।’

▪️ उद्धवजी ने पूछा—‘जीव किसे कहते है और ईश्वर किसे कहते हैं ?’  

भगवान ने कहा—‘जो परतंत्र है, माया के अधीन है, वह जीव है और जो स्वतंत्र है, माया जिसके आधीन है, वह ईश्वर है ।’

▪️ उद्धवजी ने पूछा—‘वीर कौन हैं ?’  

भगवान ने कहा—‘जो बाहरी शत्रुओं के साथ-साथ आंतरिक शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि) को मारता है, वह वीर है ।’

▪️ उद्धवजी ने पूछा—‘जीव का मित्र कौन हैं ?’  

भगवान ने कहा—‘मैं सभी जीवों के साथ नि:स्वार्थ भाव से प्रेम करता हूँ; इसलिए मैं सभी का मित्र हूँ ।’

▪️ उद्धवजी ने पूछा—‘खोटी निन्दा क्यों सहन नहीं होती हैं?’  

भगवान ने कहा—‘निन्दा खरी हो या खोटी, यदि सहन न हो तो यह मानना चाहिए कि अभी भक्ति का रंग नहीं चढ़ा है ।’

आगे भगवान उद्धवजी से कहते हैं—

▪️ जो तन और मन को सम्हाले, वह संसारी जीव है; लेकिन जो मन को सम्हालता है, वह संत है । यदि मन दूषित हो जाए तो यह जन्म तो बिगड़ेगा ही, दूसरा जन्म भी इसी मन के साथ होगा; इसलिए उद्धव ! तू मन को सम्हालना और अपनी वाणी पर नियंत्रण रखना ।

▪️ इसके बाद भगवान ने उद्धवजी को ध्यान योग का उपदेश देते हुए कहा—एक आसन पर बैठ कर आंखों को स्थिर करने की आदत डालो, इससे मन स्थिर होगा । भगवान के एक-एक अंग का चिन्तन करना ही ध्यान है । जैसे-जैसे साधक ध्यान की तन्मयता में अपने-आपको भूलने लगता है, आत्मा इस देह से पृथक् हो जाती है । जब आत्मा का इस देह से सम्बन्ध टूटता है, तब ब्रह्म-सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, जिससे साधक को अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं; लेकिन मनुष्य को सिद्धियों का मोह छोड़ कर भक्ति करनी चाहिए ।

उद्धवजी ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा—‘आपने थोड़े समय में मुझे अच्छा ज्ञान दिया है । मैं आपकी शरण में हूँ, मैं भी आपके साथ आपके धाम चलूंगा ।’ 

भगवान ने कहा—‘उद्धव ! तेरे हृदय में मैं चैतन्य रूप से स्थित हूँ । तू मेरा जहां ध्यान करेगा, वहीं मैं प्रकट हो जाऊंगा । तू यह भावना रखना कि श्रीकृष्ण मेरे साथ ही हैं ।’ 

भगवान अपनी चरण-पादुका उद्धवजी को देकर स्वधाम पधार गए । प्रेम में ऐसी शक्ति है कि वह जड़ को चेतन बना देता है । उद्धवजी को उन चरण-पादुका में श्रीकृष्ण के दर्शन होते थे ।

कीर्तन में से उद्धवजी का प्राकट्य

भगवान के स्वधाम पधारने पर उद्धवजी द्वारका से बदरिकाश्रम चले गए । भगवान के आज्ञानुसार अपने एक स्थूल रूप से तो वे बदरिकाश्रम चले गए और दूसरे सूक्ष्म रूप से व्रज में गोवर्धन के पास लता-वृक्षों में छिपकर निवास करने लगे । भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभजी ने जब गोवर्धन के समीप संकीर्तन-महोत्सव किया तब उद्धवजी लता-कुंजों से प्रकट हो गए । उन्होंने एक महीने तक वज्रनाभजी तथा श्रीकृष्ण की रानियों को श्रीमद्भागवत सुनाया और अपने साथ वे उन्हें नित्य-व्रजभूमि में ले गए ।

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