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श्रीमद्भागवत के 11वे स्कन्ध के 15वे अध्याय में उद्धवजी भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं—‘हे केशव ! आप ही योगियों को सिद्धियां देते हैं, कृपया उनकी संख्या और उनके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए ।’ तब भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी को भिन्न-भिन्न प्रकार की सिद्धियों और उनके लक्षणों के बारे में बताते हुए कहते हैं—‘समस्त सिद्धियों का एकमात्र मैं ही स्वामी और प्रभु हूँ । विभिन्न प्रकार की सिद्धियां इस प्रकार हैं—

विभिन्न प्रकार की सिद्धियां और उनके लक्षण

▪️महा सिद्धियां—ये सिद्धियां आठ हैं । इनके बारे में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये मुझमें स्वभावगत होती हैं किन्तु जिन्हें मैं देता हूँ उनको महान कष्ट और प्रयत्नों से अंशत: ही प्राप्त होती हैं । 

  1. अणिमा—इस सिद्धि से शरीर को अणु जितना छोटा बनाया जा सकता है । हनुमानजी ने इसी सिद्धि से अपने शरीर को अणु जितना छोटा बनाकर लंका में प्रवेश किया था । 
  2. महिमा—इस सिद्धि से देह को चाहे जितना बड़ा या भारी बनाया जा सकता है । हनुमानजी ने इसी सिद्धि से समुद्र लांघते समय अपने शरीर को पर्वताकार बनाया था ।
  3. लघिमा—इस सिद्धि के बल से शरीर को रुई से भी हलका और हवा में तैरने लायक बनाया जा सकता है ।
  4. प्राप्ति—यह इन्द्रियों की महासिद्धि है ।
  5. प्राकाम्य—लोक-परलोक के अदृश्य विषयों का ज्ञान इस सिद्धि से होता है ।
  6. ईशिता—माया और उसको कार्यों को इच्छानुसार संचालित करना ईशिता नाम की सिद्धि है ।
  7. वशिता—इस सिद्धि से कर्मों और विषय-भोगों में आसक्त न होने की सामर्थ्य प्राप्त होती है । भगवान श्रीकृष्ण ईशित्व और वशित्व—इन दोनों सिद्धियों के स्वामी हैं, इसलिए कभी कोई उनकी आज्ञा को टाल नहीं सकता है ।
  8. ख्याति—ये संसार के सभी भोग और मनचाहे सुखों को एक साथ दिलाने वाली सिद्धि है ।

▪️गौण सिद्धियां—ये सिद्धियां दस हैं—

  1. अनूर्मि सिद्धि—भूख-प्यास, शोक-मोह, जरा-मृत्यु इनका शरीर और मन पर कोई असर न होना ।
  2. दूरश्रवण सिद्धि—अपने स्थान से ही चाहे जितनी दूर की बात सुन लेना । योगी लोग अपने सुनने की शक्ति (कर्णेन्द्रिय की शक्ति) को बढ़ाकर ऐसा करते हैं ।
  3. दूरदर्शन सिद्धि—तीनों लोकों में होने वाले सब दृश्यों और कार्यों को अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही देख लेना । महाभारत युद्ध में संजय को व्यासदेव की कृपा से दूरश्रवण और दूरदर्शन दोनों सिद्धियां प्राप्त थीं ।
  4. मनोजव सिद्धि—इस सिद्धि के द्वारा मनोवेग से चाहे जिस जगह शरीर तुरन्त पहुंच जाता है । नारदजी की कृपा से चित्रलेखा को यह सिद्धि और दूरदर्शन सिद्धि प्राप्त हुई थी ।
  5. कामरूप सिद्धि—इस सिद्धि से मनुष्य चाहे जो रूप धारण कर सकता है ।
  6. परकाया प्रवेश सिद्धि—अपने शरीर से निकल कर दूसरे के शरीर में प्रवेश कर जाना । श्रीमद् आदिशंकराचार्य को यह सिद्धि प्राप्त थी ।
  7. स्वच्छन्द मरण सिद्धि—भीष्म पितामह के समान काल के वश में न होकर अपनी इच्छा से कलेवर (शरीर) छोड़ना ।
  8. देवक्रीडानुदर्शन—स्वर्ग में अप्सराओं के साथ देवता जो क्रीडा करते हैं, उन्हें यहां से देख सकना ।
  9. यथासंकल्प संसिद्धि—मन में संकल्प की हुई वस्तु का तुरन्त प्राप्त हो जाना या मन में संकल्प किए हुए कार्य का तुरन्त सिद्ध हो जाना ।
  10. अप्रतिहत गति और आज्ञा—इस सिद्धि से सम्पन्न योगी की आज्ञा को राजा भी सिर आंखों चढ़ाता है । ऐसे योगी चाहे जहां आ-जा सकते हैं ।

▪️क्षुद्र सिद्धियां—ये सिद्धियां पांच हैं—

  1. त्रिकालज्ञता—इस सिद्धि से भूत, भविष्य और वर्तमान—तीनों कालों का ज्ञान हो जाता है । महर्षि वाल्मीकि को यह सिद्धि केवल अखण्ड राम-नाम के जप से प्राप्त हो गयी थी, इसी कारण उन्होंने श्रीराम के जन्म के पूर्व ही रामायण लिख दी थी ।
  2. अद्वन्द्वता—सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख, राग-द्वेष, लाभ-हानि आदि द्वन्द्वों में समान रहना । ऐसे सिद्ध पुरुष आज भी हिमालय पर वास करते हैं ।
  3. परचित्ताद्यभिज्ञता—दूसरों के मन का और दूसरों के देखे हुए स्वप्नों को जान लेना । इसको आजकल ‘थॉट रीडिंग’ कहते हैं ।
  4. प्रतिष्टम्भ—अग्नि, वायु, जल, शस्त्र, विष और सूर्य के ताप का असर न होना ।
  5. अपराजय—किसी से भी पराजित न होना, सब पर विजय प्राप्त करना ।

सिद्धियां प्राप्ति का सबसे सुगम साधन

साधन यही सिद्धियों का है सरल और सुखधाम ।
श्रीगोपालनाम लेता रह मुख से आठों याम ।। (संत तुकाराम)

संतों का कहना है कि अखण्ड नाम-स्मरण से सब सिद्धियां प्राप्त होती हैं । मनुष्य सिद्धि प्राप्ति के लिए अनेक कष्ट सहकर विभिन्न उपाय करता है परन्तु भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं—

जितेन्द्रियस्य दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुने: ।
मद्धारणां धारयत: का सा सिद्धि: सुदुर्लभा ।। (श्रीमद्भागवत)

अर्थात्—जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों) पर शम-दम से विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है, विवेक के बल से जो सदैव अपने चित्त को सावधान रखता है, और मन पर विजय प्राप्त कर सदैव मेरा ही ध्यान करता है, उसके लिए कौन-सी सिद्धि दुर्लभ है ? अर्थात्—जो मुझ एक परमात्मा को अपने हृदय में धारण करता है, सब सिद्धियां उसके चरणतले आ जाती हैं और चारों मुक्तियां उसकी दासी बन कर सदैव उसके पास रहती हैं । 

लेकिन उद्धव मनुष्य को यह बात सदैव ध्यान रखनी चाहिए कि—

सिद्धि का उपयोग करने वाले की प्रसिद्धि होती है किन्तु प्रसिद्धि से पतन भी होता है । इसीलिए ज्ञानी पुरुष सिद्धि का उपयोग परोपकार के लिए भी नहीं करता है क्योंकि सिद्धियां प्रभु से मिलन में विघ्न उपस्थित करने वाली होती हैं । साधु हो या गृहस्थ, मनुष्य को सिद्धि का मोह छोड़कर भक्ति में ही मन लगाना चाहिए क्योंकि वही ‘परम सिद्धि’ है ।

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