Bhagwan Shri Krishna with Sudarshan Chaktra from Mahabharat

पुराणों के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरक चतुर्दशी) को भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध कर संसार को भय मुक्त किया था; इसलिए इस दिन हर प्रकार के भय से मुक्ति के लिए भगवान श्रीकृष्ण की इस मंत्र से पूजा-अर्चना करनी चाहिए—

वसुदेवसुतं देवं नरकासुर मर्दनम् ।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगतद्गुरुम् ।।

इस मंत्र से भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने पर मनुष्य नरक का भागी नहीं होता है ।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध

एक बार भगवान श्रीकृष्ण द्वारका में राज सभा में बैठे थे । उसी समय ऐरावत हाथी पर सवार होकर देवराज इन्द्र उनसे मिलने आए और बोले—‘मधुसूदन ! इस समय आप मनुष्य रूप में पृथ्वी लोक में स्थित हैं; लेकिन अरिष्टासुर, धेनुकासुर, बकासुर, केशी, पूतना, कुवलयापीड़, कंस आदि—जो-जो भी दैत्य संसार के लिए कष्टप्रद थे, उन सबका वध करके आपने त्रिलोकी को सुरक्षित कर दिया है । अब यज्ञकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले यज्ञ का भाग देवताओं को प्राप्त हो रहा है, जिससे देवतागण बहुत तृप्त हो रहे हैं । 

लेकिन पृथ्वी देवी का पुत्र नरकासुर जो प्रागज्योतिषपुर (आसाम, कामरूप) का स्वामी है, वह इस समय समस्त जीवों को बहुत त्रस्त कर रहा है । उसने देवता, असुर और राजकन्याओं को बलात्कार से लाकर अपने अंत:पुर में बंद कर दिया है । इस दैत्य ने वरुण देव का जल बरसाने वाला छत्र और मंदराचल का मणि-पर्वत नामक शिखर भी हर लिया है ।’

‘श्रीकृष्ण ! उसने मेरी माता अदिति के अमृतस्त्रावी दोनों दिव्य कुण्डल भी ले लिए हैं । गोविन्द ! मैंने आपको उसकी सब अनीतियां सुना दी हैं, । उनका जो प्रतीकार करना है, वह आप स्वयं विचार कर लें ।’

देवराज इन्द्र के वचन सुन कर श्रीकृष्ण मुसकराते हुए उठे और उनके स्मरण करते ही आकाशगामी गरुड़ वहां उपस्थित हो गया; जिस पर सत्यभामाजी के साथ चढ़कर वे प्रागज्योतिषपुर के लिए चल दिए ।

प्रागज्योतिषपुर के चारों ओर पृथ्वी सौ योजन तक मुर दैत्य के बनाए हुए छुरे के समान अत्यंत तीव्र पाशों से घिरी थी । भगवान ने उन पाशों  को सुदर्शन चक्र फेंक कर काट डाला । जैसे ही मुर दैत्य श्रीकृष्ण से युद्ध करने आया, भगवान ने उसका वध कर दिया । मुर दैत्य के वध के बाद उसके सात हजार पुत्र युद्ध के लिए आए, जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र की धार से उसी तरह समाप्त कर दिया; जैसे अग्नि में पतंगा भस्म हो जाता है ।

इसके बाद भगवान ने प्रागज्योतिषपुर में प्रवेश किया और नरकासुर के साथी सहस्त्रों दैत्यों का संहार कर सुदर्शन चक्र से नरकासुर के भी दो टुकड़े कर दिए ।

नरकासुर कौन है ?

नरकासुर के मरते ही पृथ्वी देवी देवताओं की माता अदिति के कुण्डल लेकर उपस्थित हुईं और भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगीं—

‘नाथ ! जिस समय वाराह रूप धारण कर आपने मेरा उद्धार किया था, उस समय आपके स्पर्श से मेरे यह पुत्र उत्पन्न हुआ था । इस प्रकार आपने ही मुझे यह पुत्र दिया और आपने ही इसको नष्ट कर दिया । आप ये कुण्डल लीजिए और अब इसकी संतान की रक्षा कीजिए । मेरे ऊपर प्रसन्न होकर ही आप मेरा भार उतारने के लिए इस लोक में अवतरित हुए हैं । अच्युत ! इस जगत के आप ही कर्ता, आप ही विकर्ता (पोषक) और आप ही हर्ता (संहारक) हैं, आप ही इसकी उत्पत्ति और लय के स्थान हैं तथा यह जगत आप ही का रूप है; फिर हम आपकी किस बात की स्तुति करें ? वासुदेव ! आप प्रसन्न होइए और इस नरकासुर के समस्त अपराध क्षमा कर दीजिए । आपने इसे निर्दोष करने के लिए ही इसका वध किया है ।’

भगवान ने पृथ्वी देवी से कहा—‘’तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो ।’

इसके बाद भगवान ने अंत:पुर में जाकर सोलह हजार एक सौ कन्याओं को व चार दांत वाले छ: हजार हाथियों और लाखों सुन्दर अश्वों को देखा । भगवान ने नरकासुर के सेवकों द्वारा सबको द्वारकापुरी पहुंचा दिया । भगवान ने वरुण देव का छत्र, व मणि-पर्वत को गरुड़ पर रखा और देवमाता अदिति के कुण्डल देने स्वर्ग लोक चले गए ।

भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर के सेवकों द्वारा लाए गए हाथी-घोड़े आदि को अपने बंधु-बांधवों में बांट दिया और नरकासुर की हरण की गईं कन्याओं को स्वयं स्वीकार कर लिया । एक ही शुभ समय पर भगवान ने उन सबके साथ अलग-अलग भवनों में विधि-पूर्वक पाणिग्रहण किया । सोलह हजार एक सौ कन्याओं के साथ पाणिग्रहण करते हुए भगवान ने उतने ही रूप बना लिए । प्रत्येक कन्या यही समझ रही थी कि ‘भगवान ने मेरा ही पाणिग्रहण किया है’।

भगवान एक हैं । वे एक होकर भी अनेकरूपता अपनाते हैं और अपने रूप में ज्यों-के-त्यों रहते हैं । यह उनकी एकता में अनन्तता की स्थिति  है ।

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