bhagwan shri krishna golok dhaam

एक बार भगवान श्रीकृष्ण द्वारका में राज सभा में बैठे थे । उसी समय ऐरावत हाथी पर सवार होकर देवराज इन्द्र उनसे मिलने आए और बोले—‘मधुसूदन ! इस समय आप मनुष्य रूप में पृथ्वी लोक में स्थित हैं; लेकिन अरिष्टासुर, धेनुकासुर, बकासुर, केशी, पूतना, कुवलयापीड़, कंस आदि—जो-जो भी दैत्य संसार के लिए कष्टप्रद थे, उन सबका वध करके आपने त्रिलोकी को सुरक्षित कर दिया है । लेकिन पृथ्वी देवी का पुत्र भौमासुर (नरकासुर) जो प्रागज्योतिषपुर (आसाम, कामरूप) का स्वामी है, वह इस समय समस्त जीवों को बहुत त्रस्त कर रहा है । उसने देवता, असुर और सोलह हजार राजकन्याओं को जबरदस्ती लाकर अपने अंत:पुर में बंद कर दिया है । 

कौन है ये सोलह हजार राजकन्याएं ?

ये सोलह हजार राजकन्याएं वेद के देवता हैं । प्रत्येक वेद-मंत्र का एक देवता, ऋषि व छन्द होता है । देवता, ऋषि और छंद का ज्ञान होने पर ही वेद-मंत्र फलदायी होता है; अन्यथा कभी-कभी वह विपरीत फल देता है ।

वेद परमात्मा का वर्णन करते-करते थक गए; किंतु उनको परमात्मा का अनुभव नहीं हुआ, वे उनको पा न सके । वेद-मंत्रों के देवता तपश्चर्या करके थक-हार गए; फिर भी ब्रह्मसम्बन्ध नहीं हो पाया । जिस प्रकार केवल भोजन का वर्णन करने से तृप्ति नहीं होती है, उसके लिए भोजन करना पड़ता है । उसी तरह से परमात्मा के दर्शन से ही लाभ नहीं होता, बल्कि उनका अनुभव करने से लाभ होता है । इसलिए वेद-मंत्रों के देवता ब्रह्म-सम्बन्ध स्थापित कर परमात्मा का अनुभव करने, उनकी सेवा करने के लिए राजकन्याओं के रूप में प्रकट हुए ।

सोलह हजार क्यों ?

वेद में कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीनों का वर्णन है । वेद-मंत्र एक लाख हैं । उसमें से—

▪️ चार हजार मंत्र ज्ञानकाण्ड के हैं जो वानप्रस्थियों के लिए हैं । ज्ञानकाण्ड बहुत कम है । विरक्त साधु-संन्यासी ही ज्ञान काण्ड पर विचार करते हैं  ।

▪️ सोलह हजार मंत्र भक्ति-उपासना काण्ड के हैं जो गृहस्थ के लिए हैं ।

▪️ शेष अस्सी हजार मंत्र कर्म काण्ड के हैं जो ब्रह्मचारी के लिए हैं ।

वेद में भक्ति काण्ड के सोलह हजार मंत्र ब्रह्मानुभव करने के लिए राजकन्याओं के रूप में प्रकट हुए । इन राजकन्याओं को भौमासुर ने बंदी बना लिया था । 

परम पूज्य श्रीडोंगरेजी महाराज ने भौमासुर का अर्थ इस प्रकार बताया है—‘जो शरीर के साथ रमण करने में सुख मानता है, वह भौमासुर है’ । 

भौमासुर का संकल्प था कि जब एक लाख कन्याएं इकट्ठी हो जाएंगी, तब उनके साथ विवाह करुंगा । राजकन्याएं रूपी वेद-मंत्रों के देवता विलासी भौमासुर के हाथ में आ गए । वह राजकन्याओं को कैद में रखता है । विलासी व्यक्ति मंत्र का अपने कामी मन की पुष्टि के लिए गलत प्रयोग करता है; जबकि वेदों को भोग पसंद नहीं है, वेद में त्याग का महत्व है ।

भगवान श्रीकृष्ण ने भौमासुर की राजधानी प्रागज्योतिषपुर जाकर उसका वध कर दिया और इन राजकन्याओं को कैद से छुड़ाया । इन राजकन्याओं के साथ संसार का कोई भी राजपुरुष इसलिए विवाह करने को तैयार नहीं हुआ क्योंकि ये भौमासुर की कैद में रह चुकी थीं । सब इनका तिरस्कार करते थे ।

मनुष्य जब दु:ख में अकेला पड़ जाता है तो ऐसा सोचता है कि इस संसार में मेरा कोई नहीं है । उस समय भगवान को यह बात बहुत बुरी लगती है; क्योंकि वे तो निराधार के आधार हैं, वे सबके हैं । मनुष्य चाहे दिन में चार बार ही उनके दर्शन करे, किंतु वे तो हर समय हमें देखते रहते हैं । संतों ने कहा भी है—

कभी भगवान भक्तों को दुखी नहीं होने देते ।
जैसे मां-बाप बच्चों को कभी रोने नहीं देते ।
बुराइयां दूर बच्चों की सभी मां-बाप करते हैं ।
प्रभो आकर के भक्तों के पाप और ताप हरते हैं ।
भक्त की राह में कांटे कभी बोने नहीं देते ।।

ये सोलह हजार राजकन्याएं निराधार होकर भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आईं । भगवान ने सोचा—ये बेचारी अपना जीवन कैसे व्यतीत करेंगी, ये तो बहुत दु:खी हैं । इसलिए भगवान ने निश्चय किया—मैं इन राजकन्याओं के साथ विवाह करुंगा । परमात्मा ने कृष्णावतार में निश्चय किया कि रामावतार में मैं मर्यादा में बंधा था किंतु अब लोग चाहें कुछ भी कहें; मुझे जो उचित लगेगा, वही करना है ।

भगवान श्रीकृष्ण महायोगेश्वर हैं । उनकी ऐश्वर्य शक्ति ने सोलह हजार मंडप खड़े कर दिए, सोलह हजार राजमहल तैयार कर दिए । श्रीकृष्ण के सोलह हजार स्वरूप भी प्रकट कर दिए । कुछ ग्रंथों में तो यहां तक कहा गया है कि विवाह में ब्राह्मण की आवश्यकता रहती है । यादवों के कुलगुरु गर्गाचार्यजी है । भगवान ने ऐसी लीला की सोलह हजार गर्गाचार्यों की भी रचना हो गई । प्रत्येक मंडप में गर्गाचार्यजी बैठे विवाह विधि संपन्न करा रहे थे ।

इस प्रकार श्रीकृष्ण सोलह हजार रानियों के स्वामी बने । उन्होंने संसार को यही संदेश दिया कि ‘स्नेह सभी से करो किंतु किसी में भी आसक्त न बनो ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने जिस अनासक्ति का गीता में उपदेश दिया है, उसे उन्होंने अपने जीवन में भी पूरी तरह चरितार्थ किया । श्रीकृष्ण भोगी होने पर भी त्यागी हैं । द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया। क्या किसी ने ऐसा आज तक किया है?

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