vidur ji mahabharat dhritarashtra

करम प्रधान बिस्व करि राखा ।
जो जस करइ तो तस फलु चाखा ।। (राचमा २।२१९।४)

यह संसार मनुष्य की कर्मभूमि और भोगभूमि दोनों है । मनुष्य के कर्मफल का भण्डार अक्षय है । उसे भोगने के लिए ही जीव चौरासी लाख योनियों में शरीर धारण करता आ रहा है; इसीलिए मानव शरीर का एक नाम ‘भोगायतन’ है । कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या है ?

समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है। प्रत्येक जीव का प्रारब्ध निश्चित रूप से विधि के द्वारा ही निर्मित है ।

कर्मफल अटल हैं इन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता है । यमराज जिंन्हें धर्मराज भी कहते हैं, सभी प्राणियों को उनके पाप-पुण्य का फल प्रदान करते हैं; लेकिन जब उनसे कोई गलती हो जाए तो क्या उन्हें माफ किया जा सकता है ? नहीं, कभी नहीं ! एक गलत कर्म से यमराज को भी दासी-पुत्र विदुर के रूप में जन्म लेना पड़ा । 

यमराज (धर्मराज) को किस कर्मफल के कारण दासी-पुत्र विदुर के रूप में जन्म लेना पड़ा ?

एक बार कुछ चोर राजकोष से चोरी कर भाग रहे थे और राजा के सैनिक उनका पीछा कर रहे थे । सैनिकों को पास आते देख कर चोर घबड़ा गए । रास्ते में माण्डव्य ऋषि का आश्रम था । चोरों ने चोरी का सारा माल ऋषि के आश्रम में फेंक दिया और भाग गए । राजा के सैनिक चोरों का पीछा करते हुए आश्रम में आए । राजकोष से चुराई गई सारी सम्पत्ति वहां देख कर उन्होंने माण्डव्य ऋषि को चोर समझ कर पकड़ लिया और राजा के सामने ले आए ।

राजा ने माण्डव्य ऋषि को शूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया । माण्डव्य ऋषि को वध-स्तम्भ पर खड़ा कर दिया गया । ऋषि उस समय भी अपना गायत्री-मंत्र जाप कर रहे थे । ऋषि के मुख-मण्डल का तेज देख कर राजा समझ गया कि ये तो कोई तपस्वी साधु हैं, चोर नहीं । भयभीत होकर राजा ने ऋषि को वध-स्तम्भ से उतारने का आदेश दिया ।

माण्डव्य ऋषि से जब राजा को सारी बात मालूम हुई तो उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ कि मैंने निर्दोष तपस्वी को शूली पर चढ़ाना चाहा । राजा ने ऋषि से उन्हें क्षमा करने की विनती की ।

माण्डव्य ऋषि ने कहा—‘राजा, मैं तुम्हें क्षमा कर दूंगा; परंतु मैं धर्म-कर्म के मूल साक्षी धर्मराज (यमराज) से पूछूंगा कि मुझ निर्दोष को ऐसा दण्ड क्यों मिला ? मैं यमराज को क्षमा नहीं कर सकता, मैं उसे दण्ड अवश्य दूंगा ।’

कितना तेजस्वी होता था भारत का संत-समाज जो एक न्यायाधीश से ही उत्तर मांगने जा रहा है । माण्डव्य ऋषि ने यमराज की सभा में जाकर पूछा—‘बताओ धर्मराज, ‘जब मैंने कोई पाप किया ही नहीं तो मुझे शूली पर क्यों चढ़ाया गया । यह मेरे किस पाप की सजा थी ?’

धर्मराज घबड़ा गए । उन्होंने सोचा कि यदि मैं यह कहूँ कि मुझसे भूल हो गई तो ऋषि मुझे शाप दे देंगे । अत: उन्होंने कह दिया कि जब आप बच्चे थे, तब आपने एक तितली को कांटा चुभोया था । यह उसी पाप की सजा है । जाने-अनजाने जो भी पाप किया जाए, उसका दण्ड भुगतना ही पड़ता है । मनुष्य अपने पुण्य भगवान को अर्पण कर सकता है, परंतु पाप तो उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है ।’

माण्डव्य ऋषि ने यमराज से कहा—‘शास्त्र की आज्ञा है कि यदि अज्ञान में कोई मनुष्य पाप कर दे, तो उसकी सजा उसे स्वप्न में दी जाए । मैं अबोध बालक था; इसलिए उस समय किए गए पाप का दण्ड मुझे स्वप्न में ही मिलना चाहिए था । तुमने मुझे अनुचित दण्ड दिया । अत: मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम्हें सामान्य मनुष्य के घर जन्म लेकर सौ वर्ष तक पृथ्वी पर रहना पड़ेगा ।’

इस प्रकार माण्डव्य ऋषि के शाप के कारण यमराज को विदुर के रूप में दासी के घर जन्म लेना पड़ा । सबको अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता बै ।

बड़े-बड़े देवताओं के विषय में भी विधि का विधान अटल है

ब्रह्मा आदि सभी देवता भी कर्म के वश में हैं और अपने किए कर्मों के फलस्वरूप सुख-दु:ख प्राप्त करते हैं । भगवान विष्णु भी अपनी इच्छा से जन्म लेने के लिए स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार के सुखों व वैकुण्ठपुरी का निवास छोड़कर निम्न योनियों (मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन) में जन्म क्यों लेते ? सूर्य और चन्द्रमा कर्मफल के कारण ही नियमित रूप से परिभ्रमण करते हैं तथा सबको सुख प्रदान करते हैं, किन्तु राहु के द्वारा उन्हें होने वाली पीड़ा दूर नहीं होती । सूर्यपुत्र शनैश्चर ‘मन्द’ और चन्द्रमा ‘क्षयरोगी’ तथा ‘कलंकी’ कहे जाते हैं । भगवान विष्णु को रामावतार ग्रहण करके वनवास का दारुण कष्ट, सीता-हरण का महान दु:ख, रावण से युद्ध व पत्नी-परित्याग की असीम वेदना सहनी पड़ी । उसी प्रकार कृष्णावतार में बन्दीगृह में जन्म, गोकुल-गमन, गोचारण, कंस-वध और फिर द्वारका के लिए प्रस्थान आदि अनेक सांसारिक दु:खों को भोगना पड़ा । रामावतार के समय देवता कर्मबन्धन के कारण वानर बने थे और कृष्णावतार में भी कृष्ण की सहायता के लिए देवता यादव बने थे । 

समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है; इसीलिए कहा गया है—

ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी ।
सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी ॥
उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी ॥
सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी ॥
मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी ॥
सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी ॥

1 COMMENT

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति। यह संसार कर्म क्षेत्र है और प्रत्येक प्राणी कर्म किए बिना नही रह सकता है, फिर वो चाहे कायिक हो, वाचिक हो या मानसिक। स्वयं श्रीभगवान भी यही कहते हुए अर्जुन से कहा “विना कर्म किए कोई भी नही रह सकता है, इसलिए मेरे निमित्त, मुझे अर्पण कर कर्म करो फिर वो कर्म तुम्हे कर्म-बंधन के जाल मे नही बाँध सकता।”

    जय श्री हरि

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