पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु देवशयनी एकादशी से देवप्रबोधिनी एकादशी तक—इन चार मास की अवधि में पाताल लोक में निवास करते हैं । इस काल को चातुर्मास्य या चातुर्मास कहा जाता है । भगवान विष्णु के साथ अन्य देवतागण भी प्रसुप्त अवस्था में रहते हैं इसलिए आसुरी प्रवृत्तियां बलवान हो जाती हैं । इन दुष्प्रवृत्तियों को कमजोर करने के लिए ही पुराणों में मनुष्य को भगवान विष्णु के शयनकाल को नियम, संयम, तप, साधना, व्रत-उपवास और स्वाध्याय में बिताने का विधान किया गया है जिससे शरीर के साथ मन व आत्मा भी पवित्र और शुद्ध हो जाए ।
चातुर्मास्य में करे ये कार्य, पायें पुण्य अपार
चातुर्मास्य सब गुणों से युक्त श्रेष्ठ समय है जिसमें सभी तीर्थ, देवस्थान, दान व पुण्य भगवान विष्णु की शरण में रहते हैं । अत: भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए किये गये सत्कर्म इस समय अक्षय पुण्य देने वाले होते हैं । इन दिनों कुछ छोटे-छोटे सत्कार्य कर मनुष्य अपने लोक-परलोक को सुधार सकता है—
▪️चातुर्मास्य में प्रतिदिन भगवान विष्णु के मन्दिर को साफ (झाड़ू-पौंछा) करने व उनकी अर्चना करने से मनुष्य अगले जन्म में राज्य सुख प्राप्त करता है ।
▪️चातुर्मास्य में जो मनुष्य नित्य भगवान विष्णु को पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद और शक्कर) से स्नान कराता है वह वैभवशाली होकर हर प्रकार के सुख भोगता है ।
▪️चातुर्मास्य में भगवान को प्रतिदिन तुलसी अर्पित करने से व मन्दिर में संध्या समय दीप प्रज्ज्वलित करने से विष्णुलोक की प्राप्ति होती है ।
▪️चातुर्मास्य में प्रतिदिन भगवान विष्णु के समक्ष पुरुष सूक्त या विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करने का बड़ा माहात्म्य बतलाया गया है ।
▪️’नमो नारायण’ यह भगवान विष्णु का प्रिय मन्त्र है, चातुर्मास्य में इसका हर समय जप करने का अनन्त फल माना गया है ।
▪️चातुर्मास्य में भगवान विष्णु के सामने वेद की एक या आधी ऋचा का गान कर दिया जाए तो वह भी उन्हें बहुत प्रसन्नता देता है ।
▪️चातुर्मास्य में नित्य भगवान सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए व चातुर्मास्य की समाप्ति पर सोना या गौ का दान करने से मनुष्य जीवन भर स्वस्थ रहता है तथा कीर्ति, धन व बल प्राप्त करता है ।
▪️चातुर्मास्य में जो मनुष्य पुराणों की कथा सुनते या पढ़ते हैं वह सब पापों से मुक्त होकर वैकुण्ठ लोक जाते हैं ।
▪️चातुर्मास्य में भगवान नारायण जल में निवास करते हैं अत: जल में भगवान विष्णु के तेज का अंश विद्यमान रहता है । इसलिए चातुर्मास्य में एक बार भी किसी पवित्र नदी में स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।
▪️ घर पर स्नान करते समय जल में तिल या आंवला या बिल्वपत्र मिला कर स्नान करने से तीर्थस्नान का फल प्राप्त हो जाता है ।
▪️चातुर्मास्य में भगवान जल में निवास करते हैं । जल से अन्न पैदा होता है जिससे जगत (देवता, पितर और प्राणियों) की तृप्ति होती है । इसलिए अन्न को ‘ब्रह्म’ कहा गया है । अन्न व जल का दान करने से मनुष्य बुढ़ापे, सांसारिक क्लेशों व पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति पा लेता है ।
▪️ब्रह्माजी का प्रिय वृक्ष है पलाश । इसमें पापों के नाश व कामनाओं की पूर्ति करने का गुण है । अत: जो मनुष्य चातुर्मास्य में प्रतिदिन पलाश की पत्तल में भोजन करता है वह रूपवान और और सभी भोगों से सम्पन्न होता है । यहां तक कहा गया है कि एकादशी का व्रत करने का जो पुण्य है वही पलाश की पत्तल में भोजन करने का पुण्य है । साथ ही वह सब प्रकार के दान व तीर्थों का फल भी पा लेता है ।
▪️चातुर्मास्य में भगवान पाताल में निवास करते है इसलिए भूमि पर शयन का बहुत महत्व है । ऐसा करने से मनुष्य रोगमुक्त विशेषकर कोढ़ से मुक्त रहता है ।
▪️चातुर्मास्य में मनुष्य को मौन रह कर भोजन करना चाहिए इसका पालन करने से मनुष्य दु:खों से दूर रहता है क्योंकि मौन होकर भोजन करने का फल उपवास के समान माना गया है ।
▪️चातुर्मास्य में तांबे के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिए ।
▪️चातुर्मास्य में अपनी सामर्थ्यानुसार ब्राह्मणों को दान अवश्य करना चाहिए क्योंकि दान का फल अक्षय होता है ।
▪️भगवान विष्णु के शयनकाल में जो मनुष्य अपनी सामर्थ्यानुसार वस्त्र, तिल और स्वर्ण दान करते हैं उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और इस लोक में सुख भोग कर परलोक में मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
चातुर्मास्य में कौन से कर्म बन जाते हैं महातप
▪️सत्य, अहिंसा, मन को वश में रखना, क्षमा व ब्रह्मचर्य का पालन और अहंकार, ईर्ष्या व कामना का त्याग—ये ऐसे गुण हैं जिनका पालन करने से मनुष्य की पाप राशि उसके शरीर से निकल कर नष्ट हो जाती है । अत: इन गुणों को अपने चरित्र में धारण करना महातप माना गया है ।
▪️चातुर्मास्य में परनिन्दा, चुगली आदि का त्याग करना भी महातप माना गया है । दूसरों की बुराई करना और सुनना दोनों को ही महा दु:ख माना गया है—
परनिन्दा महापापं परनिन्दा महाभयम् ।
परनिन्दा महादु:खं न तस्या पातकं परम् ।।
चातुर्मास्य है सेहत, संयम और स्वाध्याय का काल
कहने का तात्पर्य है कि चातुर्मास्य के चार महीने हल्का सात्विक भोजन करें, शरीर को साफ-सुथरा रखें, भगवान की भक्ति को अपनायें जो आन्तरिक शान्ति देती है, थोड़ा दान-पुण्य करें जिससे आत्मा को संतुष्टि मिलती है, थोड़ा स्वाध्याय (पुराणों का पढ़ना) करें जिससे मनुष्य चिन्तामुक्त हो जाता है और ज्यादा-से-ज्यादा सद्गुणों की ओर बढ़ने का प्रयास करें जिससे हमारा बाह्य वातावरण (घर, परिवार व समाज) शुद्ध व पवित्र हो जाएगा । तभी हम कह सकते हैं ‘सेहत, संयम व स्वाध्याय का समय है चातुर्मास्य ।’