वेंकटेश्वर का अर्थ—‘वें’ का अर्थ है पाप और ‘कट’ का अर्थ है दूर करने वाला अर्थात् ‘वेंकट’ का अर्थ है पापों को दूर करने वाला और ‘ईश्वर’ का अर्थ है भगवान; इसलिए ‘वेंकटेश्वर’ का अर्थ है पापों को दूर करने वाले भगवान । कलियुग में भगवान विष्णु तिरुपति में वेंकटेश्वर स्वामी के नाम से अवतरित होकर भक्तों पर कृपा बरसाते हैं । उत्तर भारतीय भगवान वेंकटेश्वर को ‘बालाजी’ कहते हैं ।
भगवान वेंकटेश्वर बालाजी के अवतार धारण करने का कथा-प्रसंग
हर युग में भगवान विष्णु के अवतार हुए और प्रत्येक अवतार के पीछे एक कहानी है । भगवान के वेंकटेश्वर अवतार की कथा इस प्रकार है—
द्वापर युग की समाप्ति और कलियुग के आरम्भ होने पर एक बार ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा—‘कलियुग में सारा संसार अशांति और असत्य में डूब जाएगा । कलियुग में भगवान नारायण ने अवतार धारण नहीं किया है; इसलिए तुम अपने कौशल से ऐसा कोई उपाय करो जिससे भगवान भूलोक में अवतार धारण करें । तब मानव भक्ति-युक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करेगा ।’
पिता की बात सुन कर नारदजी भूलोक में गंगा किनारे आए जहां समस्त ऋषि-गण एकत्रित होकर जन-कल्याण के लिए एक विशाल यज्ञ कर रहे थे । नारदजी ने मुनियों से पूछा—‘संसार की भलाई के लिए किया जाने वाला यज्ञ साधारण नहीं होता; इसलिए इसका फल पाने वाला भी साधारण नहीं होना चाहिए । इस यज्ञ का फल आप किसे दे रहे हैं ? सबसे पहले यह जानने का प्रयत्न कीजिए कि त्रिमूर्तियों में से कौन सत्वगुण-संपन्न है और कौन मोक्ष फल का दाता है, अत: यज्ञ का फल किसे देना चाहिए ?’’
मुनियों ने कहा—‘नारद ! तुम बहुत बुद्धिशाली हो, अत: तुम ही बताओ, ब्रह्मा, विष्णु और महेश में से किसको यज्ञ का फल देना चाहिए । एक सृष्टि करता है, दूसरा पालन करता है और तीसरा रुद्रमूर्ति है । तीनों ही एक-दूसरे से कम नहीं है । अत: इनकी परीक्षा कर लेनी चाहिए । इस कार्य के लिए भृगु ऋषि ही श्रेष्ठ हैं क्योंकि जैसे भगवान शिव का तीसरा नेत्र ललाट पर है, इनका तृतीय तपोनेत्र पाद (चरण) में है ।’ त्रिमूर्ति में कौन श्रेष्ठ है—इसकी परीक्षा करने के लिए भृगु ऋषि मान गए ।
भृगु ऋषि द्वारा ब्रह्मा, शिव और विष्णु की परीक्षा
सर्वप्रथम भृगु ऋषि सत्यलोक गए, जहां ब्रह्माजी वरुण, अग्नि आदि दिक्पालकों से सृष्टि के सम्बन्ध में चर्चा कर रहे थे । भृगु ऋषि काफी देर तक ब्रह्मसभा में खड़े रहे परन्तु किसी ने भी उनकी ओर ध्यान नहीं दिया । क्रोधित होकर भृगु ऋषि ने कहा—‘ब्रह्मदेव ! तुम स्रष्टा होने के गर्व में इतने अंधे हो रहे हो कि चार सिर और आठ आंखों के होते हुए भी तुम्हें अतिथि दिखाई नहीं देता । तुममें रजोगुण की प्रधानता है । अतिथि के अपमान के लिए मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि ‘पृथ्वी पर कहीं भी न तो तुम्हारी पूजा होगी और न ही मंदिर होगा ।’
इसके बाद भृगु ऋषि कैलास गए, जहां भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती के साथ अंत:पुर में भोगानुभव कर रहे थे । बाहर गणेश, कार्तिकेय और समस्त शिवगण कोई उत्सव मना रहे थे । किसी ने भी भृगु ऋषि को नहीं पहचाना । क्रोधित होकर भृगु ऋषि सीधे अंत:पुर में प्रवेश कर गए जिस पर शिव भी उन पर क्रोधित हो उठे । भृगु ऋषि ने सोचा इनमें तामस गुण ही है; इसलिए शिवजी को शाप देते हुए कहा—‘तुम्हारी किसी भी मंदिर में मूर्ति नहीं होगी, सब जगह तुम लिग ही लिंग हो जाओ ।’
अब भृगु ऋषि वैकुण्ठ लोक में पहुंचे, जहां भगवान विष्णु शेषशय्या पर शयन कर रहे थे और लक्ष्मीजी उनकी पाद सेवा कर रही थीं । यह देखकर भृगु ऋषि का पारा और चढ़ गया । उन्होंने भगवान विष्णु के वक्ष पर पदाघात करते हुए कहा—‘हमारे आने पर भी तुम सोते हो, उठो !’
भृगु ऋषि के पदाघात से विष्णुजी ने शेषशय्या से उतर कर उनके चरण पकड़ लिए और लक्ष्मीजी को उनके लिए पाद्य-अर्घ्य आदि लाने के लिए कहा । भगवान विष्णु ने कहा—‘क्षमा करो महात्मन् ! कौस्तुभ आदि से युक्त हारों को पहनने से मेरी छाती बहुत कठोर है, इस पर पदाघात से आपके सुकुमार चरण को कितना कष्ट हुआ होगा । मुझे अपना दास समझ कर क्षमा करना । मैं आपके चरण छूता हूँ ।’
भगवान विष्णु ने भृगु ऋषि का पांव हाथ में लेकर उनके तपोनेत्र को अपनी ऊंगलियों से खींचकर सागर में फेंक दिया जिससे भृगु ऋषि का सारा गर्व जाता रहा । भृगु ऋषि ने कहा—‘आपको लात मार कर मैंने बड़ा पाप किया, मेरे दोष को क्षमा करें ।’ भगवान विष्णु ने कहा—‘तुम दु:खी मत हो, तुम्हारे मन की बात और आने का कारण मैं जानता हूँ । तुम्हारे कारण हमारा महत्व संसार में विदित होगा ।’
भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु से यज्ञ का फल स्वीकार करने की प्रार्थना की, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया । भृगु ऋषि ने भूलोक में जाकर समस्त ऋषियों को भगवान विष्णु का महत्व बता कर यज्ञ फल उन्हें समर्पित करने के लिए कहा ।
लक्ष्मीजी का रूठ कर भूलोक में जाना
भृगु ऋषि के कार्य से भगवान विष्णु के वक्ष:स्थल में रहने वाली लक्ष्मीजी क्रुद्ध हो गईं और बोली—‘चौदह भुवनों के स्वामी और समस्त देवताओं से पूजित आप को लात मारने का उस ब्राह्मण का साहस ! यही नहीं यह वक्ष:स्थल मेरा निवासस्थान है । इस पर लात मारने का मतलब है, मुझे लात मारना । उसे दण्ड देने की जगह आपने उनसे क्षमा मांगी, यह देखकर मेरा तो दिल जल रहा है । पर-पुरुष से अपमानित होकर जीवित रहने की अपेक्षा नाक बंद करके तपस्या कर लेना अच्छा है ।’
भगवान विष्णु ने लक्ष्मीजी को बहुत समझाया कि ‘भक्तों के मन की बात को जानना बहुत कठिन है । वे किसी महान कार्य के लिए यहां आए थे । संतान के कार्य से माता-पिता क्यों नाराज होंगे ? तुमको शांत हो जाना चाहिए ।’ परन्तु लक्ष्मीजी ने कहा—‘मैं उसे क्षमा नहीं कर सकती । अगर आप उसे दण्ड नहीं दे सकते तो मैं वैकुण्ठ में नहीं रहूंगी । उस दुष्ट ने हम दोनों को अलग किया है; इसलिए मैं समस्त ब्राह्मण जाति को शाप देती हूँ कि ‘ब्राह्मण भूलोक में वेदोक्त कर्मों से हीन और दरिद्र बन कर विद्याओं को बेचते हुए जीवन यापन करेंगे ।’
लक्ष्मीजी भूलोक में आकर गोदावरी नदी के किनारे कोल्हापुर में एक पर्णकुटी बनाकर तपस्या करने लगीं ।
पत्नी वियोग में भगवान विष्णु का पृथ्वी पर आना
लक्ष्मीजी के वैकुण्ठ छोड़ते ही वहां की शोभा जाती रही, चारों ओर दरिद्रदेव का राज्य हो गया । पत्नी के वियोग में भगवान विष्णु भी एक दिन वैकुण्ठ छोड़कर भूलोक आ गए और पत्नी को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते शेषाद्रि (शेषाचल) पहुंच गए । इसे शेषाचल इसलिए कहते हैं क्योंकि भगवान शेष यहां पर्वत रूप में स्थित हैं । इस पर्वत को तिरुमलै या तिरुमाला भी कहते हैं, जिसका अर्थ है श्रीयुक्त पर्वत ।
धरती पर पैर रखते ही भगवान विष्णु को भी भूख-प्यास आदि मानवीय तत्त्व प्रभावित करने लगे । एक दिन थकान के कारण वे एक इमली के पेड़ के नीचे वल्मीक (खोडर) में शयन करने के उद्देश्य से जा छिपे ।
वैकुण्ठ उजड़ गया—यह जानकर नारदजी ने ब्रह्माजी से कहा—‘आप के कहे अनुसार मैंने कार्य कर दिया । लक्ष्मीजी और विष्णु दोनों ही भूलोक चले गए हैं । निद्रा और आहार के बिना भगवान विष्णु सूख कर कांटा हो गए हैं; इसलिए आप उन्हें आहार देने की व्यवस्था कीजिए ।’
ब्रह्माजी भगवान शंकर को साथ लेकर लक्ष्मीजी के पास पहुंचे और बोले—‘निद्रा और आहार के बिना भगवान विष्णु आजकल शेषाद्रि पर एक पेड़ के खोडर में रह रहे हैं, उनकी रक्षा होनी चाहिए । हम दोनों गाय और बछड़े का रूप धारण करेंगे और आप ग्वालिन बन कर हमें चोल देश के राजा को बेच दीजिए । हम उस राजा की गायों के साथ रहकर श्रीहरि को प्रतिदिन दुग्धपान कराएंगे ।’ लक्ष्मीजी ने बात मान ली । शेषाद्रि (वेकटाचलम्) उन दिनों चोल राजा के अधीन था ।
उसी क्षण ब्रह्मा गाय, शिवजी बछड़ा और लक्ष्मीजी ग्वालिन बनकर चोलराजा के पास पहुंचीं । गाय और बछड़े के सौंदर्य से आकर्षित होकर राजा-रानी ने उन्हें खरीद लिया । लक्ष्मीजी का काम पूरा हो गया । चोलराजा ने ग्वाले से कहा कि नई गाय का दूध दुह कर राजकुमार के लिए लाया करो ।
चोलराजा के पास हजारों गायें थीं । ग्वाला उस गाय और बछड़े को भी अन्य गायों के साथ शेषाचल पर चरने के लिए ले जाता पर वह गाय घास न चर कर अकेले ही उस वल्मीक पर जाकर दूध की धार डालने लगी । इससे सोते हुए विष्णु जाग गए और गाय को ब्रह्मा जानकर दूध पीने लगे । वह गाय गोशाला में आकर दूध नहीं देती थी । इस पर राजा ने ग्वाले को चोर कहते हुए दण्ड देने की बात कही । राजदण्ड से भयभीत ग्वाले को गाय पर शंका होने लगी ।
एक दिन जब वह गाय बछड़े के साथ वल्मीक पर जाकर दूध की धार देने लगीं, तो ग्वाले ने छुप कर उन्हें ऐसा करते हुए देख लिया । उसने क्रोध में आकर गाय को मारने के लिए अपनी कुल्हाड़ी उठाई, तभी उस परोपकारी गाय को बचाने के लिए भगवान विष्णु बीच में आ गए और कुल्हाड़ी उनके सिर पर जा लगी जिससे रक्त बहने लगा । यह देखकर ग्वाला बेहोश हो गया । किसी ने राजा को इस घटना की खबर दी । राजा ने जाकर देखा कि वल्मीक से रक्त बह रहा है । राजा को देखकर विष्णुजी खोडर से बाहर आ गए और बोले—‘सेवकों के पाप का फल राजा को भोगना पड़ता है । आज से तुम पिशाच हो जाओ ।’
चोलराजा भगवान के चरणों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगा । तब करुणा करके भगवान विष्णु ने कहा—‘मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा, लेकिन तुम इस देह को छोड़कर इसी चोलवंश में ‘आकाशराज’ के रूप में जन्म लोगे और अपनी पुत्री पद्मावती का मेरे साथ विवाह कराओगे । उस अवसर पर तुम मुझे एक वज्रकिरीट भेंट करोगे, उसे मैं प्रत्येक शुक्रवार को धारण करुंगा । उस दिन तुम शाप से मुक्त हो जाओगे ।’
तभी ग्वाले की मूर्च्छा टूटी किंतु वह अंधा हो गया । वह भी भगवान के चरणों पर गिर पड़ा । तब दया करके भगवान ने कहा—‘मैं कुछ समय बाद इस पर्वत पर मूर्तरूप धारण करुंगा । तब तक तू यहीं अंधा बन कर रह । मेरे अवतार लेते ही तेरी आंखें ठीक हो जाएंगी ।’
कलियुग में भगवान विष्णु का वेंकटेश्वर अवतार
ग्वाले के कारण श्रीहरि के सिर पर चोट लगी थी, वे शेषाद्रि पर ही घूम-घूम कर औषधि की खोज कर रहे थे कि देवलोक से देवगुरु बृहस्पति ने आकर उनसे कहा—‘आप भक्तों के कल्याण के लिए कितने कष्टों का सामना कर रहे हैं । इस घाव की सर्वोत्तम औषधि है कि मदार की रुई को गूलर के पेड़ के दूध में भिगोकर घाव पर लगा दीजिए । ऐसा करने पर वह एक सप्ताह में ठीक हो जाएगा ।’
भगवान विष्णु औषधि की खोज करते हुए शेषाद्रि पर वराहस्वामी के आश्रम में पहुंचे । वराहस्वामी ने उनका आदर-सत्कार कर वेंकटाचल पर ही रहने को जगह दे दी और कहा—‘मेरे पास वकुलादेवी नाम की भक्तिन है । वह माता की तरह आपकी सेवा करती रहेगी । उसे आप अपने पास रहने दीजिए ।’
वकुलादेवी
वकुलादेवी कृष्णावतार में माता यशोदा थीं जो श्रीकृष्ण का विवाह न देख सकीं थीं । श्रीकृष्ण ने उन्हें वर दिया था कि कलियुग में मैं एक नौजवान के रूप में तुम्हारे पास आऊंगा, तब तुम मेरी शादी देखोगी ।’
वकुलादेवी ने कहा—‘आज से तुम मेरे पुत्र हो । मैं तुम्हें ‘श्रीनिवास’ के नाम से पुकारुंगी ।’ वकुलादेवी ने जड़ी-बूटियां लाकर भगवान श्रीनिवास के घावों पर लगा दीं । वे अच्छे-अच्छे फल, कन्द-मूल आदि जंगल से लाकर श्रीनिवासजी को खिलातीं ।
चोल राज्य के राजा का नाम आकाशराज और उनकी पत्नी का नाम धरणीदेवी था । आकाश राजा के छोटे भाई का नाम तोंडमान था । दोनों भाइयों के कोई संतान नहीं थी; इसलिए उन्होंने यज्ञ करने के लिए जमीन जोती तो एक स्थान पर हल अटक गया । जब जमीन खोदी तो वहां उन्हें एक सोने का संदूक मिला ।
संदूक को खोलने पर उसमें सहस्त्र दलों वाला एक कमल और उस पर लेटी हुई विद्युत के समान दीप्तमान एक बालिका मिली । उस बालिका को पाकर राजा रानी के हर्ष का पारावार न रहा । पद्म में मिलने के कारण ब्राह्मणों ने उसका नाम ‘पद्मावती’ रखा । पद्मावती के मिलने के बाद धरणीदेवी को ‘वसुदान’ नामक पुत्र हुआ ।
पद्मावती दिनोंदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगी । एक दिन नारदजी आकाशराज से मिलने आए तो राजा ने उन्हें पद्मावती के लिए योग्य वर बताने के लिए कहा । नारदजी ने कहा—‘आपको दामाद की खोज करने की आवश्यकता नहीं है । आपकी पुत्री लक्ष्मीजी के अंश को लेकर पैदा हुई है । रामावतार में वेदवती को भगवान राम द्वारा दिए गए वर के अनुसार वही वेदवती आपके यहां पद्मावती के रूप में अवतरित हुई है । भगवान विष्णु के साथ ही पद्मावती का विवाह होगा । वह शुभ घड़ी बहुत ही निकट आ रही है ।’
एक दिन भगवान श्रीनिवास वकुलादेवी की आज्ञा लेकर आखेट के लिए वन में गए । वहां एक हाथी का पीछा करते हुए वे दूर निकल गए । कुछ ही देर बाद हाथी तो ओझल हो गया और पानी की तलाश में श्रीनिवासजी एक सरोवर के समीप आए । वहां उद्यान में पद्मावती अपनी सखियों के साथ खेल रही थी । पद्मावती और श्रीनिवासजी एक-दूसरे को देखकर प्यार में पड़ गए । श्रीनिवासजी के चले जाने पर महल में पद्मावती न खाती, न पीती और न ही सोती थी । इधर आश्रम में श्रीनिवास की हालत भी ऐसी ही थी । एक दिन श्रीनिवास ने अपने दिल की बात वकुलादेवी को बता दी और उन्हें आकाशराज के पास जाकर पद्मावती से विवाह करा देने की प्रार्थना की ।
वकुलादेवी के जाने बाद आकाशराज अपने गुरु शुक योगी के पास श्रीनिवास और पद्मावती के विवाह के बारे में सलाह लेने गए । शुक योगी ने कहा—‘शेषाद्रि पर रहने वाला श्रीनिवास साधारण मानव नहीं है, वह तो साक्षात् श्रीहरि हैं । तुम्हारे पूर्व जन्म के पुण्यों के कारण वे तुम्हारे दामाद बनने जा रहे हैं । उन्हीं के दर्शन के लिए हम जैसे लोग कई जन्मों से तपस्या कर रहे हैं ।’ राजा ने तुरंत देवगुरु बृहस्पति को बुलाकर शादी के लिए लग्न पत्रिका लिखवाई ।
वैशाख शुक्ल दशमी शुक्रवार को हुआ श्रीनिवास और पद्मावती का कल्याण (विवाह) महोत्सव
वैशाख शुक्ल दशमी शुक्रवार को श्रीनिवास और पद्मावती के कल्याण महोत्सव के लिए आदिशेष, गरुत्मान (गरुड़), ब्रह्मा, शंकर नारद, कुबेर आदि सभी देवता आ गए । श्रीनिवास ने नारदजी से कहा—‘लक्ष्मी मुझे छोड़कर चली गई हैं इसलिए मैं बड़ी निर्धन अवस्था हूँ । आप कृपा करके कोई ऐसा उपाय सोचिए जिससे मैं अपने विवाह के लिए धन जुटा सकूँ ।’
जब सभी देवताओं की सभा बैठी थी, तब नारदजी ने कुबेर से कहा—‘आप श्रीनिवास और पद्मावती के विवाह के लिए पर्याप्त धन देकर सहायता कीजिए । स्वामी उस धन को सूद के साथ चुका देंगे ।’ कुबेर ने तुरंत नारदजी की बात मान ली ।
भगवान श्रीनिवास ने एक पत्र लिखा कि मैंने कुबेर से अपने विवाह खर्च के लिए एक करोड़ चौदह लाख निष्क लिए हैं जिन्हें मैं सूद सहित लौटा दूंगा ।’ ब्रह्मा, शंकर और अश्वत्थ ने उस पत्र पर साक्षी के रूप में हस्ताक्षर किए ।
शुभ मुहुर्त में विवाह की समस्त विधियां सम्पन्न हुईं । देवताओं ने नव-दंपति पर पुष्प वर्षा की और महामुनियों ने आशीर्वाद दिया ।
विदा के समय श्रीनिवास ने आकाशराज से कहा—‘आपने मुझे सदा के लिए अपना आभारी बनाया है, अत: कोई वर मांग लीजिए ।’ आकाशराज ने कहा—‘मुझे यह वर दीजिए कि मैं कभी भी आपके नाम-स्मरण को न भूलूँ ।’ भगवान श्रीनिवास ने कहा—‘मैं आपको सायुज्य मोक्ष प्रदान करता हूँ ।’
सबसे विदा लेकर भगवान श्रीनिवास और पद्मावतीजी अगस्त्य मुनि के आश्रम में आए । विवाह के बाद नव-दम्पत्ति को छ: मास तक पर्वत पर नहीं चढ़ना चाहिए; इसलिए भगवान श्रीनिवास और पद्मावतीजी छ: मास तक अगस्त्याश्रम में रहे । सभी देवता अपने-अपने लोक को चले गए ।
आकाशराज की मृत्यु के बाद एक दिन तोंडमान अगस्त्याश्रम आए और श्रीनिवास से कोई सेवा बताने के लिए कहा । श्रीनिवास ने कहा—‘शेषाद्रि पर वराहस्वामी ने जो स्थान मुझे दिया है वहां मेरे लिए ऐसे मंदिर का निर्माण कराओ जिसमें लक्ष्मी और पद्मावती के रहने की योग्यता हो । इसमें गोपुर, शिखर, सिंहद्वार, ध्वजा मण्डप, धान्यशालाएं, पाकशालाएं, गोशाला व फूलो की बावली बनवाओ ।’
भगवान की आज्ञा मानकर तोंडमान ने शेषाद्रि को ‘दूसरा वैकुण्ठ’ बना दिया । शुभ मुहुर्त में श्रीनिवास और पद्मावतीजी ने ‘आनन्द निलय’ में प्रवेश किया । उस समय ब्रह्माजी ने कहा—‘स्वामी ! लोक कल्याण के लिए आप वर दीजिए कि जो भक्त आपके निवास शेषाद्रि पर आएं, उनके पाप दूर हो जाएं । मैं आपकी संनिधि में दो अखण्ड ज्योतियां जलाऊंगा । ये ज्योतियां लोक-कल्याण के लिए सदा आपकी संनिधि में जलती रहेंगी। आप कलियुग के अंत तक इसी वेंकटाचल पर निवास कीजिए और अपने भक्तों को दर्शन देते रहिएगा । अब मैं जो ब्रह्मोत्सव करुंगा उसे स्वीकार कीजिएगा ।’
भगवान श्रीनिवास ने ब्रह्माजी की बात स्वीकार कर ली । उस दिन से उस स्थान का नाम वेंकटाचलम् हो गया ।
लक्ष्मीजी और भगवान विष्णु में कलह का कारण नारदजी ही थे । अब नारदजी लक्ष्मीजी के पास कोल्हापुर पहुंचे और कहा—‘क्यों आप आनन्दधाम वैकुण्ठ को छोड़ कर इन जंगलों में निद्रा और आहार के बिना धूप-जाड़ा सहते हुए कब तक तपस्या करती रहेंगी ?’ नारदजी ने उन्हें भगवान श्रीनिवास और देवी पद्मावती के विवाह की बात बताई । यह सुनते ही लक्ष्मीजी को मानो काठ मार गया । वे नारदजी सहित वेंकटाचलम् पहुंची ।
भगवान श्रीनिवास ने अचानक लक्ष्मीजी को देखा तो समझ नहीं पाए कि यह स्वप्न है या सत्य । पद्मावतीजी को भी समझ नहीं आया कि यह स्त्री कौन है ?
दोनों सौतों में झगड़ा होने लगा । भगवान श्रीनिवास की दशा जाल में फंसे पक्षी के समान थी, न इधर चैन, न उधर चैन । थोड़ी देर में दिव्यज्ञान से लक्ष्मीजी को सारी बात समझ आ गई और उन्होंने कहा—‘अब हम सगी बहनों की तरह रहेगी ।’
भगवान श्रीनिवास ने लक्ष्मीजी को कुबेर से लिए कर्ज की बात बताई और कहा—‘कलियुग में तुम मेरे भक्तों को धन-सम्पत्ति प्रदान करती रहो जिससे वे अनेक पाप करके विपत्तियों में फंस जाएंगे । फिर मैं उन्हें स्वप्न में उपाय बताऊंगा जिससे वे मेरी मनौती करके भेंट चढ़ाएंगे । वह धन मैं कुबेर को सूद के रूप में दे दूंगा । यह तुमको कलियुग के अंत तक करना पड़ेगा । फिर हम वैकुण्ठ जाकर सुख से रह सकते हैं । तब तक तुम पद्म सरोवर में स्थित रह कर भक्तों की रक्षा करती रहो । किन्तु तुम अपने एक स्वरूप से मेरे बांये वक्ष:स्थल में रहो । पद्मावती को दक्षिण वक्ष पर रहने दो ।’
भगवान ने लक्ष्मीजी व पद्मावतीजी को अपने आलिंगन में लेकर अपने दांये और बायें वक्ष:स्थल में रख लिया । भगवान श्रीहरि जगत के कल्याण के लिए भूलोक आए थे केवल दो स्त्रियों की रक्षा के लिए नहीं; इसलिए वे सात कदम पीछे चले । तभी एक भयंकर ध्वनि हुई और वे शिलाविग्रह में परिवर्तित हो गए । तभी आकाशवाणी हुई—‘अब से मैं कलियुग के अंत तक वेंकटेश्वर स्वामी के नाम से इसी रूप में रहूंगा । अपने भक्तजनों की मनोकामना पूरी करना ही मेरा व्रत है ।’
स्कन्दपुराण के अनुसार—‘उन वेंकटाचल निवासी भगवान श्रीहरि का दो घड़ी भी चिन्तन करने वाला मनुष्य अपनी इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार करके विष्णुलोक में सम्मानित होता है ।’