नीराकार ब्रह्म अर्थात् जलरूप ब्रह्म या द्रवरूप में ब्रह्म
कोई ‘नराकार ब्रह्म’ (राम, कृष्ण) को भजता है , तो कोई ‘निराकार ब्रह्म’ को; परन्तु कलियुग में मनुष्य के पाप-तापों की शान्ति ‘नीराकार ब्रह्म’ से ही होती है ।
हिन्दी में ‘नीर’ जल को कहते हैं । ‘द्रव’ तरल पदार्थ को कहते हैं । अत: नीराकार ब्रह्म का अर्थ है ‘भगवान का जलमय रूप’ और यह रूप है मां गंगा ।
मनुष्यों के तापों की शान्ति के लिए ब्रह्म का द्रवरूप होना
गंगा को ‘ब्रह्मद्रव’ भी कहते हैं । ‘ब्रह्मद्रव’ का अर्थ है—आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक (शारीरिक, मानसिक और भौतिक)—इन तीनों तापों से पीड़ित मनुष्यों की दशा से परमात्मा (ब्रह्म) का द्रवित होकर उनके तापों की शान्ति के लिए जल रूप में अवतरित होना । ताप चाहे कैसा भी हो उसकी शान्ति जल से ही होती है ।
गंगा का एक नाम ‘ब्रह्माम्बु’ है । अम्बु जल को कहते हैं, इसलिए ब्रह्म + अम्बु अर्थात् जलरूप ब्रह्म ।
भगवान की प्रत्येक लीला के पीछे लोककल्याण ही छिपा होता है । भगवान के जलमय रूप होने के पीछे भी कलियुग में मानव का कल्याण ही छिपा है । यदि गंगा का धरती पर अवतरण न हुआ होता तो कलियुग में मनुष्यों के पापों का मल कैसे धुलता?
भगवान विष्णु का चरणामृत है गंगा
आदिकवि वाल्मीकि ने अपने ‘गंगाष्टक’ में गंगा को ‘मुरारि का चरणामृत’ कहा है । अपने प्रभु विष्णु का चरणामृत जानकर भगवान शंकर ने ब्रह्मस्वरूपिणी गंगा को अपने मस्तक पर धारण किया है । कवि रसखान ने तो यहां तक कह दिया कि गंगा समस्त व्याधियों की सर्वोत्तम औषधि है इसीलिए भगवान शंकर अपने मस्तक पर स्थित गंगा के भरोसे ही आक-धतूरे चबाते रहते हैं और उन्हीं के भरोसे उन्होंने हलाहल विष का पान कर लिया—
‘आक धतूरो चबात फिरैं,
विष खात फिरैं सिव तोरे भरोसे ।।
भगवान की विभूति है गंगा
गंगा भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई है, विष्णुपदी है, उसका महत्व केवल इतना ही नहीं है; अपितु गंगा साक्षात् परमात्मा की विभूति है । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (१०।३१) में गंगा को अपना स्वरूप बतलाते हुए कहा है—‘स्तोत्रसामस्मि जाह्नवी ।’
गंगा ब्रह्मजल है, उसमें भगवान के गुण होने के कारण वह सदैव शुद्ध, पवित्र व निर्विकार रहने वाला दिव्य पदार्थ है । इसीलिए वह शारीरिक व मानसिक रोगों को दूर करने व सांसारिक भोगों के साथ मोक्ष प्रदान करने की भी क्षमता रखता है—
गंग सकल मुद मंगल मूला ।
सब सुख करनि हरनि सब सूला ।। (राचमा २।८७।४)
गंगा के द्रवरूप में आविर्भाव की कथाएं
वास्तव में गंगा गोलोक या विष्णुलोक में भगवान श्रीहरि की ही एक स्वरूपाशक्ति हैं । गंगा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में अनेक कथाएं है । यहां गंगा के नीराकार ब्रह्मस्वरूप को दर्शाती दो पौराणिक कथाओं का उल्लेख किया जा रहा है ।
ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड) में गंगा की द्रवरूप में उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है—
श्रीराधाकृष्ण का जलरूप है गंगा
एक बार गोलोक में श्रीकृष्ण कार्तिक पूर्णिमा के दिन रासमहोत्सव मना रहे थे । रासमण्डल में श्रीकृष्ण श्रीराधा की पूजा कर विराजमान थे । उसी समय श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए सरस्वती प्रकट हुईं और उन्होंने अपनी मधुर स्वरलहरी में गीत गाकर और दिव्य वीणा के वादन से सारा वातावरण झंकृत कर दिया ।
उसी समय भगवान शंकर भी श्रीकृष्ण सम्बन्धी सरस पद गाने लगे । उसे सुनकर सभी देवगण मूर्छित हो गए । जब उनकी चेतना लौटी तब वहां श्रीराधाकृष्ण के स्थान पर सारे रासमण्डल में जल-ही-जल फैला हुआ था । सभी गोप-गोपी और देवगण भगवान श्रीराधाकृष्ण को न पाकर विलाप करते हुए उनसे पुन: प्रकट होने की प्रार्थना करने लगे ।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने आकाशवाणी द्वारा कहा—‘मैं सर्वात्मा श्रीकृष्ण और मेरी स्वरूपाशक्ति श्रीराधा—हम दोनों ने ही भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए यह जलमय विग्रह (नीराकार स्वरूप) धारण कर लिया है ।’
यदि कोई मनुष्य गंगा का जल हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करेगा और फिर उस अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन नहीं करेगा वह नरक का भागी होगा ।
वे ही पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण और राधा जलरूप होकर गंगा बन गए और वह दिव्य जलराशि ही ‘देवनदी’ गंगा के नाम से प्रसिद्ध हुई । गोलोक से प्रकट होने वाली गंगा का यही रहस्य है ।
श्रीमद्देवीभागवत में गंगा के ब्रह्मद्रव रूप में आविर्भाव की कथा
दक्षकन्या सती के देहत्याग करने पर जब भगवान शिव तप करने लगे, तब देवताओं ने जगन्माता की स्तुति कर उनसे दोबारा भगवान शंकर का वरण करने की प्रार्थना की । देवी ने तब प्रसन्न होकर कहा—‘मैं दो रूपों में पर्वतराज हिमालय और मैना के घर प्रकट होऊंगी ।’ पहले वे अपने अंश रूप से वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को गंगा रूप में प्रकट हुईं फिर पूर्णावतार धारणकर पार्वती के रूप में प्रकट हुईं ।
हिमालय के घर में सती का अंशावतार गंगा के रूप में प्रकट होने पर ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोचा कि सती के छायाशरीर को लेकर जब शिवजी ताण्डव कर रहे थे तो उनके पैरों के आघात से पृथ्वी रसातल में जाने लगी । जगत की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने चक्र से छायासती के शरीर के टुकड़े कर दिए थे, उस अपराध के कारण भगवान शिव अभी तक हमसे रुष्ट हैं । यदि हम गंगा को शिवजी को प्रदान कर दें तो वे हमसे अवश्य प्रसन्न हो जाएंगे । जैसे छायासती भगवान शिव के सिर पर स्थित रहीं वैसे ही ये गंगा जलरूप में उनके सिर पर सुशोभित रहेंगी ।
गंगा की ब्रह्मलोक से भूलोक तक की यात्रा
ब्रह्माजी सहित सभी देवगण हिमालय के घर गंगा को मांगने के लिए पहुंच गए और उन्हें सारी बात बता दी । गिरिसुता गंगा पिता की आज्ञा से सदाशिव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए ब्रह्माजी के कमण्डलु में निराकार रूप से स्थित हो कर स्वर्गलोक में आ गयीं । जब उनकी माता मैना को यह बात पता चली तो उन्होंने गुस्से में शाप देते हुए कहा—‘माता से बिना बात किए तुम स्वर्ग चलीं गयीं, इसलिए तुम्हें जलरूप में पुन: पृथ्वी पर आना होगा ।’
ब्रह्माजी ने मूर्तिमान गंगा को शंकरजी को दे दिया और वे शंकरजी के साथ कैलास चली गयीं । ब्रह्माजी की प्रार्थना पर एक अंश से वे निराकार रूप में उनके कमण्डलु में स्थित हो गयीं और ब्रह्माजी उन्हें ब्रह्मलोक में ले गए ।
गंगा के शंकरजी के साथ विवाह की बात सुनकर भगवान विष्णु ने उन्हें वैकुण्ठ में बुलाया । भगवान शंकर गंगाजी सहित वैकुण्ड में पधारे । भगवान विष्णु के आग्रह पर वे सुन्दर पदों का गान करने लगे । वे जो रागिनी गाते वही मूर्तिमान होकर प्रकट हो जाती ।
भगवान शंकर के गायन से भगवान विष्णु हुए द्रवरूप
भगवान शंकर के ‘श्री’ नामक रागिनी के गाने से मुग्ध होकर भगवान विष्णु स्वयं रसरूप होकर बहने लगे । ब्रह्माजी ने देखा कि स्वयं ब्रह्म भी इस समय द्रवीभूत हो गए हैं; अत: उन्होंने वह जल भी अपने कमण्डलु में रख लिया । ब्रह्मद्रव से कमण्डलु के जल का स्पर्श होते ही सारा जल गंगाजी में मिल गया और निराकारा गंगाजी जलमयी हो गयीं ।
इसके बाद वामन अवतार में जब भगवान विष्णु ने विराट् रूप धारण कर अपने एक पग से बलि की सारी पृथ्वी नाप ली, शरीर से आकाश और भुजाओं से दिशाएं घेर लीं, दूसरे पग से उन्होंने स्वर्ग को भी नाप लिया, तब भगवान द्वारा उठाया गया चरण महर्लोक, जनलोक और तपलोक को पारकर सत्यलोक में पहुंच गया ।
उनके उठे हुए चरण के अंगूठे के नख से ब्रह्माण्ड फट गया । वहां से निकले जल को ब्रह्माजी ने अपने कमण्डलु में ले लिया। ब्रह्माजी ने कमण्डलु के उसी जल से भगवान के चरण को स्नान कराया। कमण्डलु का जल देते ही वह चरण वहीं स्थिर हो गया । ब्रह्मा के कमण्डलु का वही जल विष्णुजी के पांव पखारने से गंगा के रूप में परिणत हो गया और वे ‘विष्णुपदी’, ‘नारायणी’, ‘वैष्णवी’ व ‘सुरसरि’ नाम से भी जानी जाने लगीं ।
गंगा का मूल मन्त्र है—‘ॐ नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नम: ‘ अर्थात् विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और नारायणी गंगा भगवान विष्णु का ।
भगवान शंकर बन गए ‘गंगाधर’
अंत में भागीरथ की तपस्या के फलस्वरूप गंगा का अवतरण जब धरती पर होने लगा तो उस समय का बहुत ही सुन्दर वर्णन भगवान व्यासजी ने महाभारत के वनपर्व में किया है—
‘शंकरजी अपनी जटा फैलाकर खड़े हैं । शंकरजी को खड़े देखकर आकाश से एकाएक गंगाजी गिरीं । उनमें बहुत-सी मछलियां और घड़ियाल खलबलाहट पैदा कर रहे थे । आकाश में करधनी सी मालूम पड़ने वाली उस गंगा को शंकरजी ने सिर पर यों धारण किया, जैसे मोती की माला धारण की हो ।’
भगवान के चरणों तक पहुंचाने वाली शक्ति का नाम है गंगा
गंगा शिवजी की जटाओं में बस गयीं और उसमें से बाहर न निकल सकी । राजा भगीरथ की प्रार्थना पर शिवजी ने जब अपनी जटा का एक बाल खोलकर गंगा को बाहर निकाला तो लोकमंगल को उतावली गंगा भगीरथ के रथ के पीछे चल पड़ीं और कपिलमुनि के आश्रम में जाकर राजा सगर के भस्मसात् पुत्रों को जैसे ही गंगाजी ने स्पर्श किया वे मुक्त होकर स्वर्ग पहुंच गए ।
भगवान विष्णु के पद (चरण) से निकली गंगा भगवान विष्णु के पद (लोक) को ही प्रदान कर देती हैं ।
गंगा, गीता, गायत्री, गणपति, गौरि, गुपाल ।
प्रातकाल जो नर भजैं, ते न परैं भव-जाल ।।