krishna bhagwan with narayan swami

भारतवर्ष है सिद्ध, संत और महात्माओं की भूमि

भारतभूमि सिद्ध, संत और महात्माओं की भूमि है । यहां एक-से-बढ़कर-एक सिद्ध संत हुए हैं । देवता, मनुष्य, राजा, प्रजा—सबमें सच्चे संतों का स्थान सबसे ऊंचा है । स्वयं भगवान नारायण ने सृष्टि के आरम्भ में संतरूप में नारायण ऋषि होकर तप किया था ।

संत हृदय नवनीत समाना

संत परमात्मा को अत्यन्त प्यारे होते हैं, क्योंकि वे केवल भगवान को चाहते हैं, उनके ऐश्वर्य या माया (वैभव) को नहीं । कुछ संत दास्यभाव से भगवान का भजन करते हैं, वह भगवान की अनन्तकाल तक पदसेवा करना चाहते हैं, तो कुछ मधुरभाव से भजन करते हैं, वह गोलोक में हमेशा भगवान के साथ रहना चाहते हैं और जो संत निर्गुणभाव से भजन करते हैं, वह भी अनन्तकाल तक भगवान की चिन्मय सत्ता में विलीन हो जाने की इच्छा रखते हैं; इसलिए ऐसे संतों के लिए भगवान ही उनके हो जाते हैं ।

क्या संतों को भगवान के दर्शन होते हैं ?

इसका उत्तर है ‘हां’ । भारतवर्ष में अनेक ऐसे संत हुए हैं जिन्हें भगवान के दर्शन हुए या जिनके साथ भगवान लीला करते थे । ऐसे संत संसार में थोड़े हैं परन्तु उनका अस्तित्व ही जगत में मंगल और कल्याण बनाए हुए है । सिद्ध संतों का स्वभाव बहुत ही भिन्न हुआ करता है । एकान्त स्थान में दिन-रात उनका भगवान के साथ शरीर-मन-वाणी और आत्मा से सम्बन्ध बना रहता है इसलिए वे अपनी मौज में बने रहते हैं । अधिकांश सच्चे संत अपने को लोगों में प्रकट नहीं करते हैं । ऐसे सच्चे संत हमारे बीच आते भी हैं परन्तु हम उन्हें पहचान नहीं पाते हैं । वे अपने अनन्य भक्तों को आज भी दर्शन देते रहते हैं ।

श्रीकृष्ण की लीला के यन्त्र हैं संत

संत भगवान की नित्यलीला के साधन होते हैं । संत और भगवान परस्पर सखा होकर लीला करते हैं । ऐसे ही एक संत ‘अहमदशाह’ का कहना है कि वैकुण्ठ में कल्पवृक्ष की छांह मुझे नहीं चाहिए मुझे तो व्रज के ढाक के वृक्ष ही सुहावने लगते हैं जहां मेरा प्रीतम प्यारा मेरे साथ गलबहियां डाले खड़ा रहता है—

काह करिय वैकुंठ लै कलप बृच्छ की छांह ।
‘अहमद’ ढाक सुहावनो, जौं पीतम-गल बांह ।।

श्रीकृष्ण और नारायण स्वामी का पकड़ा-पकड़ी का खेल

संत नारायण स्वामी का जन्म सं. १८८५ में रावलपिण्डी में हुआ था । तीस वर्ष की आयु में वे सब कुछ त्यागकर प्रेम-संन्यास ग्रहणकर गोवर्धन में कुसुम सरोवर पर रहा करते थे ।

कुसुम सरोवर

कुसुम सरोवर व्रज के प्रधान सरोवरों में से एक है । इसे कुसुमवन या पुष्पवन भी कहा गया है । यह श्रीराधाकृष्ण की श्रृंगाररस की लीला का क्षेत्र है । श्रीराधारानी अपनी सखियों के साथ यहां प्रियतम श्रीकृष्ण के लिए पुष्प चयन करने के लिए प्रतिदिन आती हैं । श्रीकृष्ण भी अपनी गोपमण्डली के साथ यहां गोचारण के लिए आते हैं । यह स्थान श्रीराधाकृष्ण की मिलनस्थली के रूप में भक्तों में पूजनीय है । इसलिए श्रीकृष्ण मिलन की इच्छा रखने वाले संतों की यह साधनास्थली रही है ।

श्रीकृष्ण और नारायण स्वामी की सख्यलीला

परम अनुरागी संत नारायण स्वामी श्रीकृष्ण को ही ब्रह्म मानते थे । श्रीकृष्ण प्रेम ही इनकी साधना का प्राण था । कुसुम सरोवर पर एक मन्दिर का पुजारी भी रहता था । एक दिन पुजारी ने देखा कि नारायण स्वामी पागल की भांति कुसुम सरोवर से गिरिराज पर्वत की ओर दौड़े जा रहे हैं । गिरिराज पर्वत के पास जाकर वे फिर पीछे की ओर दौड़ने लगे और दौड़ते-दौड़ते नारायण स्वामी कुसुम सरोवर तक लौट आए । इस प्रकार न जाने कितनी बार गिरिराज पर्वत की ओर दौड़कर जाते और फिर लौटकर कुसुम सरोवर तक दौड़ कर आते ।

पुजारी को आश्चर्य हुआ पर उसने नारायण स्वामी से कुछ पूछा नहीं । दूसरे दिन भी नारायण स्वामी वैसे ही दौड़ते रहे । यह क्रम कई दिन तक चला । एक दिन पुजारी से रहा नहीं गया और उसने नारायण स्वामी के चरण पकड़ कर पूछा–’आप इस प्रकार दौड़ते क्यों रहते हैं ?’

नारायण स्वामी उत्तर देने से बचने लगे परन्तु पुजारी अड़ गया और उनके चरण छोड़े ही नहीं । तब पुजारी का अत्यधिक प्रेम देखकर नारायण स्वामी बोले–

‘देखो ! मैं जाता हूँ कुसुम सरोवर भजन करने के लिए । लेकिन जैसे ही भजन के लिए नेत्र बंद करता हूँ वह कन्हैया मुझे कुछ दूरी पर खड़ा दिखायी देता है ।

कन्हैया की आंखें हिरन-सी नशीली ।
कन्हैया की शोखी कली-सी रसीली ।।
कन्हैया की छवि दिल उड़ा लेने वाली ।
कन्हैया की सूरत लुभा लेने वाली।। (हज़रत नफीस खलीली)

उसकी हिरन-सी नशीली आंखों की रूपमाधुरी में फंसकर मैं पागल हो जाता हूँ और जैसे ही मैं उसे पकड़ने के लिए दौड़ता हूँ, वह भाग निकलता है । मैं उसके पीछे-पीछे गिरिराज तक दौड़ता हूँ । गिरिराज पर्वत पर आकर मुझे लगता है कि वह मेरे पीछे खड़ा है तो मैं उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़ता हूँ और वह मुझे कुसुम सरोवर तक ले आता है । इस तरह कई दिनों से मैं उसे पकड़ने के लिए कुसुम सरोवर से गिरिराज पर्वत और गिरिराज पर्वत से कुसुम सरोवर तक की दौड़ लगा रहा हूँ ।’

जाहि लगन लगी घनस्याम की ।
x   x x   x x
नारायन बौरी भई डोलै, रही न काहू काम की।।

परमात्मा के लिए तो कोई विरले भाग्यवान मनुष्य ही पागल होते हैं

पुजारी ने आश्चर्यचकित होकर कहा–’आप उनसे कोई बात क्यों नहीं करते ?’

नारायण स्वामी बोले–’पहले तो बहुत-सी बात याद रहती हैं कि उनसे ये पूछूंगा, वह भी पूछूंगा किन्तु उनकी नीलमणि-सी छवि को देखते ही सब कुछ भूल जाता हूँ; केवल उनकी याद बच रहती है । इस स्थिति को बयां करते हुए उनका पद है—

मोहन बस गयौ मेरे मन मैं।
जित देखूं तित ठाडौ ही दीसै, घर बाहर आंगन में ।।
लोक लाज कुल-कान छूटि गई, याकी नेह लगन में ।
कुंडल कलित ललित बनमाला, बाजूबंद भुजन में ।।
रोम-रोम प्रति अंग-अंग में, छाय रह्यौ तन-मन में ।
नैन विशाल भ्रकुटि बर बांकी, ठाडौ सघन लतन में ।।
नारायन बिन मोल बिकी हौं, याकी मन्द हंसन में ।।

मनचोर श्रीकृष्ण

भगवान सबसे पहले भक्त का मन चुरा लेते हैं । जिसका मन भगवान ने चुरा लिया; वह फिर उस मनचोर श्रीकृष्ण से अलग कैसे रह सकता है ? इसलिए श्रीकृष्ण के सौन्दर्यजाल में फंसकर पागल होने से बचने के लिए एक भक्त नंदमहल की गली के पास भी जाने को मना करते हुए कहता है कि—

हे पथिक ! तू उस रास्ते से मत गुजरना । वह रास्ता बहुत भयानक है । वहां से गुजरने पर मनुष्य का सर्वस्व लुट जाता है । वहां एक छैल-छबीला तमालवर्ण (नीलश्याम वर्ण) का, नंगे बदन, अपने नितम्ब पर हाथ धरे, मंद-मंद मुसकराता हुआ, देखने में भोला-भाला जादूगर खड़ा है । वह तुरन्त ही पथिक का मनरूपी धन चुरा लेता है, और उसे रोकने वाला कोई नहीं है—

बटाऊ ! वा मग से मति जइयो ।
गली भयावनि भारी जा मैं सबरो माल लुटइयो ।।
ठाडो वहां तमाल-नील एक छैल छबीलो छैयो ।
नंगे बदन मदन-मद मारत, मधुर-मधुर मुसकैयो ।।
देखन कौ अति भोरो छोरो, जादूगर बहु सैयो ।
हरत चित्तधन सरबस तुरतहि, नहिं कोउ ताहि रुकैयो ।।

हमें यह विश्वास करना ही होगा कि इसी मनुष्य शरीर में, इन्हीं आंखों से भगवान का दर्शन होता है । इसी हाथ से भगवान पकड़े जाते हैं । सूरदासजी ने कहा है—

हाथ छुड़ाए जात हो, निबल जानि के मोहि ।
हृदय से जब जाओगे, मरद कहोंगो तोहिं ।।

नारायण स्वामी को भगवान की दिव्यलीला के दर्शन कई बार हुए थे । कुसुम सरोवर पर ही उनकी समाधि है ।

श्रीमद्भागवत (११।१४।१६) में संतों की महिमा गाते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘उद्धव ! तुम जैसे संत भक्त मुझको जितने प्यारे हैं, उतने मेरे आत्मरूप ब्रह्मा, शंकर, बलभद्र, लक्ष्मी और अपना आत्मा भी प्यारे नहीं है । मैं ऐसे  निरपेक्ष, शान्त, निर्वैर और समदर्शी संत के चरणरज से अपने को पवित्र करने के लिए सदा ही उसके पीछे-पीछे फिरा करता हूँ ।’

1 COMMENT

  1. श्री राधाकृष्णाभ्याम नमः
    आदरणीय अर्चना जी,जय श्री राधे श्याम!
    जी, मैं परम् पूज्य श्री नारायण स्वामी जी के विषय में विस्तृत जानकारी का अभिलाषी हूं कृपापूर्वक बताने की महानता करें,”दास” आपसे आपकी श्री स्वामी में अभिरुचि को ध्यान में रखते हुए अनुरोध कर रहा है । श्री स्वामी की जानकारी प्रदान कराने के क्रम में उनके जन्म स्थान,समाधि स्थल, उनके परम पूज्य श्री गुरुदेव भगवान तथा उनकी कृतियां एवं मुख्य रूप से उनकी जीवनी कैसे प्राप्त हो सकेगी,ये सारी जानकारी उपलब्ध कराने की महानता करेंगी ऐसी आपसे अपेक्षा करते हैं।
    ।।जय श्री वृन्दावन जय श्री राधे श्याम।।

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