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भगवान श्रीकृष्ण की योगी लीला

भक्तों को दिए वरदानों और उनके मनोरथों को पूरा करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज में अनेक लीलाएं कीं । उनमें से एक अत्यंत रोचक लीला है ‘भगवान श्रीकृष्ण की योगी लीला’ ।

कुब्जा प्रसंग द्वारा श्रीकृष्ण का संसार को संदेश

संसार में स्त्रियां कुंकुम-चंदनादि अंगराग लगाकर स्वयं को सज्जित करती हैं; किन्तु हजारों में कोई एक ही होती है जो भगवान को अंगराग लगाने की सोचती होगी और वह मनोभिलाषित अंगराग लगाने की सेवा भगवान तक पहुंच भी जाती है क्योंकि उसमें भक्ति-युक्त मन समाहित था । कुब्जा की सेवा ग्रहण करके भगवान प्रसन्न हुए और उस पर कृपा की ।

श्रीकृष्ण : ‘वेदों में मैं सामवेद हूँ’

श्रीकृष्ण चरित्र भी सामवेद के इस मन्त्र की तरह मनुष्य को हर परिस्थिति में सम रह कर जीना सिखाता है । भगवान श्रीकृष्ण की सारी लीला में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है । द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया ।

श्रीकृष्ण का छठी पूजन महोत्सव

पुराणों में षष्ठी देवी को ‘बालकों की अधिष्ठात्री देवी’, उनको दीर्घायु प्रदान करने वाली, उनकी धात्री (भरण-पोषण करने वाली) व उनकी रक्षा करने वाली और सदैव उनके पास रहने वाली माना गया है ।

क्या संतों को भगवान के दर्शन होते हैं ?

मैं उसके पीछे-पीछे गिरिराज तक दौड़ता हूँ । गिरिराज पर्वत पर आकर मुझे लगता है कि वह मेरे पीछे खड़ा है तो मैं उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़ता हूँ और वह मुझे कुसुम सरोवर तक ले आता है । इस तरह कई दिनों से मैं उसे पकड़ने के लिए कुसुम सरोवर से गिरिराज पर्वत और गिरिराज से कुसुम सरोवर तक की दौड़ लगा रहा हूँ ।’

अद्भुत है श्रीकृष्ण-चरित्र

द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया। क्या किसी ने ऐसा आज तक किया है? भगवान की सारी लीला में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है। इसीलिए महर्षि व्यास ने उन्हें प्रकृतिरूपी नटी को नचाने वाला सूत्रधार और ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ कहा है।

सबसे ऊँची प्रेम सगाई

भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं। इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा। न मन्दिर है न जंगल। न धूप है न चैन। है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है। यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है।

भगवान श्रीकृष्ण की मनमोहिनी दानलीला

एक तरफ तो सकुचाता-लजाता, गोरस की मटकियों को सिर पर रखे कुछ ठगा-सा, कुछ भयभीत पर कान्हा की रूपराशि पर मोहित व्रजवनिताओं का झुण्ड और दूसरी ओर चंदन और गेरु से मुख पर तरह-तरह की पत्रावलियां बनाए, कानों में रंग-बिरंगे पुष्पों के गुच्छे लटकाए, गले में गुंजा की माला पहने, हरे-गुलाबी अगरखा पर कमर में रंग-बिरंगे सितारों से झिलमिलाते फेंटा कसे, मोरपंखों से सजी लकुटिया (बेंत) लिये ग्वालबालों सहित श्रीकृष्ण का टोल (दल)।

भगवान श्रीकृष्ण का व्रजप्रेम

कई दिन बीत गए पर मथुराधीश श्रीकृष्ण ने भोजन नहीं किया। संध्या होते ही महल की अटारी (झरोखों) पर बैठकर गोकुल का स्मरण करते हैं। वृन्दावन की ओर टकटकी लगाकर प्रेमाश्रु बहा रहे हैं। कन्हैया के प्रिय सखा उद्धवजी से रहा नहीं गया। उन्होंने कन्हैया से कहा--’मैंने आपको मथुरा में कभी आनन्दित होते नहीं देखा। आप दु:खी व उदास रहते हैं। आपका यह दु:ख मुझसे देखा नहीं जाता।’

कान्हा मोरि गागर फोरि गयौ रे

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपी की गोरस से भरी मटकी फोड़ने की लीला और उसका भाव वर्णन