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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सामवेद को बताया अपनी विभूति

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।।

श्रीमद्भगवद्गीता के १०वें अध्याय के २२वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं—‘मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना अर्थात् जीवनी शक्ति हूँ ।’

संगीतमय वेद है सामवेद

ऐसा माना गया है कि पहले एक ही वेद था और सभी लोग उस सम्पूर्ण वेद को ग्रहण करने की सामर्थ्य रखते थे  किन्तु धीरे-धीरे मनुष्य की मेधाशक्ति (यादाश्त) कम होती गयी । तब कृष्णद्वैपायन व्यासजी ने लोगों के कल्याण के लिए वेद का विभाजन करके अपने चार शिष्यों—पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को इसका उपदेश किया । सामवेद की परम्परा व्यासजी के शिष्य जैमिनी से शुरु होती है ।

साम का अर्थ है ‘गान’ या ‘संगीत’ । सामवेद में स्वरों सहित गाने में आने वाले मन्त्र हैं । सामवेद की ऋचाओं का गायन होता है । सामवेद में अत्यन्त मधुर, संगीतमय तथा परमात्मा की सुन्दर स्तुतियां दी गयी हैं; इसलिए वेदों में उसकी प्रधानता है ।
सामवेद से ही संगीतशास्त्र  का प्रादुर्भाव माना जाता है । ब्रह्मा ने सामवेद से ही गीतों का संग्रह किया । संगीत रत्नाकर के रचियता शांर्गदेव ने संगीत का उपजीव्य (जिसके सहारे जीवन चलता हो) ग्रन्थ सामदेव को माना है । भरत मुनि ने भी कहा है ‘सामवेद से ही गीत की उत्पत्ति हुई है ।’

संगीत के आदि गुरु श्रीकृष्ण

पूर्णावतार चौंसठ कलाओं से युक्त श्रीकृष्ण तो गायन, वादन और नृत्य के आदि गुरु हैं । भगवान श्रीकृष्ण के रास में गायन, वादन और नृत्य का अद्भुत समन्वय है । उस पर उनका नटवर वेष और अनुपम सौंदर्य ! श्रीकृष्ण की वंशी साधारण बांसुरी की तरह कोई जड़ बांस का बना बाजा मात्र नहीं है । वंशी ध्वनि अर्थात् श्रीकृष्ण के आवाहन यन्त्र की ध्वनि जो जड होकर भी चेतन का चित्त हरण करने की सामर्थ्य रखती है।

भगवान श्रीकृष्ण ने चारों वेदों में सामवेद को ही अपनी विभूति क्यों बताया ?

सामवेद में पद्य रूप में ऋग्वेद के मन्त्र, गद्य रूप में यजुर्वेद के मन्त्र और गीत के रूप में तीन प्रकार के मन्त्र है । तीनों प्रकार के मन्त्र सामवेद में होने से यह अत्यधिक व्यापक व महत्वपूर्ण वेद है इसीलिए वेणु प्रिय, गुणों को ग्रहण करने वाले और ब्राह्मण प्रिय भगवान कृष्ण ने स्वयं अपने को साक्षात् सामवेद बताया है ।

भगवान श्रीकृष्ण का अवतार भी प्रेम, माधुर्य और आनन्द का अवतार है । पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने अपने मधुराष्टक में श्रीकृष्ण के गायन, वादन और नृत्य को पृथ्वी पर सबसे अधिक मधुर बतलाया है—

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥३॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥४॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥४॥

आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ (करकमल) मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं, आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण ! आपका सब कुछ मधुर है ।।३॥

आपके गीत मधुर हैं, आपका पीना मधुर है, आपका भोजन मधुर है, आपका शयन मधुर है, आपका रूप मधुर है, आपका टीका (तिलक) मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण ! आपका सब कुछ मधुर है ॥४।।

ऐसे रसेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में सामवेद को अपनी विभूति बतलाया, यही सामवेद की महिमा को सिद्ध करता है ।
सामवेद का एक मन्त्र है—

वसन्त इन्नु रन्त्यो ग्रीष्म इन्नु रन्त्य: ।
वर्षाण्यनु शरदो हेमन्त: शिशिर इन्नु रन्त्य: ।। (सामवेद ६१६)

अर्थ—

वसन्त रमणीय सखे, ग्रीष्म रमणीय है ।
वर्षा रमणीय सखे, शरद रमणीय है ।।
हेमन्त रमणीय सखे, शिशिर रमणीय है।
मन स्वयं भक्त बने, विश्व तो रमणीय है ।।

श्रीकृष्ण चरित्र भी सामवेद के इस मन्त्र की तरह मनुष्य को हर परिस्थिति में सम रह कर जीना सिखाता है । भगवान श्रीकृष्ण की सारी लीला में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है । द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया । क्या किसी ने ऐसा आज तक किया है ?

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