सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्र सीद मह्यम्।।
अर्थात्-कमलवासिनी, हाथ में कमल धारण करने वाली, अत्यन्त धवल वस्त्र, गन्धानुलेप तथा पुष्पहार से सुशोभित होने वाली, भगवान विष्णु की प्रिया, लावण्यमयी तथा त्रिलोकी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हे भगवति! मुझ पर प्रसन्न होइए।
विष्णुप्रिया महालक्ष्मी सभी चल-अचल, दृश्य-अदृश्य सम्पत्तियों, सिद्धियों व निधियों की अधिष्ठात्री हैं। जीवन की सफलता, प्रसिद्धि और सम्मान का कारण लक्ष्मीजी ही हैं। चंचला लक्ष्मीजी का स्थिर रहना ही जीवन में उमंग, जोश और उत्साह पैदा करता है। मनुष्य ही नही देवताओं को भी लक्ष्मीजी की प्रसन्नता और कृपादृष्टि की आवश्यकता होती है। लक्ष्मी के रुष्ट हो जाने पर देवता भी श्रीहीन, निस्तेज व भयग्रस्त हो गए।
लक्ष्मीजी का रुष्ट होकर देवलोक का त्याग व इन्द्र का श्रीहीन होना
प्राचीनकाल में दुर्वासा के शाप से इन्द्र, देवता और मृत्युलोक–सभी श्रीहीन हो गए। रूठी हुई लक्ष्मी स्वर्ग का त्याग करके वैकुण्ठ में महालक्ष्मी में विलीन हो गयीं। सभी देवताओं के शोक की सीमा न रही। वे ब्रह्माजी को लेकर भगवान नारायण की शरण में गए। भगवान की आज्ञा मानकर इन्द्रसम्पत्तिस्वरूपा लक्ष्मी अपनी कला से समुद्र की कन्या हुईं। देवताओं व दैत्यों ने मिलकर क्षीरसागर का मन्थन किया। उससे लक्ष्मीजी का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने भगवान विष्णु को वरमाला अर्पित की। फिर देवताओं के स्तवन करने पर लक्ष्मीजी ने उनके भवनों पर केवल दृष्टि डाल दी। इतने से ही दुर्वासा मुनि के शाप से मुक्त होकर देवताओं को असुरों के हाथ में गया राज्य पुन: प्राप्त हो गया।
देवराज इन्द्र ने ‘स्वर्गलक्ष्मी’ किस प्रकार पुन: प्राप्त की, किस विधि से उन्होंने लक्ष्मी का पूजन किया, इसी का वर्णन यहां किया गया है। उस दिव्य विधि का अनुसरण करके हम भी अपने घरों में महालक्ष्मी का आह्वान कर सकें ताकि महालक्ष्मी अपने सहस्त्ररूपों में हमारे घर स्वयं आने के लिए व्याकुल हो उठें और हमारे जीवन के समस्त दु:ख-दारिद्रय दूर हो सकें।
देवराज इन्द्र द्वारा लक्ष्मीजी का सोलह उपचारों से (षोडशोपचार) पूजन
देवराज इन्द्र ने क्षीरसमुद्र के तट पर कलश स्थापना करके गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव व दुर्गा की गन्ध, पुष्प आदि से पूजा की। फिर उन्होंने अपने पुरोहित बृहस्पति तथा ब्रह्माजी द्वारा बताये अनुसार महालक्ष्मी की पूजा की।
इन्द्र द्वारा महालक्ष्मी का ध्यान
देवराज इन्द्र ने पारिजात का चंदन-चर्चित पुष्प लेकर महालक्ष्मी का निम्न प्रकार ध्यान किया–
पराम्बा महालक्ष्मी सहस्त्रदल वाले कमल की कर्णिकाओं पर विराजमान हैं। वे शरत्पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमाओं की कान्ति से दीप्तिमान हैं, तपाये हुए सुवर्ण के समान वर्ण वाली, मुखमण्डल पर मन्द-मन्द मुसकान से शोभित, रत्नमय आभूषणों से अलंकृत तथा पीताम्बर से सुशोभित व सदैव स्थिर रहने वाले यौवन से सम्पन्न हैं। ऐसी सम्पत्तिदायिनी व कल्याणमयी देवी की मैं उपासना करता हूँ।
इस प्रकार ध्यान करके देवराज इन्द्र ने सोलह प्रकार के उपचारों (षोडशोपचार) से लक्ष्मी का पूजन किया। इन्द्र ने मन्त्रपूर्वक विविध प्रकार के उपचार इस प्रकार समर्पित किए–
आसन
हे महालक्ष्मि! विश्वकर्मा के द्वारा निर्मित अमूल्य रत्नों के सारस्वरूप इस विचित्र आसन को ग्रहण कीजिए।
पाद्य
हे कमलालये! पापरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्निरूप इस पवित्र गंगाजल को पाद्य (पैर धोने के लिए) के रूप में स्वीकार कीजिए।
अर्घ्य
हे पद्मवासिनी! पुष्प, चन्दन, दूर्वा आदि से युक्त इस शंख में स्थित गंगाजल को अर्घ्य (हाथ धोने के लिए) के रूप में ग्रहण कीजिए।
स्नानीय उपचार
हे श्रीहरिप्रिये! विविध पुष्पों के सुगन्धित तैल व आमलकी (आंवले) का चूर्ण जो कि शरीर की सुन्दरता को बढ़ाने वाला है, स्नानीय उपचार के रूप में ग्रहण कीजिए।
वस्त्र
हे देवि! शारीरिक सौन्दर्य के मूल कारण तथा शोभा बढ़ाने वाले कपास तथा रेशम से निर्मित वस्त्र को आप स्वीकार करें।
आभूषण
हे देवि! स्वर्ण और रत्नों से निर्मित शारीरिक सौन्दर्य को बढ़ाने वाले व ऐश्वर्य प्रदान करने वाले रत्नमय आभूषणों को आप अपनी शोभा के लिए ग्रहण कीजिए।
धूप
हे श्रीकृष्णकान्ते! वृक्ष के रस के सूख जाने पर गोंद के रूप में निकले हुए पदार्थ तथा सुगन्धित द्रव्यों को मिलाकर बनायी गयी यह पवित्र धूप आप ग्रहण कीजिए।
चन्दन
हे देवि! मलयगिरि से उत्पन्न सुगन्धयुक्त व सुखदायक इस चन्दन को आपकी सेवा में समर्पित करता हूँ, इसे आप स्वीकार कीजिए।
दीप
हे परमेश्वरि! जो जगत के लिए चक्षुस्वरूप है, अंधकार जिसके सामने टिक नहीं सकता, ऐसे प्रज्जवलित दीप को आप स्वीकार कीजिए।
नैवेद्य
हे अच्युतप्रिये! अन्न को ब्रह्मरूप माना गया है। प्राण की रक्षा इसी पर निर्भर है। तुष्टि और पुष्टि प्रदान करना इसका सहज गुण है। नाना प्रकार के अनेक रसों से युक्त इस अत्यन्त स्वादिष्ट नैवेद्य को आप ग्रहण कीजिए। यह उत्तम खीर चीनी और घी से युक्त है, इसे अगहनी के चावल से तैयार किया गया है। आप इसे स्वीकार कीजिए।
हे लक्ष्मि! शर्करा और घी में सिद्ध किया हुआ स्वादिष्ट स्वस्तिक नामक मिष्टान्न आप ग्रहण करें। हे अच्युतप्रिये! ये अनेक प्रकार के सुन्दर फल व सुरभि गाय से दुहे गए अमृतरूप सुस्वादु दुग्ध को आप स्वीकार करें। ईख से निकाले गए स्वादिष्ट रस को अग्नि पर पकाकर बनाया गया स्वादिष्ट गुड़ है, आप इसे ग्रहण करें। जौ, गेहूँ आदि के चूर्ण में गुड़ व गाय का घी मिलाकर अच्छे से पकाए हुए इस मिष्टान्न (हलुआ) को आप ग्रहण करें। मैंने धान्य के चूर्ण से बनाए गए तथा स्वस्तिक आदि से युक्त इस पिष्टक को भक्तिपूर्वक आपकी सेवा में समर्पित किया है। इसे आप ग्रहण कीजिए।
जल
हे देवि! प्यास बुझाने वाले, अत्यन्त शीतल, सुवासित, जगत के लिए जीवनस्वरूप इस जल को स्वीकार कीजिए।
आचमन
कृष्णकान्ते! यह पवित्र तीर्थजल स्वयं शुद्ध है तथा दूसरों को भी शुद्धि प्रदान करने वाला है, इस दिव्य जल को आप आचमन के रूप में ग्रहण करें।
ताम्बूल
हे पद्मासने! कर्पूर आदि सुगन्धित पदार्थों से सुवासित तथा जीभ की जड़ता को समाप्त कर स्फूर्ति प्रदान करने वाले इस ताम्बूल को आप ग्रहण कीजिए।
व्यजन
हे कमले! शीतल वायु प्रदान करने वाला और गर्मी में सुखदायक यह पंखा व चंवर है, इसे आप ग्रहण कीजिए।
माल्य
हे देवि! विविध ऋतुओं के पुष्पों से गूंथी गयी, अत्यधिक शोभायमान, देवताओं को भी परम प्रिय इस सुन्दर माला को आप स्वीकार करें।
शय्या
हे देवि! यह अमूल्य रत्नों से बनी हुई सुन्दर शय्या वस्त्र आभूषणों व श्रृंगारसामग्री से सजायी गयी है, पुष्प और चंदन से चर्चित है, इसे आप स्वीकार करें।
हे देवि! इस पृथ्वी पर जो भी अपूर्व और दुर्लभ द्रव्य शरीर की शोभा को बढ़ाने वाले हैं, उन समस्त द्रव्यों को मैं आपको अर्पण कर रहा हूँ, आप ग्रहण कीजिए।
महालक्ष्मी का सिद्ध मन्त्र
इस प्रकार देवी लक्ष्मी का षोडशोपचार पूजन कर इन्द्र ने उनके मूल मन्त्र का दस लाख जप किया। मन्त्र है–
‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्ये स्वाहा’
(कुबेर ने इसी मन्त्र से महालक्ष्मी की आराधना करके परम ऐश्वर्य प्राप्त किया था। इसी मन्त्र के प्रभाव से मनु को राजाधिराज की पदवी प्राप्त हुई। प्रियव्रत, उत्तानपाद और राजा केदार इसी मन्त्र को सिद्ध करके ‘राजेन्द्र’ कहलाए।)
मन्त्र सिद्ध होने पर महालक्ष्मी ने इन्द्र को दर्शन दिए। देवराज इन्द्र ने वैदिक स्तोत्रराज से उनकी स्तुति की–
ॐ नमो महालक्ष्म्यै।।
ॐ नम: कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नम:।
कृष्णप्रियायै सततं महालक्ष्म्यै नमो नम:।।
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम:।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम:।।
सर्वसम्पत्स्वरूपिण्यै सर्वाराध्यै नमो नम:।
हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नम:।।
कृष्णवक्ष:स्थितायै च कृष्णेशायै नमो नम:।
चन्द्रशोभास्वरूपायै रत्नपद्मे च शोभने।।
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नम:।
नमो वृद्धिस्वरूपायै वृद्धिदायै नमो नम:।।
वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्या लक्ष्मी: क्षीरसागरे।
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये।।
गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता।
सुरभि सागरे जाता दक्षिणा यज्ञकामिनी।।
अर्थात्–देवी कमलवासिनी को नमस्कार है। देवी नारायणी को नमस्कार है, कृष्णप्रिया महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है। कमलपत्र के समान नेत्रवाली और कमल के समान मुख वाली को बार-बार नमस्कार है। पद्मासना, पद्मिनी और वैष्णवी को बार-बार नमस्कार है। सर्वसम्पत्स्वरूपा और सबकी आराध्या को बार-बार नमस्कार है। भगवान श्रीहरि की भक्ति प्रदान करने वाली तथा हर्षदायिनी लक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है। हे रत्नपद्मे! हे शोभने! श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर सुशोभित होने वाली तथा चन्द्रमा की शोभा धारण करने वाली आप कृष्णेश्वरी को बार-बार नमस्कार है। सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी को नमस्कार है। महादेवी को नमस्कार है। वृद्धिस्वरूपिणी महालक्ष्मी को नमस्कार है। वृद्धि प्रदान करने वाली महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है। आप वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, क्षीरसागर में लक्ष्मी, इन्द्र के स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, राजाओं के भवन में राजलक्ष्मी, गृहस्थों के घर में गृहलक्ष्मी और गृहदेवता, सागर के यहां सुरभि तथा यज्ञ के पास दक्षिणा के रूप में विराजमान रहती हैं।
प्रार्थना
हे महालक्ष्मी जिस प्रकार बचपन में दुधमुंहे बच्चों के लिए माता है, वैसे ही तुम सारे संसार की जननी हो। दुधमुंहा बालक माता के न रहने पर भाग्यवश जी सकता है, परन्तु तुम्हारे बिना कोई भी नहीं जी सकता। हे हरिप्रिये! अब तो मुझे राज्य दो, श्री दो, बल दो, कीर्ति दो, धन दो और यश भी प्रदान करो। मनोवांछित वस्तुएं दो, बुद्धि दो, भोग दो, ज्ञान दो, धर्म दो तथा सौभाग्य दो। इनके अलावा मुझे प्रभाव, प्रताप, सम्पूर्ण अधिकार, पराक्रम तथा ऐश्वर्य दो।
इन्द्र सहित सभी देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर महालक्ष्मी ने उनको स्वर्ग का राज्य प्रदान किया।
पूर्ण सात्विकता व पवित्रता के साथ तथा परिवार में त्याग, प्रेम व समर्पण की भावना के साथ यदि इस तरह से लक्ष्मीजी का पूजन किया जाए तो कोई कारण नहीं कि वे अपनी कृपादृष्टि हम पर न डालें।
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥
जय सियाराम