bhagwan shiv kashi vishwanath

सभी तीर्थों में काशी का अलौकिक माहात्म्य माना गया है, क्योंकि यहां मृत्यु होते ही मुक्ति (सद्योमुक्ति) मिल जाती है । पंचकोशी काशी का अविमुक्त क्षेत्र साक्षात् ज्योतिर्लिंग स्वरूप स्वयं भगवान विश्वनाथ हैं । ब्रह्माजी ने भगवान की आज्ञा से ब्रह्माण्ड की रचना की । तब दयालु शिवजी ने विचार किया कि कर्म-बंधन में बंधे हुए प्राणी मुझे किस प्रकार प्राप्त करेंगे ? इसलिए शिवजी ने काशी को ब्रह्माण्ड से पृथक् रखा और भगवान विश्वनाथ ने समस्त लोकों के कल्याण के लिए काशीपुरी में निवास किया । ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ स्वरूप होने के कारण प्रलयकाल में भी काशी नष्ट नहीं होती है; भगवान शिव इसे अपने त्रिशूल के अग्रभाग पर धारण किए रहते हैं । 

काशी अर्थात् आनन्दवन में है शिव का साम्राज्य

श्रीरामोत्तरतापनीयोपनिषद् में उल्लेख है कि—काशी के अधीश्वर भगवान विश्वनाथ ने काशीपुरी में एक सहस्त्र मन्वन्तर तक जप-पूजन कर श्रीराम-मन्त्र का अनुष्ठान किया । इससे प्रसन्न होकर भगवान श्रीराम ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा । 

भगवान शिव ने कहा—‘परमेश्वर ! इस मणिकर्णिका तीर्थ में, मेरे काशी-क्षेत्र में तथा गंगाजी में या गंगा तट पर जो कोई भी प्राणी अपना प्राण त्याग करे, तो उसे आप तत्काल मुक्ति प्रदान करें ।’

भगवान श्रीराम ने कहा—‘आप यहां जिस किसी भी मरणासन्न प्राणी के दायें कान में मेरे मंत्र का उपदेश करेंगे, वह निश्चय ही मुक्त हो जाएगा ।’

तभी से भगवान शिव अपने प्राणधन भगवान श्रीराम का निरन्तर नाम-स्मरण करते रहते हैं और काशी में मरने वालों के कान में श्रीराम-नाम का उपदेश करके उन्हें मुक्त कर देते हैं ।

महामंत्र जोइ जपत महेसू ।
कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ।। (राचमा १।१८।३)

अन्य लोकों में मनुष्य के लिए ‘जैसा करता है, वैसा भरता है’ का नियम है; परन्तु काशी तो आनन्दवन है । यहां भोलेशंकर शिव का साम्राज्य है । यहां कोई भी दु:खी नहीं रहने पाता है । यहां मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्मों का रजिस्टर नहीं खोला जाता है, किसी के पाप-पुण्य नहीं तौले जाते हैं और न ही खरे-खोटे की परख की जाती है । यहां प्राणियों को केवल उत्तम मुक्ति प्राप्त होती है क्योंकि काशी तो मोक्षप्रदायिका है । भगवान शिव काशी में मरने वाले प्रत्येक प्राणी को मुक्ति दान करते हैं । जिन प्राणियों को कहीं भी गति नहीं मिलती, उनकी गति काशीपुरी (वाराणसी) में होती है ।

काशी में मरण से चार प्रकार की मुक्तियां होती हैं—

  • सालोक्य मुक्ति अर्थात् शिव लोक में निवास करना,
  • सारूप्य मुक्ति अर्थात् शिव के समान रूप प्राप्त करना,
  • सांनिध्य मुक्ति का अर्थ है शिव के समीप रहना, और 
  • सायुज्य मुक्ति अर्थात् शिव में मिल जाना ।

पद्मपुराण में भगवान शिव श्रीराम से कहते हैं—‘मरणकाल में जिस मनुष्य का शरीर मणिकर्णिका-घाट पर गंगाजी के जल में पड़ा रहता है उसको मैं आपका तारक-मंत्र  (राम-नाम) देता हूँ, जिससे वह ब्रह्म में लीन हो जाता है ।’ ब्रह्म में लीन होना ही अमृत पद प्राप्त कर लेना या मोक्ष है ।

जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, 
कहत संत, श्रुति, सकल पुरान ।
सो गति मरन-काल अपने पुर, 
देत सदासिव सबहिं समान ।। (विनय पत्रिका)

काशी को ‘आनन्दवन’ क्यों कहते हैं ?

काशी की अधीश्वरी देवी हैं अन्नपूर्णा, वे भी अपने पति के इस मुक्ति-दान के कार्य में सहायता करती हैं । जीव का मृत्यु काल निकट आने पर जब भगवान शंकर उस मरणासन्न प्राणी को अपनी गोद में रखकर उसे तारक मंत्र का उपदेश करने लगते हैं; उस समय अत्यंत करुणामयी देवी अन्नपूर्णा उस मरणासन्न प्राणी की व्याकुलता को देखकर अत्यंत द्रवित हो जाती हैं और कस्तूरी की गंध वाले अपने आंचल से उस प्राणी की हवा करने लगती हैं और उसकी समस्त व्याकुलता दूर कर देती हैं । देवी के इस विनम्र समर्पण भाव को देखकर भगवान विश्वनाथ गद्गद् हो जाते हैं और वे अपना समस्त ऐश्वर्य उनको सौंप देते हैं ।

देवी अन्नपूर्णा का मरणासन्न प्राणी के प्रति यह वात्सल्य ही काशी को महाश्मशान से ‘आनन्दवन’ बना देता है । इसीलिए लोग कहते हैं—‘काशी कबहुं न छांड़िये विश्वनाथ-दरबार ।’

इस विकराल कलिकाल में आत्म-कल्याण चाहने वाले मनुष्य के लिए चार बातें ही सार हैं—

१. भगवान शिव का पूजन, 
२. काशी का निवास, 
३. गंगाजल का सेवन और 
४. सत्संग ।

असारे खलु संसारे सारमेतच्चतुष्टयम् ।
काश्यां वास: संतो संगो गंगाम्भ: शिवपूजनम् ।।

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