bhagwan shri radha krishna jai jai

कबीरदासजी ने सही कहा गया है—

गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पांय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा से जीवन जीने की कला के साथ परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग भी दिखाई पड़ जाता है । यही सत्य संत श्रीविट्ठलविपुलदेव के जीवन प्रसंग में देखने को मिलता है ।

श्रीविट्ठलविपुलदेव और उनके गुरु स्वामी हरिदास 

स्वामी हरिदास के शिष्य थे श्रीविट्ठलविपुलदेव । उनकी गुरु-निष्ठा अनन्य थी । सं. १६३१ में स्वामी हरिदास के गोलोक-गमन के बाद वे गुरु के वियोग में अत्यन्त शोकाकुल रहते थे । उनके नेत्रों से अविरल गुरु का विरह-जल बहता रहता था । गुरु का विरह जब चरम पर पहुंच गया तो वह किसी को भी देखना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने अपने नेत्रों पर पट्टी बांध ली ।

उन्हीं दिनों वृन्दावन के कुछ सम्माननीय संतों ने अत्यन्त उत्साह से रासलीला का आयोजन किया । कुछ आदरणीय संत श्रीविट्ठलविपुलदेव को आमन्त्रित करने के लिए उनके पास गए । संतों का आग्रह श्रीविट्ठलविपुलदेव टाल न सके और रास-दर्शन के लिए आ विराजे । यद्यपि उनके नेत्र पट्टी से ढके हुए थे किन्तु उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी और शरीर वश में नहीं था ।

रासलीला शुरु हुई । रास-नृत्य के साथ लय और ताल का समावेश कर गायन और वादन होने लगा–

गिडगिड तां तां तां धितां धितां मंदिलरा बाजे,
तांघि लांघि लांघि लांघि धिधिकट धिधिकट थननननथुं,
गिड गिडथुं गिड गिडथुं घन प्रचंड गाजे,
थुंग थुंग थुंग थुंग थरथर तनननननन थेई थेई,
शब्द उघटत नटवर नट राजे,
‘कृष्णदास’ प्रभु गिरधर प्यारी संग नृत्य करें,
अंग अंग कोटि सुलक्षण मन्मथ मन लाजे ।।

रास-नृत्य के साथ ही श्रीश्यामा-श्याम गलबांही दिए सखी-मण्डल में नृत्य कर रहे थे । रास-नृत्य के बोल सुन कर व श्रीश्यामा-श्याम की उन पर थिरकन, उनके मुकुट की लटक और चन्द्रिका की चटक, मालाओं की झमक देखकर दर्शकों के मन भी हिचकौले लेने लगे । बीच-बीच में मुरली की सुरीली तान, नूपुरों के मनहरण बोल और श्रीश्यामा-श्याम और सखियों के कोकिल कंठ द्वारा लिए गए मधुर आलाप व तान ने सभी को मतवाला कर दिया । वातावरण पूरी तरह आत्मविस्मित कर देने वाला था । 

श्रीश्यामा-श्याम की अद्भुत पद-नूपुर ध्वनि पर श्रीविट्ठलविपुलदेव का मन नाच उठा । दिव्य-दर्शन के लिए उनके हृदय में तीव्र लालसा जाग उठी । विलम्ब असह्य हो गया ।

भगवान से भक्त की विरह-पीड़ा सही नही गई । तभी श्रीश्यामा-श्याम की नृत्य-गति मंद हो गई । श्रीश्यामा (श्रीराधा) श्रीश्यामसुन्दर (श्रीकृष्ण) से बोलीं—‘प्यारे ! श्रीविट्ठलविपुलदेव के नेत्रों की पट्टी खुलवा दो ।’ 

श्रीश्यामसुन्दर ने कहा—‘आप ही अपनी कृपा करो ।’

श्रीविट्ठलविपुलदेव को श्रीश्यामा-श्याम के साक्षात् दर्शन

श्रीश्यामसुन्दर के ऐसा कहते ही श्रीराधा ने जाकर श्रीविट्ठलविपुलजी का हाथ पकड़ लिया और बोलीं—‘पट्टी खोलो और मेरे दर्शन करो, मैं राधा हूँ ।’

प्रेम-विभोर होकर श्रीविट्ठलविपुलदेव ने कहा—‘स्वामिनीजी ! अब छोड़ना नहीं’ और दूसरे हाथ से नेत्रों पर से पट्टी हटा दी । जैसे ही नेत्र खोले तो देखा कि श्रीश्यामा-श्याम के रोम-रोम से गौर-श्याम तेज की महाकान्ति चारों ओर छिटकी हुई है और पास ही उनके सर्वस्व और गुरु श्रीहरिदासजी ललितासखी के रूप में विराजमान हैं ।

युगलस्वरूप के साक्षात् दर्शन करने से श्रीविट्ठलविपुलदेव के नेत्र स्तब्ध और देह जड़ हो गई, नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे । मुख से बोल निकले—‘हे रासेश्वरी ! आप करुणा करके मुझे अपनी नित्यलीला में स्थान दो । अब मेरे प्राण संसार में नहीं रहना चाहते हैं ।’

बस उनका पांचभौतिक शरीर श्रीश्यामा-श्याम के चरणों में लुढ़क गया और प्राण-ज्योति युगलछवि में समा गई । वे रास-रस के सच्चे अधिकारी थे अत: भगवान की नित्यलीला में सदा के लिए सम्मिलित हो गए । उनकी उपासना ने पूर्ण सिद्धि पाई, भगवान ने उन्हें अपना लिया ।

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