shri krishna

भगवान की पूजा का सबसे सरल साधन है भगवान के नामों का स्मरण । कलियुग में तो इससे अच्छा कोई दूसरा उपाय है ही नहीं । स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—‘अर्जुन ! जो मेरे नामों का गान करके मेरे निकट नाचने लगता है, या जो मेरे नामों का गान करके मेरे समीप प्रेम से रो उठते हैं, उनका मैं खरीदा हुआ गुलाम हूँ; यह जनार्दन दूसरे किसी के हाथ नहीं बिका है–यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ ।’

दुख को सुख में बदल देता हैं श्रीकृष्ण का नाम मन्त्र

भगवान के नाम मन्त्र का कीर्तन करने से सैंकड़ों जन्मों में किये गये पापों की राशि उसी प्रकार जल जाती है, जिस प्रकार आग से रुई का ढेर । भगवान श्रीकृष्ण का चमत्कारी व सबसे लोकप्रिय नाम मन्त्र इस प्रकार है—

।। ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव’ ।।

मन्त्र के प्रत्येक नाम का भावार्थ

किसी भी मन्त्र का जप करने से पहले उसका अर्थ जान लेना जरुरी है, तभी वह मन्त्र शीघ्र अपना प्रभाव दिखाता है । इस मन्त्र के एक-एक शब्द का अर्थ इस प्रकार है—

श्रीकृष्ण

‘कृष्ण’ शब्द दो अक्षरों से बना है—कृष् + ण । ‘कृष्’ का अर्थ है आकर्षण और ‘ण’ का अर्थ है आनन्द अर्थात् जो सभी के मन का आकर्षण करके आनन्द प्रदान करते हैं वह हैं श्रीकृष्ण ।

महाभारत में भगवान कृष्ण ने अपने नाम की बड़ी विलक्षण व्याख्या की गयी है—‘मैं काले लोहे की बड़ी कील बनकर पृथ्वी का कर्षण करता हूँ और मेरा वर्ण भी कृष्ण (काला) है इसलिए में कृष्ण नाम से पुकारा जाता हूँ ।’

ब्रह्मवैवर्तपुराण (श्रीकृष्णजन्मखण्ड, १११।५७-५८) में श्रीराधाजी द्वारा की गई ‘कृष्ण’ नाम की व्याख्या इस प्रकार है–‘कृष्ण’ ऐसा मंगल नाम है जिसकी वाणी में वर्तमान रहता है, उसके करोड़ों महापातक तुरन्त ही भस्म हो जाते हैं । कृष्ण नाम अकेले ही मनुष्य के सारे दोषों को दूर कर डालता है ।

इस मन्त्र में ‘कृष्ण’ नाम से यह प्रार्थना की गयी है कि—हे प्रभो ! आप सभी के मन को आकर्षित करने वाले हैं, अत: आप मेरा मन भी अपनी ओर आकर्षित कर अपनी भक्ति व सेवा की ओर लगाइये व मेरे सारे पापों का नाश कर दीजिए ।

गोविन्द

‘गोविन्द’ नाम का अर्थ है—गायों के इन्द्र या समस्त इन्द्रियों के स्वामी । जैसे आग बुझा देने के लिए जल और अन्धकार को नष्ट कर देने के लिए सूर्योदय समर्थ है, उसी प्रकार कलियुग की पापराशि का शमन करने के लिए ‘गोविन्द’ नाम का कीर्तन समर्थ है । 

मन्त्र में ‘गोविन्द’ नाम से यह प्रार्थना की गयी है कि—गौओं और इन्द्रियों की रक्षा करने वाले भगवन् ! आप मेरी इन्द्रियों को स्वयं में लीन कर लें । मेरी सभी इन्द्रियां गोपियों की तरह आपका ही चिन्तन करती रहें; अर्थात् आप मेरे मन की चंचलता और पापों को दूर कीजिए ।

गोपियां श्रीकृष्ण का स्मरण कैसे करती थीं ? इसका वर्णन श्रीमद्भागवत (१०।४४।१५) में किया गया है–’जो गोपियां गायों का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकों को झुलाते समय, रोते हुए बच्चों को लोरी देते समय, घरों में छिड़काव करते तथा झाड़ू लगाते समय प्रेमपूर्ण चित्त से, आँखों में आँसू भरे, गद्गद् वाणी से श्रीकृष्ण के गुणगान किया करती हैं, वे श्रीकृष्ण में ही चित्त लगाने करने वाली गोपियां धन्य हैं ।’

हरे

भगवान ने कहा है कि मैं अपना स्मरण करने वालों के पाप का हरण (नाश) कर देता हूँ, इसलिए मेरा नाम ‘हरि’ है । एक अन्य अर्थ के अनुसार जो यज्ञ में हवि के भाग का हरण (ग्रहण) करते हैं अर्थात् यज्ञ के भोक्ता हैं, वे भगवान ‘हरि’ कहलाते हैं । ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान का रंग हरित (नीलमणि) के समान अत्यन्त कमनीय है, इसलिए वे ‘हरि’ कहलाते हैं ।

स्वयं भगवान का कथन है—‘जिसने ‘हरि’ इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया, उसने मानो ऋक्, यजु, साम और अथर्ववेद का अध्ययन कर लिया हो ।

मन्त्र में ‘हरि’ नाम से यह प्रार्थना की गयी है कि—हे प्रभु ! ‘हरि’ ये दो अक्षर मृत्यु के पश्चात् परलोक के रास्ते में जाने वाले जीव के लिए पाथेय हैं अत: आपके हरि नाम का कीर्तन करने से मैं भवसागर मैं नहीं डूबूंगा, ऐसा मेरा विश्वास है ।

रटते जो हरि नाम हैं, नहिं पड़ते भवधार ।
जो भूले हरि नाम को, डूबत हैं मझधार ।।

मुरारे

भगवान श्रीकृष्ण ने मुर नामक दैत्य का वध किया इसलिए उनका नाम ‘मुरारी’ हो गया । मन्त्र में ‘मुरारी’ नाम से यह प्रार्थना की गयी है कि—हे मुर राक्षस के शत्रु, उसको मारने वाले ! मेरे मन में बसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या आदि राक्षसों का नाश कीजिए ।

हे नाथ

हे कृष्ण ! आप जगत के नाथ ‘जगन्नाथ’ हैं और मैं अनाथ हूँ । संसार में दीनों से प्रेम करने वाले, उनका आदर करने वाले और उन्हें अपनाने वाले केवल दो ही होते हैं—१. भगवान, और २. संत; इसलिए उन्हें दीनदयाल, दीनबन्धु, दीनवत्स, दीनप्रिय और दीनानाथ कहते हैं । 

नाथ तू अनाथ कौं, अनाथ कौन मोसौं ।
मो समान आरत (दु:खी) नहीं, आरतहर तोसौं ।।

मन्त्र में ‘हे नाथ’ नाम से यह प्रार्थना की गयी है कि—हे प्रभु ! मेरे समान कोई इस संसार में दु:खी नहीं है और आप के समान दु:खियों का, अनाथों का, दीनों का बंधु कोई नहीं है; इसलिए मुझ अनाथ का भाव आप नाथ के साथ जुड़ा रहे ।

कभी भगवान भक्तों को दुखी नहीं होने देते ।
जैसे मां-बाप बच्चों को कभी रोने नहीं देते ।।
बुराइयां दूर बच्चों की सभी मां-बाप करते हैं ।
प्रभो आकर के भक्तों के पाप और ताप हरते हैं ।।

नारायण

नारायण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है—‘नार’ + ‘अयन’ । ‘नार’ का अर्थ है जल और ‘अयन’ शब्द का अर्थ है निवास करने वाले अर्थात् क्षीरसागर में निवास करने वाले । श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान श्रीकृष्ण का कहना है—‘मैं चार स्वरूप धारण करके सदैव समस्त लोकों की रक्षा करता रहता हूँ’—

—मेरी एक मूर्ति इस भूमण्डल पर बदरिकाश्रम में नर-नारायणरूप में तपस्या में लीन रहती है ।

—दूसरी परमात्मारूप मूर्ति अच्छे-बुरे कर्म करने वाले जगत को साक्षीरूप में देखती रहती है ।

—तीसरी मूर्ति मनुष्यलोक में अवतरित होकर नाना प्रकार के कर्म करती है ।

—चौथी मूर्ति (विष्णु) सहस्त्रों युगों तक एकार्णव (क्षीरसागर) के जल में शयन करती है । जब मेरा चौथा स्वरूप योगनिद्रा से उठता है, तब भक्तों को अनेक प्रकार के वर प्रदान करता है ।

मन्त्र में ‘हे नारायण’ नाम से यह प्रार्थना की गयी है कि—हे प्रभु ! मैं नर हूँ और आप नारायण हैं । आपको प्राप्त करने के लिए आपके आदर्श पर मैं तपस्या में रत रहूँ और आप सदैव अपनी कृपा मुझ पर बनाए रखें ।

वासुदेव

वासुदेव का अर्थ है जो सभी के अन्त:करणों में प्रकाशित है, वह अन्तर्यामी परमात्मा । वसु का एक अन्य अर्थ है प्राण । अत: सभी के प्राणों के देव ।

मन्त्र में ‘वासुदेव’ नाम से यह प्रार्थना की गयी है कि—हे भगवान ! आप मेरे प्राणों की रक्षा करें । मैंने अपना मन आपके चरणों में अर्पित कर दिया है ।

इस प्रकार साधारण से लगने वाले श्रीकृष्ण के नामों के इस मन्त्र में अपार शक्ति है । इसका निरन्तर जाप व स्मरण मनुष्य का भाग्य तक बदल देता है  ।

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