radha krishna

नंदबाबा के घर जब पुत्र रूप में आह्लाद (आनन्द रूप श्रीकृष्ण) का प्राकट्य हुआ तो आह्लादिनी (आनन्ददायिनी श्रीराधा) का प्रकट होना भी निश्चित था । अत: बृषभानु जी के घर आह्लादिनी श्रीराधा का जन्म हुआ । आह्लादिनी के बिना आह्लाद आता ही नहीं । राधा रानी ने व्रज में अवतरित होकर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा सर्वत्र प्रेम-रस बरसाया । ऐसे ही अनुपम प्रेम का साक्षात् दर्शन कराने वाली श्रीराधा-कृष्ण की एक दिव्य लीला यहां दी गई है—

श्रीराधा-कृष्ण का अनुपम प्रेम : कथा

एक दिन राधा रानी घर से निकलीं । किसी गोपबालक ने पीछे से कन्हैया को पुकारा—‘कृष्ण, ओ कृष्ण !’ राधा रानी ने कहा—‘ओ हो, इतना प्यारा नाम ! कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण ! बस प्यार करने योग्य यही है ।’

राधा रानी ने घर आकर निश्चय किया—मैं ब्याह करुंगी तो इसी से करुंगी ।

दूसरे दिन राधा रानी कहीं जाने के लिए फिर घर से निकलीं तो वंशी की ध्वनि कानों में पड़ी । इतनी प्यारी, इतनी मधुर, इतनी सुरीली ! उन्होंने अपने-आप से कहा—‘मैं तो वंशी वाले से ही ब्याह करुंगी ।’

जब वे घर आईं तो व्याकुल हो गयीं । मैं पतिव्रता का आदर्श बनना चाहती हूँ और वंशी वाले में भी मेरी प्रीति हो गयी और कृष्ण नाम वाले से भी । उन्हें बड़ा दु:ख हुआ  और वे बहुत व्याकुल हो गयीं ।

तभी उनकी सखी चित्रलेखा वृषभानुमहल में आई । उसने राधा रानी से कहा—‘सखी देखो, मैं एक चित्र बनाकर लायी हूँ । जरा इसको देखो और अपनी आंखें ठण्डी करो ।’

राधा रानी ने चित्र देखकर कहा—‘यह तो बहुत सुन्दर है । मन करता है मैं इसी से ब्याह करुं ।’ तुरन्त ही बुद्धि में विवेक जाग्रत हुआ—यह क्या ? मैं अकेली और मेरी तीन-तीन पुरुषों में प्रीति ? 

वे व्याकुल होकर बोली—‘मेरे लिए तो अब मरना ही अच्छा है । अरे, मैंने तो हृदय की आग ठण्डी करने के लिए चित्र देखा था, यह तो और आग लग गयी ।’ अब तो वे मरने को तैयार हो गयीं ।

राधा रानी मरने की इसलिए सोचने लगीं कि तीन-तीन पुरुषों में प्रीति—कृष्ण नाम वाला एक, वंशीवाला दूसरा और चित्र वाला तीसरा और वे अकेली ।

राधा रानी को अत्यन्त व्याकुल देखकर उनकी परम प्रिय ललिता सखी ने कहा—‘सखी ! तुम अपने मन का दु:ख-रोग तो बताओ, जो तुम्हें इतना व्याकुल कर रहा है । मैं उसका इलाज करुंगी ।’

श्रीराधा-कृष्ण के प्रेम के पथ में बड़ा ही गहन रहस्य है । राधा रानी के पास श्रीकृष्ण का मन है और श्रीकृष्ण के पास राधा रानी का मन है और ललिता सखी के पास दोनों का मन है; इसलिए वे दोनों को लाड़ लड़ाती हैं और उनके मिलन की व्यवस्था करती हैं । ललिता सखी श्रीराधा की सबसे प्रिय सखी हैं । वे सभी सखियों की गुरुरूपा हैं । श्रीललिता इन्द्रजाल में निपुण हैं । फूलों की कला में कुशल वे श्रीराधामाधव की कुंजलीला के लिए फूलों के सुन्दर चंदोबे तैयार करती हैं । वे श्रीराधा को ताम्बूल (पान का बीड़ा) देने की सेवा करती हैं । इस सेवा से वे अत्यन्त ललित (सुन्दर) हो गयीं हैं; इसलिए उनका नाम ललिता हुआ ।

राधा रानी ने कहा—‘क्या रोग बताऊं ? दवा करने से तो दुनिया में और बदनामी होगी । इससे तो मेरा मर जाना ही अच्छा है ।’

ललिता सखी नहीं मानी और उसने पता लगा लिया कि राधा रानी का रोग क्या है ? 

ललिता सखी ने कहा—‘सखी ! जिसका नाम कृष्ण है, वही वंशी वाला है और उसी का चित्र तुम्हें चित्रलेखा सखी ने दिखाया है । अब चिन्ता छोड़ो और उठो । मैं अभी उन्हें बुलाकर लाती हूँ ।’

ललिता सखी श्रीकृष्ण को बुलाने गयी; परन्तु श्रीकृष्ण ने आने से मना करते हुए कहा—‘मैं नंदबाबा और यशोदा मैया का बेटा, एक अनब्याही लड़की से मिलने के लिए जाऊं ? नहीं जाऊंगा ।’

ललिता सखी रोती हुई लौट गयी । राधा रानी ने दूर से ही देख लिया कि ललिता सखी रोती हुई आ रही है । वे समझ गयीं कि श्रीकृष्ण ने आने से मना कर दिया है ।

राधा रानी ने ललिता सखी से कहा—‘सखी ! यदि श्रीकृष्ण के हृदय में करुणा नहीं है तो इसमें तुम्हारा तो कोई दोष नहीं है । अब जो मैं कहती हूँ सो तुम करो । थोड़ी देर में जब मेरे शरीर से प्राण निकल जायें, तब तुम मेरी अन्त्येष्टि-क्रिया इस प्रकार करना । यमुना जी की रज से मेरे सारे शरीर पर ‘श्याम’ लिख देना । फिर मेरे इस शरीर को तमाल वृक्ष से सटाकर बांध देना और उसकी डाल में मेरे दोनों हाथ लटका देना जिससे जीवित अवस्था में न सही, मरने के बाद इस शरीर को श्रीकृष्ण का आलिंगन मिलता रहे ।’

(वृन्दावन में तमाल के वृक्ष बहुत होते हैं । तमाल के वृक्ष का रंग काला होता है, श्रीकृष्ण को भी तमालवर्णी कहते हैं ) 

राधा रानी ऐसा कहती जा रहीं थीं और उनके नेत्रों से आंसुओं की धारा बहती जा रही थी । उन्हें देखकर ललिता सखी के नेत्र भी भर आए ।

राधा रानी जब अत्यन्त व्याकुल होने लगीं, तभी श्रीकृष्ण बांसुरी बजाते हुए, पीताम्बर फहराते हुए प्रेम भरी चितवन से मुस्कराते हुए और ठुमुक-ठुमुक कर पैर नचाते हुए वहां पहुंच गये ।

उन्हें देखकर राधारानी के मुख से निकला—‘अरे ! ये ही श्रीकृष्ण हैं ?’

ललिता सखी बोली—‘हां-हां, यही श्रीकृष्ण हैं । ये ही बांसुरी वाले हैं, ये ही चित्र वाले हैं । यह सुनकर राधा रानी के हर्ष का पारावार न रहा । उनके दग्ध हृदय को अभूतपूर्व शान्ति मिली । मुख पर मुसकान रूपी पुष्प खिलते ही दोनों आनन्दरूपी महासागर में गोते लगाने लगे । ऐसा लगता था कि ये दोनों प्रेम वाटिका के माली और मालिन हैं । ललिता सखी ने जैसे ही प्रेमी युगल की इस अवस्था को देखा, वे प्रसन्नता से झूम उठीं ।

प्रेम के खिलौना दोउ खेलत हैं प्रेम खेल,
प्रेम फूल फूलन सौं प्रेम सेज रची है ।
प्रेम ही कि चितवनि औ मुसकनि हू प्रेम ही की,
प्रेम रँगी बातें करैं प्रेम केलि मची है ।। (ध्रुवदास जी)

जो श्रीकृष्ण के सुख के लिए ही इस धराधाम पर अवतरित होती हैं, श्रीकृष्ण के सुख के लिए ही हंसती और रोती हैं, श्रीकृष्ण के सुख से ही उनके जीवन का प्रकाश है और श्रीकृष्ण का दु:ख ही उनके जीवन की रात है, उन श्रीकृष्णप्राणवल्लभा को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है ।

श्रीराधा भव-बाधा हारी ।
संकट-मोचन कृष्ण मुरारी ।।
एक शक्ति, एकहि आधारी ।।
श्रीराधाकृष्णाय नम: ।।

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